फारवर्ड प्रेस के संपादक प्रमोद रंजन से हरि नारायण की बातचीत

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फारवर्ड प्रेस ने दिया वंचित बहुसंख्यकों को स्वर

अप्रैल का महीना देश के दलित बहुजन समाज के लिए मायने रखता है क्योंकि इस महीने दो महापुरुषों की जयंती पड़ती है। पहले ज्योतिबा फुले और दूसरे डॉ. बी आर आंबेडकर। बहरहाल अप्रैल 2016 हिंदी प्रदेश में रहने वाले तमाम वंचित बहुजनों के लिए निराशा का सबब बनकर आया है। फुले और आंबेडकर की विचारधारा के विभिन्न आयामों को सामने लाने वाली देश की पहले द्विभाषी पत्रिका फॉरवर्ड प्रेस जून से अपना प्रिंट संस्करण बंद करने जा रही है। अब यह प्रकाशन केवल वेब पर उपलब्ध होगा।

देश के तमाम न्यूजरूमों में दलितों की कम संख्या पर दुख प्रकट करते हुए मीडिया जगत के विद्वान रॉबिन जेफ्री ने अप्रैल 2012 में एक ऐसी पत्रिका की हिमायत की थी जिसे वंचित और हाशिए पर मौजूद लोग, अपने जैसे लोगों के लिए चलाएं। वह एक ऐसी पत्रिका की बात कर रहे थे जो न केवल दमित वर्ग के लिए पत्रकारिता करे बल्कि अन्य लोगों के लिए। उनके सोच के मुताबिक पत्रिका की विषयवस्तु ऐसी हो कि अन्य लोग उसकी विषयवस्तु आदि के चलते उसे पढऩे पर मजबूर हो जाएं। कामना थी कि यह पत्रिका अश्वेत अमेरिकियों के प्रकाशनों एबॉनी अथवा असेंस की समकक्ष बने। फॉरवर्ड प्रेस की शुरुआत वर्ष 2009 में हुई तथा पत्रिका को ठीक उपरोक्त विचारों पर ही चलाया गया।

फॉरवर्ड प्रेस के प्रकाशन के सात वर्ष पूरे हो गए हैं और फिलहाल इसे प्रमोद रंजन की निगरानी में प्रकाशित किया जा रहा है। वह पत्रिका के प्रबंध संपादक हैं। रंजन हिंदी पत्रकारिता जगत का जाना माना चेहरा हैं। उन्होंने पंजाब केसरी, दैनिक भास्कर और अमर उजाला समेत कई जगहों पर काम किया है। वह इस पत्रिका के साथ वर्ष 2011 से जुड़े हैं और फिलहाल जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से दलित-बहुजन साहित्य पर पीएचडी कर रहे हैं। द हिंदू को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने पत्रिका के दृष्टिïकोण, उसमें प्राथमिकता से आने वाले विषयों और इससे निकले लेखकों के बारे में बातचीत की।

फॉरवर्ड प्रेस को द्विभाषी रखने की क्या आवश्यकता थी?
फॉरवर्ड प्रेस की द्विभाषी प्रकृति इसे एक विशिष्ठ प्रयोग बनाती है। इसके संस्‍थापक आयवन कोस्‍का और सिल्विया कोस्‍का एक ऐसी पत्रिका शुरू करना चाहते थे जो देश के दलित बहुजन समाज की आवाज भी बने और उनके सशक्तीकरण का जरिया भी। हम अपने मूल हिंदी भाषी पाठकों को अंग्रेजी का महत्त्व समझाना चाहते थे। हम उन्हें बताना चाहते थे कि कैसे वह मुक्ति का जरिया है। अनेक ऐसे लोग हैं जिन्होंने इस पत्रिका की मदद से न केवल खुद को बौद्धिक बनाया बल्कि अपनी अंग्रेजी भी सुधारी।
अगर हम हिंदी की बात करें तो अधिकांश लेखक कविता और कहानी ही लिखते हैं। सामाजिक मुद्दों से उनका जुड़ाव बहुत कम है। दलित बहुजन मुद्दों की बात करें तो यह कमी और स्पष्ट उजागर होती है। हमने इसका हल अंग्रेजी के लेखकों को अपने साथ जोड़कर निकाला। उनके आलेखों का हिंदी में अनुवाद किया जाता है।
इस तरह हम दोनों भाषाओं के श्रेष्ठ विद्वानों शोधा‍र्थियों को अपने साथ जोड़ पाने में कामयाब रहे और हमारी  पहुंच गैर हिंदी भाषी इलाकों में भी हुई। हम फुले, आंबेडकर और पेरियार के विचारों के बीच सेतु की तरह काम कर सके।

