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नौकरी दिलाने वाले एक नामी पोर्टल ने प्रोफाइल बनाने के लिए इस वरिष्ठ पत्रकार से 5,000 रुपए लिए..

Sanjaya Kumar Singh : चपरासी की नौकरी और विधायक के बेटे की सफलता…  70 साल कुछ नहीं हुआ बनाम चार साल खूब काम हुआ… 2002 में जनसत्ता की नौकरी छोड़ने के बाद मुझ नौकरी ढूंढ़ने या करने की जरूरत ही नहीं महसूस हुई। 2011 में साथी Yashwant Singh ने bhadas4media के लिए बीता साल कैसे गुजरा पर लिखने की अपील की थी। तब मैंने लिखा था, “मेरे लिए बीता साल इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण है कि इस साल एक ज्ञान हुआ और मुझे सबसे ज्यादा खुशी इसी से हुई। अभी तक मैं मानता था कि जितना खर्च हो उतना कमाया जा सकता है। 1987 में नौकरी शुरू करने के बाद से इसी फार्मूले पर चल रहा था। खर्च पहले करता था कमाने की बाद में सोचता था। संयोग से गाड़ी ठीक-ठाक चलती रही। …. पर गुजरे साल लगा कि खर्च बढ़ गया है या पैसे कम आ रहे हैं। हो सकता है ऐसा दुनिया भर में चली मंदी के खत्म होते-होते भी हुआ हो।

Sanjaya Kumar Singh : चपरासी की नौकरी और विधायक के बेटे की सफलता…  70 साल कुछ नहीं हुआ बनाम चार साल खूब काम हुआ… 2002 में जनसत्ता की नौकरी छोड़ने के बाद मुझ नौकरी ढूंढ़ने या करने की जरूरत ही नहीं महसूस हुई। 2011 में साथी Yashwant Singh ने bhadas4media के लिए बीता साल कैसे गुजरा पर लिखने की अपील की थी। तब मैंने लिखा था, “मेरे लिए बीता साल इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण है कि इस साल एक ज्ञान हुआ और मुझे सबसे ज्यादा खुशी इसी से हुई। अभी तक मैं मानता था कि जितना खर्च हो उतना कमाया जा सकता है। 1987 में नौकरी शुरू करने के बाद से इसी फार्मूले पर चल रहा था। खर्च पहले करता था कमाने की बाद में सोचता था। संयोग से गाड़ी ठीक-ठाक चलती रही। …. पर गुजरे साल लगा कि खर्च बढ़ गया है या पैसे कम आ रहे हैं। हो सकता है ऐसा दुनिया भर में चली मंदी के खत्म होते-होते भी हुआ हो।

हालांकि, मई 2002 में जनसत्ता की नौकरी छोड़ते समय मैंने यह नहीं सोचा था कि नौकरी नहीं करूंगा या बगैर नौकरी के काम चल जाएगा। पर सात साल कोई दिक्कत नहीं आई। आठवें साल आई तो और भी काफी कुछ सीखने-जानने को मिला पर वह ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं है। …. अनुवाद के अपने धंधे से खर्च नहीं चला तो नौकरी के बाजार को टटोलना शुरू किया और पाया कि बहुत खराब स्थिति में भी मैं बगैर नौकरी के घर बैठे जितना कमा ले रहा था उतने की नौकरी आसानी से उपलब्ध नहीं थी (मन लायक तो बिल्कुल नहीं) और जिन साथियों से बात हुई उनसे पता चला कि मैं जो अपेक्षा कर रहा हूं वह ज्यादा है और मुझ जैसी योग्यता वाले के लिए उतने पैसे मिलना संभव नहीं है।”

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अब आता हूं 2017 पर और यह पोस्ट लिखने की प्रेरणा पर। इससे पहले आप पढ़ चुके हैं कि चपरासी की नौकरी के लिए कितने और कैसे लोगों के आवेदन आए और आखिरकार वह नौकरी एक विधायक के शाहजादे को मिली। अब इसमें यह महत्वपूर्ण नहीं है कि नौकरी विधायक की सिफारिश से मिली या विधायक का बेटा ही सर्वश्रेष्ठ था। दोनों ही स्थिति अच्छी नहीं है। एक स्थिति पिछले 70 साल के कारण है और दूसरी पिछले लगभग चार साल के कारण। असल में हमारी सरकारें ऐसी ही रही हैं। आप कह सकते हैं कि हम भी ऐसे ही हैं। पर फिलहाल वह मुद्दा नहीं है।

