अजित रॉय-
यह सच है कि कोरोनावायरस के संकट काल में भारतीय फिल्म उद्योग को वेब सीरीज और ओटीटी मंचों ने बहुत राहत प्रदान की है। कई बड़े फिल्म निर्देशकों ने भी वेब सीरीज बनाने की पहल की है। ‘ सेक्रेड गेम्स’ , ‘पाताललोक’, ‘ बंदिश बैंडिट’, ‘ आश्रम’, ‘ तांडव’, ‘ मिर्जापुर’, ‘ मुंबई बेगम’ ‘ स्कैम 92’ जैसे दर्जनों वेब सीरीज सफल रहे हैं। पर इससे एक तरह की अराजकता का माहौल भी बना है। भारत सरकार ने इस मुद्दे पर नियमन और नियंत्रण के लिए नए कानून बनाने की पहल की है। हालांकि मैं किसी भी तरह के सेंसरशिप के खिलाफ हूं, पर भारत जैसे विकासशील देशों में यह एक जटिल प्रश्न है।
वेब सीरीज के इतिहास में 28 अगस्त 2015 का दिन हमेशा याद किया जाएगा। उस दिन दुनिया की सबसे बड़ी ओटीटी ( ओवर द टाप) कंपनी नेटफ्लिक्स ने अपने सबसे चर्चित वेब सीरीज ” कार्लोस ” का पहला एपिसोड जारी किया। यह सुपरहिट साबित हुआ और देखते देखते नेटफ्लिक्स कंपनी सातवें आसमान पर पहुंच गई। इस सीरीज का आखिरी एपिसोड एक सितंबर 2017 को प्रसारित हुआ। कोलंबिया के ड्रग माफिया पाब्लो एस्कोबार के उत्थान और पतन की दिलचस्प कहानी को दुनिया भर के दर्शको ने बेहद पसंद किया। अस्सी के दशक में कहा जाता था कि कोलंबिया में जितना टेलकम पाउडर नहीं है उससे अधिक ड्रग पाब्लो एस्कोबार के तलघर में हैं। पाब्लो एस्कोबार कोलंबिया का राष्ट्रपति होते होते रह गया क्योंकि उसके दुश्मनों ने मीडिया में उसकी एक पुरानी तस्वीर जारी कर दी जिसमें उसे एक संगीन जुर्म में सजायाफ्ता दिखाया गया था। नेटफ्लिक्स की दूसरी वेब सीरीज ” हाउस आफ कार्ड्स ” और ” औरेंज इज द न्यू ब्लैक ” आदि ने तो इस कंपनी को दुनिया भर में सिरमौर बना दिया।
जब जनवरी 2016 में नेटफ्लिक्स कंपनी भारत आई तो उसे कार्लोस जैसे भारतीय वेब सीरीज की तलाश थी। कंपनी ने अनुराग कश्यप के साथ इसी तरह का भारतीय वेब सीरीज बनाने का करार किया। अनुराग कश्यप और उनकी मित्र मंडली के पास किसी मौलिक पटकथा को तैयार करने का न तो समय था न ही सामर्थ्य। उन्हें विक्रम चंद्रा की किताब मिली” सेक्रेट गेम्स ” जिसके नायक गायतोंडे का उत्थान पतन कार्लोस के नायक पाब्लो एस्कोबार से मिलता जुलता था। चूंकि भ्रष्टाचार, धोखा और कामचोरी बालीवुड के डीएनए में हैं, इसलिए भारत में सेक्रेट गेम्स सीजन 2 बुरी तरह फ्लाप हुआ और नेटफ्लिक्स ने आगे के दर्जनों वेब सीरीज प्रोजेक्ट्स पर ताला लगा दिया।
