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सियासत

घपलों-घोटालों और कैलाश सत्यार्थी का चोली-दामन का साथ रहा है, नोबेल मिलना कुशल मीडिया मैनेजमेंट का नतीजा है

वर्ष 2006 में कैलाश सत्यार्थी पहली बार नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामित हुए थे। उस वक्त हिंदी साप्ताहिक अख़बार द संडे पोस्ट ने उनके काम, व्यक्तित्व, विवाद और जीवन के आयामों का जायजा लेते हुए एक स्पेशल रिपोर्ट प्रकाशित की थी। यह रिपोर्ट इस वर्ष के नोबल शांति पुरस्कार के विजेता कैलाश सत्यार्थी के काम की जांच करते हुए उनके जिस रूप को सामने लाती है वह इस पुरस्कार के विजेता को कठघरे में खड़ा करने के साथ पुरस्कार की चयन प्रक्रिया को ही विवादित बना देता है। और ऐसा शायद पहली ही बार हुआ है कि इतने बड़े सम्मान से एक भारतीय के सम्मानित होने पर भी प्रशंसा से अधिक सवाल उठाए जा रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है इसे जानने के लिए पढ़िए स्पेशल  रिपोर्ट-

<p>वर्ष 2006 में कैलाश सत्यार्थी पहली बार नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामित हुए थे। उस वक्त हिंदी साप्ताहिक अख़बार द संडे पोस्ट ने उनके काम, व्यक्तित्व, विवाद और जीवन के आयामों का जायजा लेते हुए एक स्पेशल रिपोर्ट प्रकाशित की थी। यह रिपोर्ट इस वर्ष के नोबल शांति पुरस्कार के विजेता कैलाश सत्यार्थी के काम की जांच करते हुए उनके जिस रूप को सामने लाती है वह इस पुरस्कार के विजेता को कठघरे में खड़ा करने के साथ पुरस्कार की चयन प्रक्रिया को ही विवादित बना देता है। और ऐसा शायद पहली ही बार हुआ है कि इतने बड़े सम्मान से एक भारतीय के सम्मानित होने पर भी प्रशंसा से अधिक सवाल उठाए जा रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है इसे जानने के लिए पढ़िए स्पेशल  रिपोर्ट-</p>

वर्ष 2006 में कैलाश सत्यार्थी पहली बार नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामित हुए थे। उस वक्त हिंदी साप्ताहिक अख़बार द संडे पोस्ट ने उनके काम, व्यक्तित्व, विवाद और जीवन के आयामों का जायजा लेते हुए एक स्पेशल रिपोर्ट प्रकाशित की थी। यह रिपोर्ट इस वर्ष के नोबल शांति पुरस्कार के विजेता कैलाश सत्यार्थी के काम की जांच करते हुए उनके जिस रूप को सामने लाती है वह इस पुरस्कार के विजेता को कठघरे में खड़ा करने के साथ पुरस्कार की चयन प्रक्रिया को ही विवादित बना देता है। और ऐसा शायद पहली ही बार हुआ है कि इतने बड़े सम्मान से एक भारतीय के सम्मानित होने पर भी प्रशंसा से अधिक सवाल उठाए जा रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है इसे जानने के लिए पढ़िए स्पेशल  रिपोर्ट-

कैलाश सत्यार्थी का नाम आते ही जेहन में उन बेहाल बच्चों की तस्वीर उभरती है जिन्हें असमय श्रम की भट्टी से मुक्ति दिलायी गयी थी। यह मुक्ति कैलाश सत्यार्थी और उनकी संस्था ‘बचपन बचाओ’ के कार्यकर्ताओं ने दिलायी। ‘बचपन बचाओ’ के कार्यकर्ता इन बच्चों को उद्योग मालिकों के यहां से आजाद कराते हैं जहां वे मामूली पैसों पर मजदूरी करने को विवश होते हैं। इसी नेक मुहिम के चलते इस वर्ष  कैलाश सत्यार्थी नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामित किये गये हैं। लेकिन कैलाश सत्यार्थी के पुराने सहयोगी उन्हें सवालों—संदेह के घेरे में खड़ा करते हैं जो उनके दूसरे रूप को सामने लाता है। उनका यह दूसरा पहलू लोगों के बीच निर्मित उनकी धवल छवि को धूमिल करता है।

