Connect with us

Hi, what are you looking for?

साहित्य

वाराणसी के सांस्कृतिक पत्रकार शायद सांस्कृतिक थे भी नहीं और हो भी न पाएंगे!

प्रिय भड़ास, कहीं से सुना की आपके ब्लॉग पर यदि भड़ास निकली जाये तो उसे गंभीरता से ले लिया जाता है कभी-कभार. तो उत्साहित हो उठा. मैं बनारस का एक रंगकर्मी हूँ जो अब बनारस के रंगकर्म से खिन्न होकर विदा ले चुका है. कारण बहुत से हैं. हमारा वाराणसी जितना धार्मिक रहा है उतना ही साहित्यिक भी. जैसा की आपको विदित होगा ही की हिंदी साहित्य के निर्माण में यहाँ के रचनाकारों की कितनी बड़ी तादात है. सबसे मशहूर कुछ दो लोगों का ज़िक्र करना चाहूँगा. एक भारतेंदु हरीश चन्द्र दूसरे प्रेमचंद. दोनों ही चंद अब भुलाये जा चुके हैं यहाँ. चौखम्बा स्थित भारतेंदु भवन तो फिर भी ठीक है पर लमही स्थित प्रेमचन्द निवास के क्या कहने. जाकर देखने योग्य भी नहीं है.

<p>प्रिय भड़ास, कहीं से सुना की आपके ब्लॉग पर यदि भड़ास निकली जाये तो उसे गंभीरता से ले लिया जाता है कभी-कभार. तो उत्साहित हो उठा. मैं बनारस का एक रंगकर्मी हूँ जो अब बनारस के रंगकर्म से खिन्न होकर विदा ले चुका है. कारण बहुत से हैं. हमारा वाराणसी जितना धार्मिक रहा है उतना ही साहित्यिक भी. जैसा की आपको विदित होगा ही की हिंदी साहित्य के निर्माण में यहाँ के रचनाकारों की कितनी बड़ी तादात है. सबसे मशहूर कुछ दो लोगों का ज़िक्र करना चाहूँगा. एक भारतेंदु हरीश चन्द्र दूसरे प्रेमचंद. दोनों ही चंद अब भुलाये जा चुके हैं यहाँ. चौखम्बा स्थित भारतेंदु भवन तो फिर भी ठीक है पर लमही स्थित प्रेमचन्द निवास के क्या कहने. जाकर देखने योग्य भी नहीं है.</p>

प्रिय भड़ास, कहीं से सुना की आपके ब्लॉग पर यदि भड़ास निकली जाये तो उसे गंभीरता से ले लिया जाता है कभी-कभार. तो उत्साहित हो उठा. मैं बनारस का एक रंगकर्मी हूँ जो अब बनारस के रंगकर्म से खिन्न होकर विदा ले चुका है. कारण बहुत से हैं. हमारा वाराणसी जितना धार्मिक रहा है उतना ही साहित्यिक भी. जैसा की आपको विदित होगा ही की हिंदी साहित्य के निर्माण में यहाँ के रचनाकारों की कितनी बड़ी तादात है. सबसे मशहूर कुछ दो लोगों का ज़िक्र करना चाहूँगा. एक भारतेंदु हरीश चन्द्र दूसरे प्रेमचंद. दोनों ही चंद अब भुलाये जा चुके हैं यहाँ. चौखम्बा स्थित भारतेंदु भवन तो फिर भी ठीक है पर लमही स्थित प्रेमचन्द निवास के क्या कहने. जाकर देखने योग्य भी नहीं है.

स्थानीय संस्कृति विभाग हर वर्ष एक लमही महोत्सव आयोजित करता है जिसका कारण असल में क्या है ये मुझे आजतक समझ में नही आया. इस सांस्कृतिक आयोजन में मैंने भी कुछ नाटक प्रस्तुत किये हैं. अनुभव ही बयां करूँगा. पहले ज़रा सा प्रिंट मिडिया का तार्रुफ़ आपसे करवा दूं. यहाँ के सांस्कृतिक पत्रकार शायद सांस्कृतिक थे भी नहीं और हो भी न पाएंगे. बड़ी अजीब सी बात है की किसी भी सांस्कृतिक आयोजन का इश्तेहार जैसा आर्टिकल बदस्तूर अखबार में छप जाया करता है पर मौका ए वारदात पर कोई पत्रकार कभी दीखता क्यूँ नहीं.