आपने कहा कि आपकी पत्रिका मुद्दों को फुले और आंबेडकर की दृष्टि से देखती है…
जब हम फुले-आंबेडकरवाद की बात करते हैं तो हम एक समावेशी, मानवीय, लोकतांत्रिक और समतवादी समाज की बात करते हैं। यह सब भी केवल चुनावी लोकतंत्र के संदर्भ में नहीं बल्कि सामाजिक सशक्तीकरण के लिहाज से भी। ज्योतिबा फुले और डॉ. बी आर आंबेडकर दोनों भेदभाव के खिलाफ थे लेकिन किसी भी समुदाय के विरुद्घ दुर्भावना पैदा किए बिना। उनका यह विचार साहित्य और पत्रकारिता को लेकर हमारी पत्रिका को दिशा देता है।

पत्रिका किन राज्यों के पाठकों को अपने साथ जोडऩे में कामयाब रही?
हमारे पाठक मुख्यतया हिंदीभाषीय क्षेत्र के कस्बो और गांवों में हैं। इनमें भी ज्यादातर पंजाब, बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश से ताल्लुक रखते हैं। बीते कुछ समय में हरियाणा में भी हमारे पाठक बढ़े हैं। इनमें से अधिकांश दलित, जनजातीय और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से ताल्लुक रखते हैं। उनमें से कई अपने परिवार में से पहली बार उच्‍च शिक्षा तक पहुंचे हैं या जिन्हें सम्मानजनक रोजगार मिला है।

जो लेखक इस पत्रिका में लिखते हैं उनमें हिंदी और और अंग्रेजी के लेखकों का अनुपात क्या है?
तकरीबन 60 प्रतिशत लेखक हिंदी माध्यम के हैं। हिंदी से अंग्रेजी तथा अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद हमारे भोपाल में रह रहे साथी करते हैं। हमारे लगभग 40 प्रतिशत लेखक विश्वविद्यालयों के युवा छात्र हैं। करीब 15 प्रतिशत लेखक हिंदी की साहित्यिक दुनिया से ताल्लुक रखते हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हमारे लेखकों में 20 प्रतिशत ऐसे हैं जो पूरी सक्रियता से सामाजिक कार्यों में लगे हैं तथा जिन्हें लिखने का पूर्व अनुभव नहीं है। लेकिन उनका जमीनी अनुभव उनके लेखन को समृद्घ बनाता है।

हिंदी में बतौर शैली दलित-बहुजन साहित्य ने कितनी प्रगति की है?
20वीं सदी के आरंभिक दशकों में सबसे पहले दलित साहित्य मराठी में लिखा गया। मराठी भाषी क्षेत्रों के वंचित वर्ग ने एकजुट होकर अपनी पीड़ा को शब्दों में व्यक्त किया।  हंस जैसी हिंदी पत्रिकाओं ने सन 1990 के दशक में इसे को लोकप्रिय बनाने में अहम भूमिका निभाई। इसका श्रेय मुख्‍य रूप से पत्रिका के संपादक स्वर्गीय राजेंद्र यादव को जाता है। लेकिन हिंदी भाषी क्षेत्रों में दलित साहित्‍य कभी मुख्यधारा में नहीं बन सका क्योंकि इसे अनुसूचित जाति का साहित्य करार दे दिया गया था। यह इस माध्यम के साथ घोर अन्याय था।  लोगों ने इसे अलग-थलग करने वाली टिप्पणी करनी आरंभ कर दी। कहा जाने लगा कि इसमें केवल अनुसूचित जाति के लोग ही हिस्सा लेंगे। इस बात ने अन्य श्रेणियों में शामिल वंचितों को इसका हिस्सा बनने से रोक दिया।  एक उदाहरण देता हूं : सन 1930 के दशक में बिहार में त्रिवेणी संघ का गठन हुआ तथा किसान, श्रमिक और छोटे कारोबारियों ने मिलकर उच्च वर्ण के दबदबे वाली कांग्रेस का विरोध किया। उन्होंने दलितों और बहुजनों को प्रेरित किया कि वे अपने अधिकारों के लिए लड़ें। जेएनपी मेहता जैसे प्रभावशाली कवि एवं लेखक इसमें शामिल थे और उन्होंने सन 1940 में ‘त्रिवेणी संघ का बिगुल’ लिखी। लेकिन वह दलितों की श्रेणी में उपयुक्त नहीं माने गए क्योंकि वह अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से आते थे। यही वजह है कि न तो द्विज लेखकों ने और न ही दलित साहित्‍य की बात करने वालों ने उनको कोई तवज्जो दी। यही वजह है दलितों से जुड़े कई मानवीय मुद्दे ऐसे ही वहिष्‍करण का शिकार हो गए। हम इस सीमित नजरिए को खत्म करना चाहते थे और दलितों, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी)  एवं जनजातीय समुदाय समेत तमाम वंचित तबकों का साहित्य और नजरिया सामने लाना चाहते हैं। हमने अब तक दलित-बहुजन साहित्य पर चार अंक निकाले हैं और आगे भी इस दिशा में काम करते रहेंगे।  प्रेम कुमार मणि, श्योराज सिंह बेचैन, कंवल भारती, राजेंद्र प्रसाद सिंह, वीरेंद्र यादव, सुभाष चंद्र कुशवाहा, मैत्रेयी पुष्पा आदि ने बहुजन साहित्‍य की अवधारणा के निर्माण में सहयोग किया है। अरुंधति राय ने भी इस अवधारणा की सराहना की है।

