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आनलाइन गुंडागर्दी से दुखी रवीश कुमार ने अपना फेसबुक और ट्विटर एकाउंट बंद कर दिया

Ambrish Kumar : पत्रकार रवीश कुमार ने अपना फेसबुक और ट्विटर एकाउंट बंद कर दिया ‘आन लाइन गुंडागर्दी’ के खिलाफ. यह शब्द ‘आनलाइन गुंडागर्दी’ भी उन्ही का गढ़ा है क्योंकि उन्हें लगातार निशाना बनाया जा रहा था. यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और दुखद है. पर किसी भी तरह की गुंडागर्दी से पलायन समस्या का समाधान नहीं है. आज देश के हर जिले हर कसबे में सामान्य गुंडागर्दी जारी है. कई जगह स्कूली छात्राओं को इतना परेशान किया गया कि कई ने ख़ुदकुशी कर ली. गांव में दलित अति पिछड़ों के साथ सामन्ती व्यवहार आज भी जारी है. ऐसे में पत्रकार ही सुरक्षित रहें, यह भी संभव नहीं. पर कुछ तथ्य गौर करने वाला है.

<p>Ambrish Kumar : पत्रकार रवीश कुमार ने अपना फेसबुक और ट्विटर एकाउंट बंद कर दिया 'आन लाइन गुंडागर्दी' के खिलाफ. यह शब्द 'आनलाइन गुंडागर्दी' भी उन्ही का गढ़ा है क्योंकि उन्हें लगातार निशाना बनाया जा रहा था. यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और दुखद है. पर किसी भी तरह की गुंडागर्दी से पलायन समस्या का समाधान नहीं है. आज देश के हर जिले हर कसबे में सामान्य गुंडागर्दी जारी है. कई जगह स्कूली छात्राओं को इतना परेशान किया गया कि कई ने ख़ुदकुशी कर ली. गांव में दलित अति पिछड़ों के साथ सामन्ती व्यवहार आज भी जारी है. ऐसे में पत्रकार ही सुरक्षित रहें, यह भी संभव नहीं. पर कुछ तथ्य गौर करने वाला है.</p>

Ambrish Kumar : पत्रकार रवीश कुमार ने अपना फेसबुक और ट्विटर एकाउंट बंद कर दिया ‘आन लाइन गुंडागर्दी’ के खिलाफ. यह शब्द ‘आनलाइन गुंडागर्दी’ भी उन्ही का गढ़ा है क्योंकि उन्हें लगातार निशाना बनाया जा रहा था. यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और दुखद है. पर किसी भी तरह की गुंडागर्दी से पलायन समस्या का समाधान नहीं है. आज देश के हर जिले हर कसबे में सामान्य गुंडागर्दी जारी है. कई जगह स्कूली छात्राओं को इतना परेशान किया गया कि कई ने ख़ुदकुशी कर ली. गांव में दलित अति पिछड़ों के साथ सामन्ती व्यवहार आज भी जारी है. ऐसे में पत्रकार ही सुरक्षित रहें, यह भी संभव नहीं. पर कुछ तथ्य गौर करने वाला है.

हम लोग विश्वविद्यालय के समय से लेकर प्लांट यूनियन की राजनीती तक विरोधी विचारधारा से लड़ते भिड़ते रहे हैं. इसमें धुर वामपंथी भी थे तो दक्षिणपंथी भी. मुठभेड़ हिंसक भी हुई. पर एक बात मैंने गौर की कि तब भी विद्यार्थी परिषद के नेता कार्यकर्त्ता विरोधी विचारधारा वाले के साथ अच्छे सम्बन्ध रखते थे और धुर वामपंथी भी. वे पढ़ते लिखते भी थे. कम से कम अपना साहित्य और कुछ हद तक दूसरे का भी. तात्कालिक प्रतिक्रिया से भी बचते थे. नेट पर इसका अभाव दिख रहा है. राजनैतिक विरोधियों को वर्ग शत्रु मान लिया जाता है. पढने का तो कोई सवाल नहीं. विरोध भी निचले स्तर का. भाषा से तो कंगाल हैं ही.

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मुझे याद है जनसत्ता अखबार धुर कांग्रेस विरोधी रहा और कहा जाता था कांग्रेसी सार्वजनिक रूप से ना सही बाथरूम में इस अख़बार को पढ़ते हैं, पर पढ़ते जरूर हैं. अब यह पढना बंद हो रहा है. यह किसी एक धारा की बात नहीं है. मैंने तो कई बिगड़े हुए तथाकथित प्रगतिशील और वाम पंथियों को भी वही भाषा बोलते हुए देखा है जो कुछ दक्षिण पंथी बोलते हैं. इसलिए यह विचार से ज्यादा संस्कार का मामला है. ऐसे तत्वों का विरोध होना चाहिए पर किसी विचारधारा के नाम पर बांट कर विरोध करेंगे तो मामला बनेगा नहीं. संवाद की जगह सड़क की भाषा और सड़क की संस्कृति का विरोध किया जाना चाहिए. और, गुंडागर्दी चाहे आनलाइन हो या आफलाइन, इसका तो हर हाल में विरोध किया जाना चाहिए.

जनसत्ता अखबार में लंबे समय तक काम कर चुके यूपी के वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार के फेसबुक वॉल से.

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