Advertisement. Scroll to continue reading.

मुझे बाद में अनुभव मिला कि यहाँ स्टोरी निमंत्रण पत्र देख कर ही बना दी जाती है. अक्सर किसी बड़े नाटक को देखने ये पत्रकार कई बार के रिमाइंडर पर आ जाते तो हैं, पर नाटक इनसे कभी बर्दाश्त हो नहीं पाते. चाहे दर्शक अपनी कुर्सियों पर खड़े तालियाँ पीट रहें हों. अतः ये पहले पन्द्रह मिनट के बाद दिखाई नहीं देते. आलोचानात्मक व्याख्यान की उम्मीद भी करें तो हम खुद पर ही हंस दिया करें. पत्रकारों की कृपा हाल ही के कुछ नए रईसों की पार्टियों, और गप्पेबाजी के आयोजनों पर होती है. जैसे दैनिक जागरण का एक टेबलेट I-next. इसके पिछले पेज पर सिर्फ वीभत्स मेकप धारी मोटी चमचमाती महिलाएं लगभग रोज़ ही दिखतीं हैं. पर नगर के किसी विख्यात कवि-साहित्यकार या किसी नाटक के दृश्य कभी नहीं. हमने खुद भी इस अखबार से उस अखबार के दफ्तर जा जा कर कई बार निमंत्रण छोड़े हैं. पर सात सालों में आखिर के दो साल ही अखबारों में आने का सौभाग्य मिला.

लमही महोत्सव के दौरान ही एक सज्जन पत्रकार से हमने इस बाबत बात छेड़ी थी पर जवाब मिला- भैया मीडिया विज्ञापन से ही न चलता है.

Advertisement. Scroll to continue reading.

मुझे उसकी बात में दम लगा. क्यूंकि हमारे स्थानीय अखबार वैसे भी अखबारों से ज्यादा पम्पलेट ही लगते हैं.

अब मैं स्थानीय नाटकों की पीढ़ा लिखना चाहूँगा. यहाँ एक निर्मम संस्था है जो पिछले कई सालों से नाटकों की हत्या और संकृति के ह्रास की ज़िम्मेदार है. नाम है नगरी नाटक मंडली. ये ऐसी एक मात्र संस्था है जहाँ राजवंश अब भी कायम है. मसलन यहाँ के न्यास की नियुक्ति.

Advertisement. Scroll to continue reading.

मंडली की अपनी एक अलग दबंगई है. जैसे की किसी किसी नाटक संस्था/कलाकार पर प्रतिबन्ध लगना और कारण ये होना की वो इन्हें काफी समय से भाव नहीं देता. नगर में दूसरा कोई ऑडिटोरियम है ही नहीं. एक संस्कृतिक संकुल नामक संस्कृतिक केंद्र है जहाँ के हॉल का किराया लगभग 40000 है. और भीतर घुसने पर पता चलता है की कुछ भडभडाते पंखो और दूर तक फैली शिला के अलावा इसमें कुछ भी नहीं.

अपनी नगरी नाटक मंडली की दशा इससे कुछ बेहतर है. यहाँ फटी-उधडी टिन के किनारों वाली कुछ कुर्सियां हैं और लकड़ी का एक मंच भी है. बस. हमारे बनारस की सांस्कृतिक भूख इसी से मिट जाती है. मजबूरी ही है. क्यूंकि सरकार के पास कांवड़ियों के अस्थायी शौचालयों के लिया कई करोड़ होते है पर यहाँ के सांस्कृतिक केंद्र के लिए बस एक सावन मेला. जिसमे कोई सावन का मारा भी नहीं पहुँचता.

Advertisement. Scroll to continue reading.

मैं खिन्न हूँ क्यूंकि यहाँ किसी भी प्रकार के अवसर अब बचे ही नहीं. कहने के लिए बहुत कुछ है पर आप पढ़ते-पढ़ते बोर हो जायेंगे. वैसे भी यहाँ कई सारे मुद्दे अब आपस में घुस-मूसा गए हैं.

