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सॉरी रवीश जी! इस बार आप हास्यास्पद लगे, पत्र से जहालत झांक रही

Prabhat Ranjan : रवीश कुमार का बहुत सम्मान करता हूँ लेकिन अपने खुले पत्र में एम जे अकबर के लिए उन्होंने जिस भाषा का इस्तेमाल किया है वह आपत्तिजनक है। अकबर बहुत बड़े लेखक पत्रकार रहे हैं। नेहरु पर लिखी उनकी किताब बेहतरीन है। एक बड़े विद्वान का आकलन क्या महज उसकी विचारधारा से होगा? रवीश जी बड़ी मासूमियत से बड़ी भावुकता से लिखते हैं लेकिन उनके इस पत्र में उनकी जहालत भी झाँकती दिखाई देती है। यह पत्र ख़ुद को विक्टिम मोड में रखकर मौक़े पर चौका मारने की कोशिश से अधिक नहीं लगा। मैं हिंदी का एक मामूली लेखक हूँ लेकिन सॉरी रवीश जी इस बार आप हास्यास्पद लगे।

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Prabhat Ranjan : रवीश कुमार का बहुत सम्मान करता हूँ लेकिन अपने खुले पत्र में एम जे अकबर के लिए उन्होंने जिस भाषा का इस्तेमाल किया है वह आपत्तिजनक है। अकबर बहुत बड़े लेखक पत्रकार रहे हैं। नेहरु पर लिखी उनकी किताब बेहतरीन है। एक बड़े विद्वान का आकलन क्या महज उसकी विचारधारा से होगा? रवीश जी बड़ी मासूमियत से बड़ी भावुकता से लिखते हैं लेकिन उनके इस पत्र में उनकी जहालत भी झाँकती दिखाई देती है। यह पत्र ख़ुद को विक्टिम मोड में रखकर मौक़े पर चौका मारने की कोशिश से अधिक नहीं लगा। मैं हिंदी का एक मामूली लेखक हूँ लेकिन सॉरी रवीश जी इस बार आप हास्यास्पद लगे।

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Shashi Bhooshan Dwivedi : मुद्दा रवीश के पत्र का नहीं है। मुद्दा है एम जे अकबर। क्या अकबर साहब अब भी नेहरू पर लिखी जीवनी और उनके विचारों को ओन करते हैं? अगर हां तो उन्हें खुलकर सामने आना चाहिए और अपनी सरकार के उन लोगों की मुखालफत करनी चाहिए जो नेहरू गांधी को गाली देते हैं। वरना वे “दलाल” ही कहलाएंगे चाहे कांग्रेस के चाहे भाजपा के। Prabhat Ranjan जी के ध्यानार्थ।

Priyankar Paliwal : रवीश का पत्र आत्मदया से भरा हुआ है . एम. जे. अकबर को संबोधित ज़रूर है पर केंद्रित है खुद अपनी व्यथा-कथा पर. पर यह काठ का उल्लू रोहित सरदाना भी साक्षर है और पत्र लिख लेता है यह जानकर अच्छा लगा 🙂

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Mahendra Mishra : रवीश और रोहित के बहाने…. रोहित जी, रवीश को लिखे पत्र में आपने खुद को पत्रकार और साथ ही राष्ट्रवादी भी बताया है। यानी राष्ट्रवादी पत्रकार। यह पत्रकारिता की कौन विधा है आजतक मेरी समझ में नहीं आयी। लेकिन पत्रकारिता का सच यही है कि जिस सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ते हुए गणेश शंकर विद्यार्थी जी शहीद हुए थे। आज वही पत्रकारिता कैराना में कश्मीर ढूंढ रही है। और नहीं मिलने पर कश्मीर बना देने पर उतारू है। और आप इस पत्रकारिता के पक्ष में है। न केवल पक्ष में हैं बल्कि मजबूती से उसके साथ खड़े भी हैं। अब आप खुद ही फैसला कीजिए कि आप कैसी पत्रकारिता कर रहे हैं? ऊपर से राष्ट्रवादी भी बताते हैं। अगर अल्पसंख्यकों के खिलाफ जहर उगलना राष्ट्रवाद है, गरीब जनता के खिलाफ कारपोरेट लूट को बढ़ावा देना राष्ट्रवाद है, अमेरिका के तलवे चाटना राष्ट्रवाद है, सत्ता की सेवा ही अगर राष्ट्रवाद की कसौटी है तो ऐसे राष्ट्रवाद को लानत है। लेकिन सच्चाई यह है कि न तो आप पत्रकार हैं और न ही राष्ट्रवादी बल्कि आप भक्त हैं। जो काम कभी राजे-रजवाड़ों के दौर में चारण और भाट किया करते थे वही आप इस लोकतंत्र के दौर में कर रहे हैं। उनका काम घूम-घूम कर जनता के बीच सत्ता का गुणगान करना था। मौजूदा समय में वही काम आप स्टूडियो में बैठ कर रहे हैं।