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फैक्ट्रियों में दम तोड़ रहे बचपन को आजाद करने के नाम पर दुनियाभर की दानदाता एजेंसियों से ‘दक्षिणा’ लेने वाले कैलाश सत्यार्थी पर करोड़ों रुपये का घपला करने तथा ट्रस्ट कागजातों के साथ हेराफेरी करने का आरोप है। इन्होंने न सिर्फ मुक्ति प्रतिष्ठान से संचालित ‘मुक्ति आश्रम’ पर कब्जा कर लिया है, बल्कि स्वामी अग्निवेश के पावर ऑफ अटॉर्नी वाले शेख सराय की बिल्डिंग को भी हथिया लिया है। फंडिंग का रास्ता खुलते देख सत्यार्थी ने दिल्ली के इब्राहिम पुर स्थित ‘मुक्ति आश्रम’ को संपत्ति उगाहने के केंद्र के रूप में विकसित किया और एक के बाद एक कई ट्रस्ट खोले। महत्वपूर्ण बात तो ये रही कि ‘मुक्ति आश्रम’ में ही सत्यार्थी ने तमाम दूसरे ट्रस्टों के पंजीकृत कार्यालय खोले, मगर अन्य ट्रस्टियों को इसकी मौखिक जानकारी तक नहीं दी। हद तो तब हो गयी जब ट्रस्टी शेओताज सिंह, राजेश त्यागी, प्रभात पंत और खूबीराम की सहमति के बगैर ‘आवा’ नाम का एक नया ट्रस्ट अस्तित्व में आया और उसके भी ट्रस्टी कैलाश सत्यार्थी और उनकी पत्नी सुमेधा सत्यार्थी ही थे। तकनीकी तौर पर बचने के लिए सत्यार्थी ने एक नई स्कीम पेश की और सालभर में 25 रुपये दान में देने वालों को भी ट्रस्टी बनाया। इसका सिर्फ एक मकसद रहा कि आगे चलकर कोई यह न कहे कि उनके ज्यादातर ट्रस्ट सत्यार्थी दंपत्ति के प्रबंधकीय और मालिकाना हक में चलते हैं।

देश ही नहीं दुनियाभर के ‘कॉर्पोरेट बुद्धिजीवियों’ के बीच सुर्खियों में रहने वाले सत्या​र्थी आज अपने जुगाड़ की बदौलत ‘नोबल शांति पुरस्कार’ के लिए नामित हो गये हैं। एक के बाद एक आधा दर्जन से अधिक ट्रस्ट खोलने वाले सत्यार्थी वही हैं, जिन्होंने झूठी प्रतिष्ठा पाने के लिए पानीपन की एक फैक्टरी पर फर्जी इल्जाम लगाये थे और आपराधिक मुकदमे पर जेल गये। बचपन बचाने से लेकर सूचना के अधिकार की पैरोकारी करने वाले सत्यार्थी किसी तरह की सूचना मांगने पर मामले को दबा जाने में माहिर हैं और हेराफेरी करने में उनका कोई जवाब ही नहीं है। महीने का पखवाड़ा विदेश में बिताने वाले सत्यार्थी के खिलाफ उनके कर्मचारी भी खड़े हो गये हैं। कुछ कर्मचारियों ने उनके खिलाफ अदालत मे मामला दायर किया है।

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सत्यार्थी ने पैक्स नाम की विदेशी दानदाता एजेंसी की शर्तों के मातहत मुक्ति आश्रम को कर दिया। फंडिंग का रास्ता खुलता देख मध्य प्रदेश के विदिशा वासी सत्यार्थी ने साक्स (SACCS) नाम की भी एक संस्था खोल दी। इस प्रकार सत्यार्थी साउथ एशियन कॉलिशन ऑन चाइल्डहुड सर्विस के स्वनामधन्य चेयरमैन और ‘मुक्ति आश्रम’ के सेक्रेटरी हो गये। जिसके बाद 1994 में बनाये गये एसोसिएशन फॉर वॉलंटरी एक्शन (आव) को इब्राहिमपुर स्थित ‘मुक्ति आश्रम’ की 14 बीघा 8 बिस्वा जमीन लीज पर दे दी गयी। आगे चलकर बचपन बचाओ फाउंडेशन का निर्माण किया और इस फाउंडेशन का रजिस्टर्ड ऑफिस भी मुक्ति आश्रम को ही रखा। इतना ही नहीं शेख सराय में जनता पार्टी के पूर्व सांसद बापू कालदांते द्वारा सांसद कोटे से दिये गये 24—सी एमआईजी फ्लैट को भी सत्यार्थी ने हथिया लिया। आजकल सुनने में आ रहा है कि शेख सराय का वह फ्लैट सत्यार्थी ने किसी तीसरे को बेच दिया है, ज​बकि उसकी पावर ऑफ अटॉर्नी स्वामी अग्निवेश के पास है। उल्लेखनीय है कि 1982 से 1992 तक बाल शोषण के खिलाफ संगठित तौर पर सत्यार्थी और अग्निवेश ने साथ काम किया।