मैं बता चुका हूं कि 2014 में देश में आई ईमानदार सरकार ने एक जुलाई 2017 से जीएसटी लागू किया जो छोटा-मोटा धंधा करने वालों को मार डालने का पुख्ता इंतजाम है। मैंने अपना काम छोड़कर यही बताने की कोशिश की कि मेरे जैसा सामान्य पढ़ा-लिखा, वर्षों से कंप्यूटर पर काम कर रहा व्यक्ति जो ठीक-ठाक कमा भी लेता है, जीएसटी की शर्तें पूरी नहीं कर सकता है तो आम आदमी कैसे करेंगे। सरकारी नियमों के कारण बैंक ने मेरा चालू खाता ब्लॉक कर दिया है क्योंकि 21 साल से चल रही मेरी फर्म की ऐसी कोई पहचान नहीं है जो बैंक की केवाईसी जरूरतें पूरी करे और नया मैं बनवाऊंगा नहीं। जाहिर है उसका असर काम-धंधे और कमाई पर भी पड़ा है। और यह सिर्फ मेरे साथ नहीं हुआ होगा।

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2011 के आस-पास जब मैंने नौकरी का बाजार टटोलना शुरू किया था कि नौकरी दिलाने वाले एक नामी पोर्टल ने उस समय 5,000 रुपए में मेरा प्रोफाइल बनाने की पेशकश की थी। प्रोफाइल क्या बनाना था, जो डिग्री और अनुभव होगा वही ना? उसमें बेल-बूटे और फूल-पत्ती आदि तो लगने नहीं थे। पर मैंने ठगी सीखने के लिए बेवकूफ बनना स्वीकार किया और 5000 रुपए खर्च करके प्रोफाइल बनवाया। उस समय मैंने यही सोचा था कि एक इंटरव्यू कॉल भी आ गया (हिन्दी में काम करने के लिए किसी अहिन्दी क्षेत्र यथा कोलकाता, बंगलौर, चेन्नई या हैदराबाद) तो विमान किराए में अपना 5000 रुपया निकल जाएगा। मैं इससे ज्यादा की उम्मीद नहीं कर रहा था। पर आज सात साल में उस प्रोफाइल पर एक इंटरव्यू कॉल भी नहीं आया। आप कह सकते हैं मैंने आवेदन ही नहीं किया होगा। यह आंशिक रूप से सही है पर मुझे नौकरी दे सकने वाले को मेरी सिफारिश करने का काम भी उस 5000 में शामिल था। वैसे भी ये कंपनी तो सही उम्मीदवार ढूंढ़कर कंपनी से कमीशन लेगी ही। तो मैंने भले कोशिश नहीं की, उस कंपनी ने तो की ही होगी। खैर।

उसी कंपनी का एक मेल आज आया। जी हां, सात साल में एक इटरव्यू नहीं करा पाने के बावजूद कंपनी मुझे छोड़ नहीं रही है (उसे लगता होगा मैं 5000 रुपए दे सकने वाला बेवकूफ हूं) और मेल आते रहते हैं। पेशकशें भी। एक बड़े हिन्दी दैनिक के स्थानीय संपादक के लिए भी फोन आया था। मैंने न्यूनतम अपेक्षा बताई और बात खत्म हो गई। फिर भी संपर्क (एकतरफा) बना हुआ है। कंपनी अब (काफी समय से) कह रही है कि मैं कोई कोर्स कर लूं (इस समय, साढ़े 53 साल की उम्र में) तो मुझे नौकरी मिलने की संभावना बढ़ जाएगी। हंसी आती है मैं मेल पढ़ता भी नहीं हूं। क्योंकि जमशेदपुर के एक्सएलआरआई में नौकरी करने वालों की तरक्की के लिए पार्ट टाइम कोर्स हुआ करता था (जो मैं कर सकता था) नहीं करने का अफसोस है और उसकी भरपाई के लिए 2010-11 के दौरान ही एक कोर्स के बारे में पता किया तो कुल खर्च था 17 लाख रुपए। जी हां, 17 लाख रुपए। मैंने तय किया कि बेटे पर इतने पैसे खर्च किए जाएं तो लाभ जल्दी और पक्का होगा। और हुआ। हो रहा है।

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सच यही है कि दूरदृष्टि ना हो परिवार छोड़कर शिखर पर पहुंच जाइए या फिर बेटे को चपरासी बनवाइए – अपने लिए तो सब ठीक है पर देश के लिए तो कोई कोर्स कर लीजिए। कब तक हार्ड वर्क का तबला बजवाकर लोगों को ठंड से बचाइएगा।

संजय कुमार सिंह जनसत्ता अखबार में कार्य करने के बाद से अनुवाद की अपनी कंपनी का संचालन कर रहे हैं. उनसे संपर्क https://www.facebook.com/sanjaya.kumarsingh के जरिए किया जा सकता है.

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