इस समय भारत में लगभग चालीस ओटीटी प्लेटफॉर्म हैं जो वेब सीरीज के बिजनेस में हैं और बहुत जल्द इनकी संख्या सैकड़ों में होने वाली है। नेटफ्लिक्स और अमाजन प्राइम के पास निवेश करने के लिए बेशुमार दौलत है और घाटा उठाने का साहस भी, इसलिए ये दोनों कंपनिया इस इलाके में सबसे आगे हैं और ताकतवर भी। एम एक्स प्लेयर, जी 5 , उल्लू , हाट स्टार, आल्ट बालाजी, टीवीएफ, सोनी लिव , एप्पल टीवी तों सक्रिय हैं ही , फ्लिप कार्ट और रिलायंस जियो भी आनेवाले हैं। भारत में वेब सीरीज का यह नया दौर है। अधिकांश प्रोड्यूसर इसलिए पैसा लगा रहे हैं कि भविष्य में उन्हें भारी मुनाफा की उम्मीद है। पर अभी तो ऐसा लगता है कि हर कोई वेब सीरीज करने में लगा हुआ है।
भारत में वेब सीरीज की शुरुआत की कहानी थोड़ी दूसरी है। आईआईटी खड़गपुर ग्रेजुएट अरुणाभ कुमार ने यूट्यूब पर 2012 में टीवीएफ (द वायरल फीवर) चैनल खोला । अपने कुछ आईआईटी ग्रेजुएट दोस्तों के साथ शार्ट फिल्म्स, न्यूज़ गैग्स बनाना शुरू किया । फिर 2014 में टीवीएफ ने पहला हिंदुस्तानी वेब सीरीज़ बनाया “परमानेंट रूममेट्स” । नए चेहरे सुमित व्यास और निधि सिंह को लेकर । यह युवाओं और टी वी सीरियल ना देखनेवालों के बीच बहुत चर्चित हुआ । फिर इस सीरीज का दूसरा सीज़न 2016 में आया वह भी कामयाब रहा । 2015 ई में टीवीएफ ने अपना दूसरा वेब सीरीज़ लेकर आया पिचर.. जिसमें प्रोफेशनल लड़के अपना कॉरपोरेट और इंजीनियरिंग की नौकरी छोड़ कर अपना स्टार्ट अप शुरू करना चाहते हैं । “पिचर” भी बहुत कामयाब रहा। इसके बाद हिन्दुस्तान में वेब सिरीज़ बनाने की होड़ लग गई ।
शो बिजनेस का खेल वहीं हो सकता है जहाँ दर्शक हो । आज मोबाईल मनोरंजन का सबसे बड़ा स्क्रीन बन चुका है । इस उपभोक्ता युग मे जब कपड़े…जूते..बर्तन…किताब सभी ऑनलाइन बिकने लगे हैं फिर मनोरंजन क्यों नहीं ? भारत में टी वी और सिनेमा के बीच की इसी ज़रूरत ने वेब सीरीज की क्रांति लाई । मनोरंजन अब दर्शकों के मूड और वक़्त पर उपलब्ध है । यात्रा करते…किसी का इंतज़ार करते..अपने फुर्सत के क्षणों में जब चाहे…जितनी देर चाहे वेब पर मनोरंजन का लुत्फ़ उठाया जा सकता है।
सबसे बड़ी बात कि वेब पोर्टल पर अपनी अपनी रुचि के अनगिनत सीरीज़ है…दर्शकों के सामने विकल्प है अपनी पसंद की चीजें देखने की । हिन्दुस्तानी फिल्ममेकरों के लिए डिजिटल प्लेटफॉर्म वरदान साबित हुआ है । उनके क्रिएटिव अभिव्यक्ति पर कोई पाबंदी नहीं है… वे जैसे चाहे वैसे अपना मनोरंजन बिना किसी सेंसर के परोस सकते हैं । फ़िल्म के लिए फ़िल्म मेकर को डेढ़ या दो घण्टे की फ़िल्म बनाना लाजमी होता है वैसे ही सीरियल आप 22 या 45 मिनट से कम अवधि का नहीं बना सकते…लेकिन वेब सीरीज़ ने समय का बंधन तोड़ दिया है…10 या 15 मिनट की बेहतरीन शार्ट फिल्म्स बनाए जा रहे हैं…लस्ट स्टोरीज़ जिसमें अनुराग कश्यप…करन जौहर…ज़ोया अख़्तर और दिवाकर बैनर्जी ने ऐसे ही 14 से 18 मिनट की अलग अलग शार्ट स्टोरीज़ बनाके एक साथ रिलीज़ कर दी जो बहुत सफल रही ।