दरअसल पत्रकारिता को लेकर काफी भ्रम की स्थिति बनी हुई है। पत्रकारिता का मूल चरित्र सत्ता विरोधी होता है। यानी चीजों का आलोचनात्कम विश्लेषण। वह तटस्थ भी नहीं होती। व्यापक जनता का पक्ष उसका पक्ष होता है। और कई बार ऐसा भी हो सकता है कि सत्ता के खिलाफ विपक्ष के साथ वह सुर में सुर मिलाते दिखे। ऐसे में उसे विपक्ष का दलाल घोषित करना बेमानी होगा। क्योंकि उस समय दोनों जनता के सवालों पर सरकार की घेरेबंदी कर रहे होते हैं। इससे जनता का ही पक्ष मजबूत होता है। दरअसल पत्रकारिता तीन तरह की होती है। एक मिशनरी, दूसरी नौकरी और तीसरी कारपोरेट। पहला आदर्श की स्थिति है। दूसरी बीच की एक समझौते की। और तीसरी पत्रकारिता है ही नहीं। वह मूलतः दलाली है। चिट्ठी में आपने काफी चीजों को गड्ड-मड्ड कर दिया है। आप ने उन्हीं भक्तों का रास्ता अपनाया है। जो बीजेपी और मोदी के सिलसिले में जब भी कोई आलोचना होती है। तो यह कहते पाए जाते हैं कि तब आप कहां थे। जब ये ये हो रहा था। और फिर इतिहास के कूड़ेदान से तमाम खरपतवार लाकर सामने फेंक देते हैं। और पूरी बहस को ही एक नया मोड़ दे देते हैं। यहां भी आपने वही किया है। बजाय मुद्दे पर केंद्रित करने के कि एम जे अकबर जैसा एक संपादक-पत्रकार जो बीजेपी की नीतियों का धुर-विरोधी रहा है। वह एकाएक उसका प्रवक्ता और सरकार का हिस्सा कैसे बन गया? इसमें यह बहस होती कि क्या कोई अपने विचार से एक झटके में 180 डिग्री पल्टी खा सकता है? ऐसे में उसकी साख का क्या होगा? इससे पत्रकारिता और उसकी विश्वसनीयता को कितनी चोट पहुंचेगी? क्या सत्ता के आगे सारे समझौते जायज हैं? और ऐसे समझौते करने वालों को किस श्रेणी में रखा जाए? क्या सत्ता का अपना कोई सिद्धांत नहीं होता है? विचारधारा और सिंद्धांतविहीन राजनीति कहीं बाझ सत्ता और पत्रकारिता को तो जन्म नहीं दे रही है?

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इस मामले में एक पत्रकार का एक सत्ता में शामिल शख्स से सवाल बनता है। अकबर अब पत्रकार नहीं, मंत्री हैं। और सत्ता के साथ हैं। लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आया कि अकबर या सत्ता पक्ष से जवाब आने का इंतजार करने की बजाय आप क्यों बीच में कूद पड़े। क्या आपने सत्ता की ठेकेदारी ले रखी है। या मोदी भक्ति इतने हिलोरे मार रही है कि एक आलोचना भी सुनने के लिए तैयार नहीं हैं। आपने जिन लोगों को खत न लिखने के बारे में रवीश से पूछा है। आइये अब उस पर बात कर लेते हैं। अमूमन तो अभी तक पत्रकारिता के पेश में यही बात थी कि पत्रकारों की जमात सत्ता पक्ष से ही सवाल पूछती रही है। और आपस में एक दूसरे पर टीका टिप्पणी नहीं करती थी। किसी का कुछ गलत दिखने पर भी लोग मौन साध लेते थे। लिहाजा किसी ने कभी भी किसी को खत नहीं लिखा। ऐसे में जो चीज हुई ही नहीं आप उसकी मांग कर रहे हैं। हां इस मामले में जब कुछ लोग पत्रकारिता की सीमा रेखा पार कर खुल कर सत्ता की दलाली और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबते नजर आये। और पानी सिर के ऊपर चढ़ गया। तथा पत्रकारों की दलाली खासो-आम के बीच चर्चा बन गई। तब जरूर उनके खिलाफ लोंगों ने नाम लेकर बोलना शुरू कर दिया।