आपकी पत्रिका ने महिषासुर विरोध को लेकर काफी तीखी बहस को जन्म दिया।
हमने अक्टूबर 2011 के अंक में महिषासुर पर पहली बार एक लेख प्रकाशित किया। जेएनयू समेत कई विश्वविद्यालयों में उसके बाद महिषासुर दिवस मनाया गया। वर्ष 2015 में देश के करीब 350 कस्बों और गांवों में इसे मनाया गया। इस समारोह में भाग लेने वाले अधिकांश लोग पिछड़ा वर्ग (ओबीसी)  और जनजातियों से ताल्लकु रखते हैं। उनमें से कई महिषासुर को अपना पूर्वज भी मानते हैं। झारखंड में असुर नामक एक जनजाति भी है। जनगणना के मुताबिक उसकी आबादी 11,000 है। वे भी महिषासुर को अपना पूर्वज मानते हैं। संथाल, गोंड और भीलों में भी ऐसी ही मान्यता है। उनके लिए महिषासुर की स्मृति आत्म सम्मान और सांस्कृतिक चेतना से जुड़ी हुई है। इससे जुड़ा काफी साहित्य और अनेक परंपराएं भी हैं, जिसे मुख्य धारा के मीडिया में जगह नहीं मिली।  संसद के बजट सत्र के दौरान इस विषय पर बहस करते हुए मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने फॉरवर्ड प्रेस में डॉ. लाल रत्नाकर नामक एक प्रसिद्ध कलाकार द्वारा बनाए गए इलस्ट्रेशन को प्रदर्शित किया था। यह अक्टूबर 2014 अंक में प्रकाशित हुआ था। लेकिन श्रीमती ईरानी ने जिस आपत्तिजनक भाषा को उद्घृत किया उसका किसी ने प्रयोग नहीं किया था। वह संसद को एक महत्त्वूपर्ण सांस्कृतिक मुद्दे पर भ्रमित करने की कोशिश कर रही थीं।

आपकी पत्रिका के विभिन्न अंकों में मुझे ऐसे विज्ञापन नजर आ रहे हैं जिनमें देश भर के दलित लेखकों का आह्वान किया गया है? बीते सालों के दौरान कैसी प्रतिक्रिया मिली पत्रिका को?
कई दलित और बहुजन हमारी समावेशी नीति के चलते संपादकीय कोर टीम का हिस्सा बन गए हैं। यहां एक महत्त्वपूर्ण बात पर विचार करना होगा। दलित-बहुजन मुद़दों पर लिखना और दलित-बहुजन दृष्टिकोण से लिखना, अलग-अलग बातें हैं और दोनों में गहरा अंतर है। इसे आप ऐसे समझ सकते हैं। राजनीति में जाने का इच्छुक एक घनाढ्य व्यवसायी भी डाॅ. आंबेडकर के कसीदे पढ सकता है लेकिन उसका महत्व वह नहीं होगा जो एक स्कूल शिक्षक द्वारा उनके बताये रास्ते पर चलने की कोशिश करने का है। किसी के लिए यह केवल एक राजनैतिक उपाय है तो किसी अन्य के लिए इससे निकले वाले प्रश्न और इससे उपजा विद्रोह सशक्तीकरण, समता, आजादी का प्रश्न है।

