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सुख-दुख

पत्रकारिता के लिए साल का आखिरी दिन चेतावनी भरा रहा, आप लोगों के मरने पर अखबारों में एक लाइन की भी खबर न छपे

: मीडिया को पुनर्जीवित करने का अभियान : मीडिया में अब मामला पेड न्यूज भर का नहीं रहा है। कई अखबार तो खबरें भी उन्हीं की छापते हैं, जो पैसा देते हैं। पूरे के पूरे अख़बार, सप्लीमेंट्स ही पेड हो गए हैं। छोटे- बड़े , कई – कई यही काम कर रहे हैं। चैनलों के ब्यूरो के ब्यूरो खुले आम नीलाम हो रहे हैं। पैसा लाओ , जो छापना है छापो; जो दिखाना है दिखाओ। राजनीतिक दल और सरकारें भी मीडिया को गुलाम बनाने पर तुली हैं। नाहक नहीं है कि प्रेस कौंसिल के चेयरमैन कह रहे हैं कि मीडिया आम अवाम की आवाज दबाने की साज़िश का हिस्सा हो गया है। इस सन्दर्भ में एक रपट…

: मीडिया को पुनर्जीवित करने का अभियान : मीडिया में अब मामला पेड न्यूज भर का नहीं रहा है। कई अखबार तो खबरें भी उन्हीं की छापते हैं, जो पैसा देते हैं। पूरे के पूरे अख़बार, सप्लीमेंट्स ही पेड हो गए हैं। छोटे- बड़े , कई – कई यही काम कर रहे हैं। चैनलों के ब्यूरो के ब्यूरो खुले आम नीलाम हो रहे हैं। पैसा लाओ , जो छापना है छापो; जो दिखाना है दिखाओ। राजनीतिक दल और सरकारें भी मीडिया को गुलाम बनाने पर तुली हैं। नाहक नहीं है कि प्रेस कौंसिल के चेयरमैन कह रहे हैं कि मीडिया आम अवाम की आवाज दबाने की साज़िश का हिस्सा हो गया है। इस सन्दर्भ में एक रपट…

आवाज न उठी तो फिर फिरौती, डकैती, लूट और पक्षधरता ही पत्रकारिता के मूल्य और मानक होंगे

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बुधवार को श्री एन.के सिंह ने देश के सारे संपादकों और वरिष्ठ पत्रकारों को एक बहुत नाराजगी भरा एसएमएस भेजा। उन्होंने कहा कि हमारी पत्रकारिता को क्या हो गया है कि श्री बी.जी. वर्गीज जैसे बड़े संपादक का निधन होता है, और सारी खबर बहुत सरसरे ढंग से चंद लाइनों में निबटा दी जाती है। वे इतने गुस्से में थे कि उन्होंने कहा कि ऐसे ही हालात रहे तो शायद आप लोगों के मरने पर अखबारों में एक लाइन की भी खबर न छपे। पत्रकारिता के लिए साल का आखिरी दिन बहुत चेतावनी भरा रहा।

श्री एन.के. सिंह मेरी और मुझसे बड़ी पीढ़ी के देश के सबसे सशक्त पत्रकार हैं। उन्होंने नई दुनिया से पत्रिकारिता शुरू की। इंडियन एक्सप्रेस में रहे, इंडिया टुडे में रहे, दैनिक भास्कर और हिंदुस्तान टाइम्स में संपादक रहे और ऐसे पत्रकार हैं, जिनके चरित्र, जिनके स्वभाव और जिनकी मानवीय संवेदना को मानक माना जाता है। वे ओल्ड स्कूल के पत्रकार हैं, लेकिन आधुनिक जरूरतों और तकाजों से भी खूब वाकिफ हैं। उनकी गुरुता और गंभीरता अद्भुत है। मुझे भी 2000 से 2003 तक दैनिक भास्कर, भोपाल में उनके साथ काम करने का सौभाग्य मिला। ऐसी सादगी, ऐसा संयम, ऐसी जानकारी और पत्रकारिता के मूल्यों के प्रति उनके जैसी निष्ठा, सजगता और तत्परता बहुत कम देखने को मिलती है। पत्रकारिता का बहुत संयमित और मर्यादित ढांचा बनाने और उसे चलाने में उनका जवाब नहीं।

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परसों सुबह उनसे बात हुई। गुस्सा थोड़ा कम हुआ था, उसकी जगह चिंता ने ले ली थी। श्री वर्गीज के निधन की खबर को समुचित महत्व न मिला तो उसका एक बड़ा कारण तो डेस्क पर बैठे पत्रकारों की ना जानकारी भी हो सकता है। ध्यान बदल गया है, पत्रकार छोटे-बड़े नेताओं और सतही विषयों की चर्चा में मशगूल हैं, और इसी को पत्रकारिता मान बैठे हैं; तो उन महामना लोगों पर उनका ध्यान कैसे जाये, जिन्होंने पत्रकारिता को सींचा है, और सींचते चले जा रहे हैं। उन पर ध्यान जाने की भी बात तो तब होती जब पत्रकारिता के मूल्यों और मानकों पर चलना होता। इसलिए अंगे्रजी में न सही, हिंदी में बहुतों को पता भी न हो कि श्री बी.जी वर्गीज कौन, तो यह भी कोई अचरज की बात नहीं। और यह प्रवृत्ति और आगे बढ़ती जाये, इसमें भी कोई अनहोनी नहीं होगी। एक संकट और है। मराठी के एक पत्रकार से बात की तो उन्होंने कहा, श्री बर्गीज तो अंग्रेजी के पत्रकार थे, मराठी के होते तो हम महत्व देते।