जैसा कि ऊपर मैंने कहा है कि आपने काफी चीजों को गड्ड-मड्ड कर दिया है। आपने जिन नामों को लिया है उनमें आशुतोष को छोड़कर सब पत्रकारिता की जमात के लोग हैं। बरखा और प्रणव राय को खत लिखने से पहले रवीश को इस्तीफे का खत लिखना पड़ेगा। वह सुधीर चौधरी जैसे एक बदनाम पत्रकार और कारपोरेट के दलाल को पत्र लिख सकते थे, जिसके खिलाफ बोलने से उनकी नौकरी के भी जाने का खतरा नहीं है। लेकिन उन्होंने उनको भी पत्र नहीं लिखा। हां इस मामले में रवीश कुमार व्यक्तिगत स्तर पर कहीं बरखा या फिर प्रणव राय को मदद पहुंचाते या फिर उसमें शामिल दिख रहे होते तब जरूर उन पर सवाल उठता। सुधीर चौधरी भी सुभाष चंद्रा के चैनल में एक कर्मचारी के तौर पर काम कर रहे होते तो किसी को क्या एतराज हो सकता था। लेकिन जब वह उनकी तरफ से उनके व्यवसाय और उससे संबंधित मामलों को निपटाने में जुट गए। तब उन पर अंगुली उठी।

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रही आशुतोष की बात। तो एक चीज आप को समझनी होगी। पत्रकारिता अकसर जनता के आंदोलनों के साथ रही है। कई बार ऐसा हुआ है कि पत्रकारों के किसी आंदोलन का समर्थन करते-करते कुछ लोग उसके हिस्से भी बन गए। आशुतोष पर सवाल तब उठता जब अन्ना आंदोलन को छोड़कर वो कांग्रेस के साथ खड़े हो जाते। जिसके खिलाफ पूरा आंदोलन था। अब एक पेशे के लोगों को दूसरे पेशे में जाने से तो नहीं रोका जा सकता है। हां सवाल उठना तब लाजमी है जब संबंधित शख्स सत्ता की लालच में अपने बिल्कुल विरोधी विचार के साथ खड़ा हो जाए। इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के खिलाफ एक्सप्रेस और जनसत्ता विपक्ष की आवाज बन गए थे। इस भूमिका के लिए उनकी तारीफ की जाती है। उन्हें विपक्ष का दलाल नहीं कहा जाता है। और यहां तक कि प्रभाष जोशी जी कांग्रेस के खिलाफ जो आमतौर पर सत्ता पक्ष रही, वीपी सिंह और चंद्रशेखर के ही साथ रहे। इसलिए समय, परिस्थिति और मौके का बड़ा महत्व होता है। सब को एक ही साथ एक तराजू पर तौलना कभी भी उचित नहीं होगा।