भड़ास निकाल दी गयी. इ-मेल के लिए धन्यवाद.

Advertisement. Scroll to continue reading.

भड़ास का कुछ हिस्सा बाकि रह गया. पिछला मेल भूमिका था. किस्सा मैं अब भेज रहा हूँ.

Advertisement. Scroll to continue reading.

हाल ही के हुए एक लमही महोत्सव में एक युवा रंगकर्मी ने मंच पर जाकर अपनी भड़ास निकाल दी.

लमही महोत्सव का आखिरी दिन था जिसमे आखिरी नाटक कफ़न शुरू हो चुका था. जिसमे यह युवा रंगकर्मी पिछले एक महीने से चार किलोमीटर दूर जा-जाकर रिहर्सल कर चुका था. महोत्सव के मुख्य अतिथि, जैसे नगर के कुछ प्रमुख उस दिन अनुपस्थित थे. सो आयोजन सांस्कृतिक विभाग प्रमुख द्वारा शुरू करवा दिया गया. पहले नाटक के होते-होते कई लोग उठ कर जा चुके थे. पत्रकार तो पहले ही निकल जाते हैं.

Advertisement. Scroll to continue reading.

हुआ यूँ की आयोजन समापन होते-होते वे सारे मुख्य अतिथि आ गए. आयोजक ने तत्परता से प्रबंध करवाए और बड़े ही अजीब ढंग से नाटक के निर्देशक को चलता नाटक रोक देने के आदेश दे दिए.

मज़े की बात ये की थोड़ी सी न-नुकुर के बाद निर्देशक मान भी गया.

Advertisement. Scroll to continue reading.

हमारा युवा रंकर्मी पूरी तल्लीनता से अभिनय में लिप्त था. प्रेमचंद का माधव जीवित हो चुका था की उसे पोडियम से निर्देशक की आवाज़ सुनाई दी- “समय के आभाव के चलते हम क्षमा चाहेंगे की हमे नाटक यही रोकना पड़ रहा है.”

खून खौल जाना स्वाभाविक था. वाराणसी जैसे क्षेत्र में नाटक को वैसे भी गंभीरता से नहीं लिया जाता. चाहे वो प्रेमचंद को समर्पित महोत्सव ही क्यूँ न हो. गंभीर तो अतिथियों के भाषण होते हैं. अब वो आये हैं तो भाषण तो देंगे ही.

Advertisement. Scroll to continue reading.

बनारस में होने वाले लगभग हर नाटक का यही एक रिवाज है जो अक्सर नाटकों, संगीत, साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर भारी पड़ जाता है. आज भी पड़ गया. युवा रंगकर्मी का उबलना लाज़मी ही था.

पहले तो वह उठकर ग्रीन रूम चला गया पर बाद में फुन्फुनाता हुआ मंच पर वापस आया. भाषण देते किसी विभाग के प्रमुख के हाथ से माइक छीन उसने बोलना शुरू किया. “मैं पिछले एक महीने से अस्सी से DLW जा-जाकर रिहर्सल करता रहा हूँ. मेरा नाटक सिर्फ आधे घंटे का था जिसे भाषणों के लिए बंद करवा दिया गया. सिर्फ ये पूछना चाहता हूँ की क्या ये सही हुआ?

Advertisement. Scroll to continue reading.

कहकर युवा रंगकर्मी सवाल का बिना जवाब लिए अतिथि को माइक थमा कर अपना सामान ले वहां से चला गया. हम रंगर्मियों के लिए ये एक क्रांतिकारी कदम है. पर जिसे यहाँ के स्थानीय समाचार पत्रों में एक शब्द भी नसीब नही हुआ. क्यूँ होगा. कार्यक्रम सरकारी तो था ही साथ में हमारे समाचार पात्र तो पम्पलेट हैं. उनके लिए नाटक और साहित्य समय बर्बादी से ज्यादा वैसे भी कुछ कहाँ है.

अब जाकर भड़ास पूरी हुई.

Advertisement. Scroll to continue reading.

ऋत्विक जोशी

Ritvik Joshi

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement