Rajkumar Soni : जब सरकार तय करने लगे खबरें तब… राजनीति में आना ही ठीक… रूचिर गर्ग एक अखबार में संपादक थे, लेकिन जब उनके कांग्रेस प्रवेश की खबरें चली और उन्होंने कांग्रेस प्रवेश कर लिया तब सबने यहीं लिखा कि पत्रकार रूचिर गर्ग… उनके नाम के आगे- पीछे यदा-कदा ही संपादक लिखा गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि छत्तीसगढ़ ही नहीं देश के बहुत से लोगों का विश्वास संपादक नाम की संस्था से उठ गया है।
अब संपादक हो जाने का मतलब बड़ा बाबू या लाइजनर हो जाना होता है। इसके अलावा संपादक की एक महत्वपूर्ण भूमिका यह भी होती हैं कि वह बिन मांगे सुझाव देते रहता हैं। संपादक इस बात के लिए कुलबुलाते रहता है कि कब कोई मरेगा और उसे विशेष टिप्पणी या त्वरित टिप्पणी लिखने का मौका मिलेगा।
देश विशेषकर छत्तीसगढ़ के बहुत से कल्पेश याग्निक टाइप संपादकों की नस- नस से वाकिफ हूं इसलिए इसे किसी किताब का विषय रहने देते हुए रूचिर गर्ग के कांग्रेस प्रवेश की तरफ लौटता हूं। रुचिर भले ही संपादक थे लेकिन लोगों ने उनमें हमेशा एक बेहतर पत्रकार ही देखा। वे एक ऐसे पत्रकार थे जो आंदोलनों में शामिल होते थे। लोग रूचिर गर्ग को अपने बीच का हमदर्द साथी पाते थे। दोस्त पाते थे और अब भी पाते हैं।
नवभारत को धन्यवाद कह देने के बाद जब यह खबर आम हुई कि उन्हें हटा दिया गया है तब लोगों के मन में सबसे पहला सवाल यही आया कि क्या इसकी जड़ में सरकार की कोई भूमिका है? यह सवाल जरा भी गैर स्वाभाविक नहीं था। पिछले पन्द्रह सालों में छत्तीसगढ़ के पांच पत्रकारों को मौत के घाट उतार दिया गया है। बस्तर- सरगुजा के न जाने कितने पत्रकारों को माओवादियों का समर्थक बताकर जेल में ठूंसा गया है। प्रदेश के ढाई सौ से ज्यादा पत्रकार ऐसे हैं जिनके ऊपर फर्जी मामले दर्ज है। सरकार ने असहमति दर्ज करने वालों को दुश्मन मान लिया है तो यह सवाल कैसे नहीं उठेगा कि रूचिर को हटाए जाने की जड़ में सरकार है?
एक-दो मामलों में उनके साथ मेरी असहमति है, लेकिन यह असहमति इतनी भी बड़ी नहीं है कि हम हमेशा-हमेशा के लिए शत्रु हो जाएंगे। रूचिर भले ही नवभारत को विदा कहने के बाद अपनी शराफत में अपने निकटतम मित्रों और शुभचिंतकों से यह कहते रहे हैं कि स्वास्थ्यगत कारणों से उन्होंने इस्तीफा दिया है, लेकिन सच्चाई यह है कि एक चड्डीधारी उनके पीछे लगा हुआ था। उस चड्डीधारी को वे भी अच्छे से पहचानते हैं।
रूचिर गर्ग शायद इस बात को कभी नहीं बता पाएंगे, लेकिन उनके नवभारत से विदा लेने के बाद मुखिया ने उन्हें अपने निवास पर बुलाया था और कहा था- आपके इस्तीफा देने के बाद हम लोगों का नाम आ रहा है? लोग कह रहे हैं कि हम लोगों ने आपको हटवा दिया। अगर सरकार सही थीं तो फिर सफाई की जरूरत क्यों पड़ी? ( धन्य हैं वे लोग जो हत्या को हलाल में बदलने की कला जानते हैं। इसी का नाम शायद राजनीति है। )
रूचिर कोई पहले पत्रकार नहीं हैं जो राजनीति में आए हैं। वरिष्ठ पत्रकार कुमार केतकी राज्य सभा सदस्य हैं। एमजे अकबर को सब जानते हैं। अरूण शौरी, आशुतोष, राजीव शुक्ला, चंदन मित्रा, शाजिया इल्मी, हरिवंश, आशीष खेतान न जाने कितने नाम हैं। यह बात मैं इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि कतिपय लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि रूचिर को राजनीति में नहीं जाना चाहिए था। एक पत्रकार को पत्रकार बने रहना चाहिए था?