Abhishek Srivastava : रवीश कुमार चिट्ठी बहुत लिखते हैं। खुली चिट्ठी। जिसको देखो उसी को लिख देते हैं। हर बार जब पता चलता है कि उन्‍होंने कोई खुला पत्र लिख मारा है, तो अच्‍छा लगता है। सोचता हूं कोई तो है जो चिट्ठी लिख रिया है वरना हर कोई फेसबुक और ट्विटर करता है। ज्‍यादा गंभीर लोग ईमेल कर देते हैं। चिट्ठी लिखने वाला धैर्य और हौसला अब किसके पास रहा। चिट्ठी लिखना एक अच्‍छी बात है। खुली चिट्ठी उससे भी अच्‍छी होती है। जिसके पास पहुंचनी है वहां पहुंचे या नहीं, बाकी सब जान जाते हैं। इससे दो फायदे होते हैं। पहला, लोगों को चिट्ठी लिखने की प्रेरणा मिलती है। दूसरे, आलसी लोग खुद चिट्ठी लिखने के बजाय रवीश कुमार की चिट्ठी को शेयर कर देते हैं इस भाव में कि अरे, मैं भी तो यही कहना चाह रहा था! अच्‍छा हुआ रवीश ने कह दिया। इस तरह बचपन की एक लोकोक्ति चरितार्थ हो जाती है- हर्र लगे न फिटकिरी, रंग चोखा नजर आए। रंग ही तो चोखा चाहिए, वरना हर्र और फिटकिरी किसे भाते हैं। जरा सा फिटकिरी लगते ही पता चला कि चिट्ठीकार फेसबुक से गायब। सबसे ज्‍यादा मौज चिट्ठी शेयर करने वाले की होती है। उसकी खुशी ‘नदी के द्वीप’ में उस रिक्‍शेवाले की प्रातिनिधिक खुशी जैसी होती है जो यह जानकर ही मस्‍त हो जाता है कि उसकी सवारी (जो संयोग से पत्रकार ही था) मेफेयर सिनेमा में मूवी देखने जा रही है। अब मेफेयर किसलिए जाना जाता था, ये बताने की ज़रूरत है क्‍या!

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Kashyap Kishor Mishra : प्रिय रवीस जी, पहले तो साफ कर दूँ, कि रवीश की बजाय आपको रवीस लिखने की वजह आपके भीतर बैठे कस्बाई खाँटीपन को सहलाना है, जो आज भी आपकी प्रस्तुति में झलकता है । तो रवीस जी, बात सीधे सीधे मुद्दे की करते हैं, आप अक्सर खत लिखते हैं, बेशक ये खत कागज पर कलम से नहीं कंपूटर पर की बोर्ड की खिटिर पिटिर से छापी करते हों, पर आपको यूँ खत लिखते देख, एक कस्बाई लड़के की खुशबू तैर जाती है, जो अपनी पहचान अपनी परम्परा सीने से बसाए दुनिया की चहल पहल में खोए रहने के बाद भी अपनी कस्बाई पहचान और संस्कृति को रेखांकित करते जी रहा हो।

रवीस जी, आपने अभी एक पत्र लिखा है, जिसमें आपने खुद को दी जा रही गालियों का हवाला देकर, एम. जे. अकबर साहेब से कुछ सवाल पूछे हैं, मुझे ये सवाल बड़े उपयुक्त लगे, यूँ सवाल उठने भी चाहिए, पत्रकारिता के लिए ऐसे सवालों का उठते रहना लाजिम भी है, आपके सवाल आज के दौर में बड़े मानीखेज हैं । पर मुझे थोड़ा भ्रम है, आपनें एक पत्रकार के तौर पर एक दूसरे वरिष्ठ पत्रकार से सवाल पूछे हैं । मुझे नहीं पता मैं खुद आपके सापेक्ष कहाँ खड़ा हूँ पर एक पत्रकार होनें के नाते बड़ी विनम्रता से आपसे कुछ जानना चाहूँगा।

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रवीस जी, आपनें डेस्क पर तो काम किया ही होगा । यह एक पत्रकार के शुरुआत की “जीवन घुट्टी” होती है । रवीस जी डेस्क से शुरू खबरें डेस्क से आगे बढ़ती हैं या वहीं दम तोड़ देती हैं, यह हमेशा ही खबरों की गुणवत्ता से तय होना चाहिए, पर ऐसा होता है, क्या ? रवीस जी, बीते पच्चीस वर्षों में मैंने डेस्क पर खबरों का मोल तोल होते देखा है, खबर करने और रोकनें के एवज में लेनदेन का साक्षी रहा हूँ, और यह हर कहीं होता है, कहीं कम कहीं जादा । तो रवीस जी, यह दलाली नहीं है, तो क्या है ? रवीस जी, एक लड़की की वजह से हुए दो लड़कों के झगड़े को, सिर्फ विज्ञापन न देनें की वजह से, एक बड़ा अखबार गैंगवार बना कर शहर की सनसनी में तब्दील कर देता है और दिनदहाड़े एक संस्थान से लड़की के अपहरण की खबर बना देता है, यह पत्रकारिता जगत की ब्लैक-मेलिंग नहीं तो क्या है ? रवीस जी, पत्रकारिता जगत एक दलाली के अड्डे में तब्दील हो चुका है तो पत्रकारों को दलाल कहनें से आपको इतना कष्ट क्यों है?

न, न ! अब आप कुछ चंद लोगों की बात मत करिये, जिनके लिए पत्रकारिता एक मिशन हैं, पत्रकारिता जगत में बहुमत दलालों का है और उन्हीं के आधार पर, जनता अपना फैसला देती है । पर क्या आप जनता की इस राय को छापी करेंगे ? आप अपनी खबरों में, जनता की इस राय को चलाएगें ? नहीं, न ! तो लोग, आपको सोशल मीडिया पर नहीं तो कहाँ गाली देंगे । अब यह मत कहिएगा कि गाली देना गलत बात है, गलत बात दलाली करना भी है, और हाँ ! रवीस जी दलाली बस दलाली होती है वो चाहे समर्थन की दलाली हो, या विरोध की । दलाल दलाल ही होता है।

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रवीस जी, आपको पीड़ा होती है कि लोग आपको माँ की गाली देते हैं, आपको दलाल कहते हैं, तो आप अपनी पीड़ा खुली चिठ्ठी में, बड़े बड़े लोगों से सवाल कर के जाहिर कर दिया करते हैं, पर उनकी पीड़ा का क्या जो दिनभर खटकर आधे पेट खा कर अभावों में जीवन जीते आपकी खबरों को देखते हैं वे खबरें जो या तो समर्थन की दलाली होती हैं या विरोध की और उन खबरों पर भरोसा कर वो राय बना लेते हैं । रवीस जी आपकी खबरों से बनाया भरम सच्चाई की खुरदुरी जमीन पर पल भर में चटक जाता है, आपकी दलाली से पटी खबरों से बना सुहाना छाता, जीवन के कड़वे सच को जरा भी झेल नहीं पाता और पल भर में एक आदमी को सच्चाई का आभास हो ही जाता है, तो वो आपके नाम पर फूल बतासे नहीं गालियाँ ही लुटायेगा।

रवीस जी, अब कुछ तकनीकी सवाल पूछना चाहूँगा । क्या आप दिल पर हाथ रख के कह सकते हैं कि एनडीटीवी में एक दम नए नए आए लड़कों से, आपके सीनियर मानवीय करूणा और इज्जत से पेश आते हैं ? रवीस जी जूनियर लड़कों को जलील करनें उन्हें पूरा पैसा न देनें के खिलाफ आपने कभी आवाज बुलंद की ? रवीस जी क्या आपके संस्थान में मजीठिया वेज बोर्ड के प्रावधान लागू हैं ? रवीस जी एनडीटीवी नें विशाखा आयोग की संस्तुतियों पर क्या काम किया है ? क्या एनडीटीवी सबकी मेहनत का उपयुक्त क्रेडिट देता है?

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रवीस जी, बस दो चार सवालों का जवाब आपको आपकी सच्चाई से रूबरू कर देगा । एक सच और स्वीकार करें, कृपया बार बार खुद को पत्रकार कहना बंद करें और प्रस्तोता कहना शुरू करें, यह आपके टीवी मीडिया में एक बहुत बड़े वर्ग को उनके भ्रम से निकलने में सहायक होगा। रवीस जी, मैंनें अपना कैरियर एक पत्रकार के तौर पर शुरू किया था और मुझे पैसे की बेहद जरूरत थी, लिहाजा मेरे एक वरिष्ठ नें मुझे सलाह दिया कि मैं पत्रकारिता छोड़ कर चार्टर्ड अकाउंटेंट बन जाऊँ । उन्होंने मुझे समझाया था कि मेरी बड़ी बड़ी पारिवारिक जरूरतें मेरे पत्रकारिय-दायित्व को दूषित कर देंगी । तो रवीस जी, अपनी जरूरतों से मजबूर होकर मैंने अपने मन के काम को छोड़कर जीवन की अलग राह चुन ली, यह काम मेरे मन का नहीं पर कर रहा हूँ और अब जब देखता हूँ कि खबरों के प्रस्तोता और आज के दौर के पत्रकार पत्रकारिता के नाम पर दलाली करते पैसों की चमक में आकंड डूबे हुए हैं, तो गाली मेरे मुँह से भी निकलती है।

रवीस जी, इन बीते पच्चीस सालों के दौरान जिस मिशन को दूषित न करनें के लिए मैं घुट घुट कर “मुर्दा शांति से भरा” घर से काम और काम से घर का जीवन जीता रहा आज जब उसे दलाली से बजबजाते देखता हूँ, तो रवीस जी एक बार दिल पर हाथ रख कर कहिएगा, इस पर मेरे मुँह से गाली नहीं निकलेगी तो क्या निकलेगा? उम्मीद है, यह खत आप-तक पहुँच जायेगा।

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सादर,
कश्यप किशोर मिश्र
(पुनश्च : इस खत के संदर्भ में कृपया यह ध्यान रखें कि किसी को भी किसी तरह की गाली देने का मैं कतई समर्थन नहीं करता, मेरे खत के अंतिम पैरा में गाली देने का संदर्भ बस उस कातर भाव से सम्बन्धित है, जिससे एक बेहद असहाय व्यक्ति गुजरता है । मेरे लिए “दलाल” शब्द एक बड़ी, बहुत बड़ी गाली है और यहाँ कृपया इसे इसी संदर्भ में लें।)

Khushdeep Sehgal : अच्छा है पत्रकारिता में खुली चिट्ठियां लिखने का दौर चल पड़ा है… पहले Ravish Kumar NDTV ने MJ Akbar के नाम खुली चिट्ठी लिखी…इसमें रवीश ने हवाला दिया कि अकबर कैसे पत्रकारिता करते करते पहले कांग्रेस के पाले से राजनीति में पहुंचे (अकबर बिहार की किशनगंज लोकसभा सीट से 1989-1991 में सांसद रहे थे)…इसके बाद अकबर राजनीति से दोबारा पत्रकारिता में लौटे…अकबर ने फिर राजनीति की ओर यू-टर्न लिया…लेकिन इस बार उन्होंने बीजेपी की उंगली पकड़ी…पहले राज्यसभा सांसद बने और अब विदेश राज्य मंत्री का ओहदा भी संभाल लिया है…रवीश का खुला खत उनके ब्लॉग पर पढ़ा जा सकता है…इसमें रवीश ने अकबर से इस सवाल पर रौशनी डालने के लिए कहा है कि कौन सा सवाल कब दलाली हो जाता है और कब पत्रकारिता? रवीश ने ये भी कहा है, “अकबर सर, मैं दलाल नहीं हूं…बट डू टेल मी व्हाट शूड आई डू टू बिकम अकबर…।”

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अकबर जवाब देंगे या नहीं, कह नहीं सकता… हां, रवीश की तर्ज़ पर ही पत्रकार Rohit Sardana ने अपनी फेसबुक पोस्ट में ज़रूर रवीश के नाम खुला खत लिख डाला है…अपने खत में रोहित ने रवीश से पूछा है कि क्या उन्होंने पत्रकार बरखा दत्त को भी राडिया टेप्स को लेकर ऐसा ही ओपन लेटर लिखा था? अब ये भी हो सकता है कि रोहित के नाम भी कोई और पत्रकार खुला खत लिख डाले…बहरहाल, पत्रकारों का पत्रकारों से ही खुले खतों में सवाल करने का ये नया सिलसिला है…इन्हें पढ़ने से पत्रकारिता के नवांकुरों को इस माध्यम के कुछ स्याह पहलुओं को समझने में ज़रूर मदद मिलेगी, ऐसी उम्मीद कर सकता हूं…

(नोट- रवीश से मैं जीवन में सिर्फ एक बार मिला हूं…वो कुछ मिनटों की ही मुलाकात थी…इसलिए उन्हें जितना जानता हूं उनकी पत्रकारिता या ब्लॉगिंग की वजह से ही जानता हूं…हां, रोहित सरदाना के साथ मैंने ज़रूर 6-7 साल एक ही संस्थान में काम किया है…विचारधारा अलग हो सकती है लेकिन इतना कह सकता हूं कि इंसानी रिश्ते निभाने और दूसरों को सम्मान देने में रोहित बेमिसाल है…)

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सौजन्य : फेसबुक

मूल पोस्ट…

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