जनकल्याण का लबादा ओढ़े, जनता और ट्रस्ट की संपत्ति को व्यक्तिगत हितों में इस्तेमाल करने वाले सत्यार्थी का यह विद्रूप चेहरा स्वामी अग्निवेश से हुयी एक बातचीत में सामने आया। विदेशी दान के करोड़ों रुपये डकारने वाले शांतिदूत कैलाश सत्यार्थी पर उंगली मुक्ति आश्रम के कर्मचारियों की शिकायत के बाद उठी थी। चारों ट्रस्टियों शेओताज सिंह, खूबीराम, प्रभात पंत, राजेश त्यागी से ‘मुक्ति आश्रम’ के कर्मचारियों ने सत्यार्थी की मनमानी किये जाने, ट्रस्ट के धन को व्यक्तिगत हितों में इस्तेमाल करने तथा हेरा—फेरी करने के गंभीर आरोप लगाये। इन तमाम आरोपों के मद्देनजर कैलाश सत्यार्थी, सुमेधा सत्यार्थी और एकाउंटेंट विट्ठल राव से जब ट्रस्टी शेओताज सिंह ने सफाई चाही तो सत्यार्थी दंपत्ति ने कोई जवाब नहीं दिया, मगर बिट्ठल राव ने शुरुआत में सहयोग किया। ऐसी स्थिति में उक्त चारों ट्रस्टियों की तरह से एक जांच अधिकारी नियुक्त किया गया। जांच के दौरान सत्यार्थी पर लगाये गये कर्मचारियों के आरोपों की सिलसिलेवार और तथ्यगत पुष्टि हुयी। जांच अधिकारी ने अक्टूबर 1995 में अलीपुर थाने में सत्यार्थी के खिलाफ मामला भी दर्ज कराया।

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ट्रस्ट का मामला ट्रस्ट में ही निपटा लेने के मकसद से 1994 में स्वामी अग्निवेश के नेतृत्व में आर्य समाज और ट्रस्ट से जुड़े लोगों की आसफ अली रोड पर मीटिंग बुलायी गयी। लेकिन आर्य समाज के कार्यालय में घंटों तक चली इस बैठक का कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकला। अंतत: सदस्यों ने सर्वसम्मति से सत्यार्थी दंपति को ‘मुक्ति प्रतिष्ठान’ से निष्कासित कर दिया। चूंकि इब्राहिमपुर का ‘मुक्ति आश्रम’ जंतर मंतर स्थित ‘मुक्ति प्रतिष्ठान’ कार्यालय से संबद्ध था लिहाजा सत्यार्थी को ‘मुक्ति आश्रम’ से सारे रिश्ते स्वत: खत्म हो जाने चाहिए थे। बावजूद इसके स्वामी अग्निवेश के शब्दों में ‘सत्यार्थी की बदमाशियां जारी रहीं।’

‘मुक्ति आश्रम’ की नियमावलियों के मुताबिक यह स्थान गरीब, बीमार एवं विकलांग बच्चों के आर्थिक, सामा​जिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक विकास के लिए बनाया गया था। परंतु ऐसा न होते देख जांच अधिकारी शेओताज सिंह एवं अन्य तीन ने मिलकर जनवरी 1997 में दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट में उक्त भ्रष्टाचार के आरोपी ट्रस्टियों के खिलाफ याचिका दायर की।