मेरा सवाल है कि क्या छत्तीसगढ़ में अब पत्रकार बने रहना आसान है? छत्तीसगढ़ी मूल के एक पत्रकार विनोद वर्मा के साथ छत्तीसगढ़ की सरकार ने जो कुछ किया वह किसी से छिपा नहीं है। उन पर जिस धारा के तहत केस किया गया वह धारा ही हटा ली गई। उन्हें कई दिनों तक जेल में बंद रखा गया जबकि उनके जेल जाने के जड़ में यह बात थीं कि वे एडिटर अॉफ गिल्ट के सदस्यों के साथ छत्तीसगढ़ आए थे और उन्होंने यह सवाल पूछ लिया था कि बस्तर में पत्रकारों के ऊपर जुल्म क्यों ढहाया जा रहा है।
जब अखबारों के पहले पन्ने से लेकर आखिरी पन्ने तक में क्या छपेगा यह संपादक नहीं बल्कि सरकार तय कर रही हो तब रूचिर गर्ग का राजनीति में आना कैसे गैर- वाजिब माना जा सकता है? जब बाबू संपादकों की थूक-चाट और राजनेताओं के कहने पर पत्रकारों की नौकरी खाई जा रही हो तब रूचिर का राजनीति में आना कैसे गैर वाजिब हो सकता है?
सवाल उठाना ही तो यह सवाल उठाइए कि छत्तीसगढ़ में पिछले पन्द्रह सालों में घटाटोप अंधेरा क्यों कायम है? रूचिर अगर चड्डी धारियों के साथ खड़े होते तो बहुत से लोगों को तकलीफ होती। उनका फैसला एकदम सही है। तटस्थ रहकर लिखने का जो चुतियापा ऊपर से नीचे तक चल रहा है उनसे पूछा जाना चाहिए कि भइया जरा यह तो बताइए कि चुनाव में कितने करोड़ का पैकेज मिला है? सच-सच बताइए? अरे बता भी दीजिए….. कि हम बताए चावल के चार बोरे में धान था कि कुछ और?
बहरहाल मैं अपने इस सीनियर साथी को नई पारी के लिए बधाई और शुभकामनाएं देता हूं।
राजकुमार सोनी
वरिष्ठ पत्रकार
छत्तीसगढ़
संपर्क : 9826895207
मूल खबर….
Anurag
October 20, 2018 at 9:09 am
रूचिर गर्ग के बारे मे आपकी रिपोर्ट पढी , आपके विचारों से यह लगता हैं ,आपने अखबारों के बारे में और पत्रकारिता (आजकल की) के बारे में कुछ भी नहीं कहा ? अखबार दरअसल अखबार ही नहीं रहे ?किसी जमाने में छत्तीसगढ़ में गिनती के अखबार हुआ करते थे, और जनता का भरोसा उनपर इतना अधिक होता था, कि बिना उपहार , स्कीम चलाए अखबार बिका करते थे, आज का अखबार कारपोरेट सेक्टर का कारखाना हो चुका है , और संपादक बनना सफल बिजनेस रिटर्न देने वाला कर्मचारी बनना हो चुका हैं ,रूचिर जी से मिलने का मौका मुझे भी मिला वह भी कठिन प्रयास से ।मैंने भी नवभारत में बचपन से लेकर आज तक कई कालम लिखा था, कुछ दिनों पहले वह नईदुनिया छोड़कर नव भारत आए थे, उनके आते ही लोकवाणी जैसा कालम जिसमें पाठक अपनी प्रतिक्रिया देते थे , बंद कर दिया गया। स्थानीय रचनाकार को हाशिए पर धकेल दिया गया, पूछने पर हाथ जोड़कर मैसज आता था ,हमें माफ करें हम बाद में सोचेंगें वगैरह वगैरह जवाब दिया गया था। आपने सरकार और दबाव की बात कही पर मैं पूछता हूँ ,जनता के पास आज कौन सा अखबार और संपादक खड़ा है ?? नज़र घुमाकर देखेंगे तो पाएँगे सिर्फ व्यापार और स्वार्थ पर मीडिया के लोग लार टपकाते अधिकांश समय निकाल लेते हैं। सूचना देने वाले पत्रकारिता राय बनाने की कोशिश में तब्दील हो चुकी हैं।
अनुराग ओझा रायपुर छत्तीसगढ़