जब बात हाशिए पर मौजूद लोगों को स्वर देने की आती है तो मीडिया संस्थानों में दलितों की भागीदारी बढऩे के मामले में देश कितना आगे बढ़ा है?
भारतीय मीडिया में दलितों की मौजूदगी या उनकी अनुपस्थिति से संबंधित पहला बड़ा सर्वेक्षण वर्ष 2006 में जितेंद्र कुमार और योगेंद्र यादव ने किया था। सर्वेक्षण में 37 हिंदी और अंग्रेजी मीडिया संस्थानों से नमूने लिए गए। इनमें देश भर के प्रिंट और टेलीविजन मीडिया शामिल थे। पाया गया कि निर्णय लेने में सक्षम 71 फीसदी पदों पर उच्चवर्णीय हिंदू पुरुष काबिज थे। जबकि देश की कुल आबादी में इस श्रेणी की हिस्सेदारी बमुश्किल 8 फीसदी है। 16 प्रतिशत शीर्ष पदों पर महिलाएं थीं।  वर्ष 2009 में मैंने भी ऐसा ही एक सर्वेक्षण बिहार के हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू मीडिया संस्थानों पर किया। मुझे एक भी गैर द्विज व्यक्ति निर्णय लेने वाली भूमिका में नहीं मिला। न ही हमें कोई महिला ऐसे किसी पद पर मिली।  वर्ष 2006 के अध्ययन वाला ही रुझान यहां भी नजर आया। हिंदी और अंग्रेजी मीडिया जगत में उच्च वर्णीय हिंदुओं जबकि उर्दू मीडिया में अशराफ मुस्लिमों का दबदबा है। दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग का एक भी नाम नहीं मिला। न ही कोई पसमांदा मुसलमान महत्त्वपूर्ण पद पर नजर आया।  पहले सर्वेक्षण को पूरा हुए 10 साल बीत गए और हमें अब तक राष्ट्रीय  स्तर पर कोई बड़ा बदलाव देखने को नहीं मिला। बिहार में कुछ सुधार अवश्य देखने को मिले हैं।  रॉबिन जेफ्री ने सुझाव दिया था कि एक डाटाबेस तैयार किया जाए और न्यूजरूम में वंचित वर्ग की मौजूदगी को लेकर निरंतर सर्वेक्षण किए जाएं.. यह एक अहम सुझाव था। ऐसे आंकड़े न केवल अकादमिक दृष्टि से उपयोगी होते हैं बल्कि वे मीडिया घरानों पर मनोवैज्ञानिक दबाव भी बनाते हैं। दुर्भाग्यवश इन सर्वेक्षणों को छोड़कर इस दिशा में शोध के बहुत अधिक प्रयास नहीं किए गए हैं।

दलित-बहुजन समाज के अधिक से अधिक लोगों को मीडिया उद्योग में लाने के लिए क्या किया जा सकता है?
इसका एक तरीका तो यह है कि उन लोगों को आकर्षक छात्रवृत्तियां दी जाएं जो पत्रकारिता का अध्ययन करना चाहते हैं। यह काम सरकारी और निजी दोनों स्तरों पर होना चाहिए। दलित-बहुजन समुदाय के लोग सरकारी नौकरियों की ओर अधिक झुकाव रखते हैं। इन लोगों को पत्रकारिता जैसे जोखिम भरे पेशों में ले जाने के लिए सकारात्मक कदम उठाए जाने चाहिए।

अगर दलित उद्यमी या लेखक फॉरवर्ड प्रेस जैसी पत्रिका शुरू करना चाहे तो उसे किस तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है?
सबसे बड़ी समस्या तो आर्थिक मोर्चे पर आएगी। उत्तर भारत में हालात और खराब हैं। जिन लोगों ने भी अपना प्रकाशन शुरू करने की कोशिश की उनको विफलता हाथ लगी। दक्षिण में परिदृश्य अलग हो सकता है क्योंकि वहां संसाधनों की बेहतर उपलब्धता है।  इसके अलावा वितरण चैनल बहुत सीमित होते जा रहे हैं। किताबों की दुकानों के बंद होने और उनके रेस्तरां और किराना दुकान में बदलने से भी बहुत धक्का पहुंच रहा है। डाक से होने पत्राचार में आई कमी ने भी ऐसी पहल को नुकसान पहुंचाया है।  हमारे पास ऐसे लेखक व शोधार्थी भी नहीं हैं जो विभिन्न मुद्दों पर फुले-आंबेडकरवादी दृष्टिकोण से विचार कर सकें। अगर ऐसा प्रकाशन शुरू करना है तो यह काम सामाजिक विकास के उपाय के रूप में करना होगा बजाय कि आर्थिक हित पर ध्यान दिए। इसके अलावा विभिन्न कल्याण समूहों, न्यासों और कार्यकर्ताओं आदि को भी मजबूत वितरण चैनल तैयार कर इन प्रयासों को जारी रखना होगा।

अंग्रेजी से अनुवाद : पूजा सिंह

साभार- द हिंदू, 14 अप्रैल, 2016

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