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सत्यार्थी के खिलाफ शिकायतों का पुलिंदा देख अप्रैल 1997 में अतिरिक्त जिला न्यायाधीश बीएस चौधरी ने कोर्ट की तरफ से राना प्रवीन सिद्दीकी को जांच अधिकारी नियुक्त किया। सिद्दीकी ने भी जांच के बाद पेश की गयी रिपोर्ट में ‘मुक्ति आश्रम’ में हो रही अनियमितताओं को रेखांकित किया और पाया कि बेहद सुनियोजित तरीके से आर्थिक मामलों में हेरफेर की गयी है। रिपोर्ट में उल्लेख किया कि कैश बुक को देखने से ऐसा लगता है कि मानो एक ही आदमी ने कई जगह अगूंठे लगा रखे हैं। उन्होंने रिपोर्ट में आगे उल्लेख किया है कि 81 से 84 तक की जो कैशबुक है उनका कोई वाउचर नहीं है तथा संस्था को अनुदान किन स्रोतों से कितना प्राप्त हो रहा है इसका भी कोई उल्लेख नहीं है। 1980 से 89 तक का मुक्ति आश्रम में कोई रजिस्टर नहीं है। यहां तक कि मीटिंगों के दौरान लिए जाने वाले नोट्स भी उपलब्ध नहीं हैं। राना प्रवीन सिद्दीकी ने अपनी रिपोर्ट में स्वामी अग्निवेश तथा शेओताज सिंह पर जांच में सहयोग न करने तथा असंवैधानिक व्यवहार करने का भी जिक्र किया है।

एक के बाद एक तीन स्तरों से एक ही ढंग से लगाये गये आरोप उजागर भी हुए, परंतु सत्यार्थी ‘नोबल शांति पुरस्कार’ तक पहुंच गये। सत्यार्थी के विरोधियों और सहयोगियों दोनों का कहना है कि उनका यहां तक पहुंचना मीडिया मैनेजमेंट की कुशल कारीगरी का ही नतीजा है।

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सत्यार्थी पर लगाये गये आरोपों के मद्देनजर जब उनका पक्ष जानने के लिए ‘दि संडे पोस्ट’ ने संपर्क किया तो कालकाजी स्थित उनके कार्यालय से जवाब आया कि ‘सत्यार्थी जी इस पर बातचीत नहीं करना चाहते हैं।’ फोन पर हुयी बातचीत में उनके मीडिया प्रभारी राकेश सेंगर ने न्यायिक सलाहकार का हवाला देते हुए कहा कि ‘न्यायालय में चल रहे इस मामले में कोई टिप्पणी नहीं करेंगे।’ ट्रस्ट बनाम सत्यार्थी का मामला कोर्ट में गये नौ साल हो गये हैं, लेकिन अब तक कोई फैसला नहीं हो पाया है। न्यायालय पर टिप्पणी किये बिना इतना जरूर कहा जा सकता है कि याचिकाकर्ता बेहद सुस्त हो चुके हैं। इसी सुस्ती का परिणाम हुआ कि याचिकाकर्ता सुनवाई की तारीख में नहीं पहुंचे और कोर्ट ने केस ही खत्म करने का आदेश दे दिया, लेकिन केस देख रहे वकील आरके गौड़ की सक्रियता का परिणाम रहा कि केस की पुनर्वहाली के लिए अर्जी दे दी गयी।

आंखिन देखी सच

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दिल्ली के सुदूर गांव इब्राहिमपुर में ‘मुक्ति आश्रम’ परिसर में ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के नारे लिखे हैं। लगभग 3.5 एकड़ में स्थित यह आश्रम फार्म हाउस मार्का है। अंदर बचपन की किलकारियां नहीं कुत्तों की आवाज है। यहां अनाथ बच्चे नहीं बल्कि विदेशी ब्रांड के कुत्ते रहते हैं। इन कुत्तों की देखरेख के लिए दरबान लगे हैं। आगंतुक कक्ष में लालटेन में भी बल्ब लगा हुआ है। एक-दो कट्ठे में बनी सामने एक ईमारत खड़ी है। कर्मचारी बताते हैं कि यहीं साठ बच्चे छह महीने के लिए आते हैं। यानी प्रत्येक साल यहां 120 बच्चों को शिक्षा-दीक्षा दी जाती है। परंतु बाल मजदूरी से पचासों हजार बच्चों को सत्यार्थी का संगठन मुक्त कराता है। बहरहाल, इस समय वाले साठ बच्चे कहां हैं? पूछने पर जवाब मिलता है अभी नहीं हैं। यहां हर आदमी का अपना एक ग्रेड है। दरबान और पानी लाने वाली दाई को छोड़ सब सभ्रांत दिखते हैं। सवाल जवाब कर रहा कर्मचारी भी नौकरी छोड़ जाने वाला है। वह सुमन जी (मुक्ति आश्रम की निवर्तमान निदेशक) का हर एक वाक्य के बाद जिक्र करता है। यहां जो कुछ भी हो रहा है वह इससे संतुष्ट नही है। अपनी भावनायें व्यक्त करते हुए कहता है- ‘आपके पास तो कहने का औजार है हमारे पास क्या है।’ चाय खत्म कर बाहर निकलने पर सूख रही फूल-पत्तियों से घिरा ‘बालिका मुक्ति आश्रम’ दिख जाता है। यहां एक भी लड़की नहीं है जबकि दावा चालीस का किया जाता है। वहां की महिला कर्मचारी बताती है कि दस-बारह थीं, दो-चार दिन पहले चली गयीं।