अनुराग कश्यप जैसे फ़िल्म मेकर को तकलीफ़ यह रही है कि उनकी ज़्यादातर फिल्मों की सैटेलाइट राइट नहीं बिकती है क्योंकि बोल्ड कंटेंट और गाली गलौज के कारण उनकी फ़िल्में टी वी पर दिखाई नहीं जाती । इसके दो नुकसान है एक सैटेलाइट राइट का पैसा फ़िल्म मेकर को नहीं मिल पाता और दूसरा एक बड़े दर्शक वर्ग जो सिर्फ़ टी वी पर फ़िल्में देखता है…वह देख नहीं पाता।
डिजिटल आ जाने से अनुराग की फ़िल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर के दोनों पार्ट का 8 एपिसोड में वेब सीरीज लॉन्च होने जा रहा है । आज फ़िल्ममेकर को ज़रूरी नहीं है तीन घण्टे की फ़िल्म बनाना…वह 20 मिनट के दस एपिसोड का सिरीज़ बना सकता है । राजकपूर की फ़िल्म मेरा नाम जोकर का असफल होने की एक वजह थी 4 घण्टे की अवधि । अगर उस वक़्त डिजिटल प्लेटफॉर्म होता तो 10 एपिसोड के वेब सीरीज़ बनाके आर्थिक नुकसान से बचा जा सकता था ।
डिजिटल प्लेटफार्म का बहुत बड़ा फ़ायदा नए फ़िल्म मेकरों को हुआ है जो सिर्फ़ अच्छे कंटेंट वाली बिना स्टार के फ़िल्में बनाते हैं… जिनको ना डिस्ट्रीब्यूटर मिल पाता है और ना हीं थिएटर । वे फ़िल्म मेकर अपनी फ़िल्में सीधे डिजिटल प्लेटफॉर्म पे रिलीज़ कर देते हैं…जिनको एक बहुत बड़ा दर्शक वर्ग मिल जाता है और साथ साथ लागत के पैसे भी निकल आते हैं । वेब सिरीज़ आज के समय की आवाज़ और ज़रूरत दोनों है । इसलिए जनवरी 2016 में नेटफ्लिक्स इंडिया में आया…और छा गया।
वेब सीरीज मनोरंजन की दुनिया में दर्शकों की आजादी और मास्टरी लेकर आया है। इसने रोजगार के बेशुमार अवसर प्रदान किया है। पहले हम वहीं फिल्में देख पाते थे जो सिनेमा हॉल में रीलिज होती थी। उसके बाद टेलीविजन आया और सैकड़ों चैनलों ने हमें देखने के विकल्प दिए। तब भी हमारी निर्भरता प्रसारकों पर बनी हुई थी। आज हमें जो कंटेंट चाहिए , मोबाइल पर उपलब्ध है। इसका यह मतलब कतई नहीं है लेकिन सिनेमा हॉल खत्म हो जाएगा और केवल ओटीटी प्लेटफॉर्म पर ही फिल्में रिलीज होंगी। सिनेमा कभी नहीं मर सकता। अंधेरे हाल में सामूहिक रूप से फिल्म देखने का अनुभव कभी भी मोबाइल स्मार्ट फोन नहीं दे सकता चाहे वह कितना ही तकनीकी रूप से समृद्ध हो जाए।