इसलिए सहयोगियों ने छोड़ा साथ

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‘कैलाश सत्यार्थी के काम का चरित्र वैसा ही है जैसा कि स्वयंसेवी संगठनों का है। ये संगठन मूलत: इस तरह के सामाजिक काम पैसा कमाने के लिए कर रहे हैं। ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के मुखिया बाल बंधुआ मजदूरों को मुक्त तो कराते है, परंतु वे बच्चे पुन: उस नर्क में वापस न जायें, इसका कोई विकल्प खड़ा नहीं करते। उनकी आर्थिक समृद्धि का विकल्प खड़ा किये बिना इस तरह के सारे प्रयास बेमानी हैं। कैलाश सत्यार्थी को दूसरे देश के संगठनों से तो समर्थन मिलता है, परंतु संकट की घड़ी में उन्हें अपने ही देश भारत में कोई समर्थक नजर नहीं आता। –आनंदस्वरूप वर्मा, वरिष्ठ पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता

बात दशकों पहले की है इसलिए मुझे ठीक-ठाक याद नहीं कि मैंने पावर ऑफ अटार्नी बदली थी या नहीं। हां, इतना मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि मैंने पावर ऑफ अटार्नी स्वामी अग्निवेश को दी थी। बाद में कैलाश सत्यार्थी और स्वामी अग्निवेश का आपस में झगड़ा हो गया और उस बीच मेरे पास सत्यार्थी और अग्निवेश दोनों आये थे। मैंने झगड़े में न पड़ते हुए अग्निवेश से कहा था कि 24—सी, शेख सराय वाला मकान दे दें, क्योंकि उस समय मेरे पास रहने के लिए घर नहीं था। लेकिन अग्निवेश ने कहा था कि यह फ्लैट अब विवादों में है जिसका मामला कोर्ट में चल रहा है। –बापू कालदांते, पूर्व सांसद जनता पार्टी

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सत्यार्थी कहते हैं कि उन्होंने शिकायतकर्ता चारों ट्रस्टियों को ट्रस्ट से निष्कासित कर दिया है। यह जवाब वे तब देते हैं जब उनकी मनमानी और अनियमितताओं पर सवाल खड़ा होता है। सफाई के लिए ‘मुक्ति प्रतिष्ठान’ से जुड़े लोगों की बैठक करायी जाती है। उस फैसलाकून बैठक में साजिशन तरीके से फर्जी फोटोस्टेट के दस्तखत वाले नये ट्रस्टियों की बहाली की प्रतियां सत्यार्थी द्वारा दिखायी जाती हैं, जिसमें फर्जी हस्ताक्षर रामशरण जोशी और मधु जोशी के हैं, जबकि उन्होंने बहुत पहले ही ट्रस्ट छोड़ दिया था। हमने इस कागजात की कॉपी कोर्ट में भी लगायी है। अदालत द्वारा सुझाये गये ट्रस्ट कानूनों को ताक पर रखकर सत्यार्थी ने जो मनमानी की है, वह पूर्णतया आपराधिक मामला है। सत्यार्थी दंपत्ति जिन ट्रस्टों में भागीदार रहे हैं उनकी तहकीकात की जाये तो ज्यादातर ट्रस्टों की मैनेजिंग कमेटी में सत्यार्थी पाये जायेंगे। –राजेश त्यागी, वकील सुप्रीम कोर्ट एवं ट्रस्टी ‘मुक्ति प्रतिष्ठान’

बहुत पुरानी बात हो गयी है अब तो मैं ट्रस्टी भी नहीं हूं। हां, मुझे इतना याद है कि सत्यार्थी द्वारा किये गये हेर-फेर के खिलाफ शेओताज सिंह ने अदालत में याचिका दायर की थी। यह पूरा मामला सत्यार्थी बनाम अग्निवेश का है। उन्हीं से इस बारे में पूछिये। –प्रभात पंत, मुक्ति प्रतिष्ठान ट्रस्टी

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अजय प्रकाश

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