मीडिया जिस शेप में है, और होता जा रहा है, उसके बुनियादी कारण हैं। पे्रस काउंसिल पूरी तरह डिफंक्ट हो गयी है,और सरकारों के सूचना विभाग पत्रकारिता को संजोने के बदले, पत्रकारिता को बिगाड़ने का काम ज्यादा कर रहे हैं। कौन निकाल रहा है अखबार, उसकी बुनियादी योग्यता क्या है,किस कारण निकाल रहा है, उस बारे में न तो रजिस्ट्रार ऑफ न्यूजपेपर्स के यहां कोई सोच है और न ही सूचना विभागों के पास। सरकारी विज्ञापनों को हासिल करने का एक खेल हो गया है। इसी तरह अनेक चैनल और अखबार वसूली के लिए निकाले जा रहे हैं, उनमें से कई शुद्ध-शुद्ध अपराध कर रहे हैं; और इन पर निगरानी रखने की कोई संस्था नहीं। फिरौती, डकैती, वसूली सब पत्रकारिता के धंधे हो गये हैं; और पत्रकारों की जो पौध आ रही है, उसे भी नौकरी के नाम पर इस काम में उतार दिया जा रहा है। नौकरी चाहिए, तो यह सब करने के सिवा उनके पास और कोई चारा नहीं है। और ऐसे ही ह्यसिद्धह्ण लोग बड़े पैसेवाले और प्रभाव वाले बनकर घूम रहे हैं; तो, तो मानक का असल संकट तो खड़ा है। और सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो वसूली और बेईमानी, लूट और डकैती ही मानक बनने जा रहे हैं। श्री एन.के. सिंह जी ने बहुत सही वक्त पर आवाज उठायी है। लेकिन करना क्या चाहिए, इस पर बाद में। पहले श्री बी.जी. वर्गीज की बात –

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श्री बीजी वर्गीज हमारे समय के प्रखरतम पत्रकारों में से एक रहे हैं। बहुत ही निष्ठावान, और बहुत ही चरित्रवान। बहुत ही सजग और तत्पर। बहुत ही विनम्र। पूरे तौर पर सिद्धांतवादी। वे कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पढ़कर आये थे, और टाइम्स ऑफ इंडिया से पत्रकारिता की शुरुआत की। 1966-69 तक वे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सूचना सलाहकार रहे। 1969 में वे हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक बने, और आपातकाल लगने तक उसके संपादक रहे। आपातकाल का बहुत सारे पत्रकारों ने विरोध किया था। नई दुनिया जैसे अखबारों ने संपादकीय खाली छोड़ दिया था। श्रीमती इंदिरा गांधी से रिश्तों के बावजूद श्री वर्गीज ने आपातकाल का खुलकर विरोध किया। नौकरी भी छोड़नी पड़ी। लेकिन वे झुके नहीं। विरोध को आगे बढ़ाते हुए 1977 में उन्होंने लोकसभा चुनाव तक लड़ा। नागरिक अधिकारों के वे प्रखर प्रवक्ता थे, और विकास की पत्रकारिता करने में उनकी लगन थी। ऐसे ही उत्कृष्ट लेखन और सिद्धांतप्रियता के लिए उन्हें 1975 में रमन मैगसेसे सम्मान मिला। 1982-86 तक वे इंडियन एक्सप्रेस में भी संपादक रहे। बाद के दिनों में वे सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च से जुड़े रहे। एडिटर्स गिल्ड के सदस्य के रूप में उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों की भी जांच की।

डेवलपमेंट ईशूज पर उन्होंने खूब लिखा। वॉटर्स ऑफ होप (1990), विनिंग द फ्यूचर (1994) में उन्होंने हिमालय क्षेत्र में पानी की व्यवस्था के बारे में लिखा। नार्थ ईस्ट को लेकर भी उनकी किताब ह्यइंडियाज नॉर्थ इस्ट रिसर्जेंटह्ण खूब चर्चित रही। 2010 में उनकी जीवनी भी आयी – ह्यफर्स्ट ड्रॉफ्ट : विटनेस टू मेकिंग ऑफ मार्डन इंडियाह्ण। उनकी यह जीवनी अद्भुत है। इसमें उन्होंने इंदिरा जी के और राजीव गांधी के जमाने में लोकतांत्रिक संस्थाओं को जो नुकसान पहुंचा उसके बारे में बहुत विस्तार से लिखा है। नागरिक अधिकारों के वे इतने प्रबल समर्थक थे, कि उनकी जरा भी अवमानना बर्दाश्त नहीं कर पाते थे।

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श्री बीजी वर्गीज से मेरा परिचय श्री प्रभाष जोशी के कारण हुआ। प्रभाष जी जनसत्ता के संपादक। और पत्रकारिता के मूल्यों के प्रति निरंतर सजग रहने वाले। अभियान चलाने और कुर्बानी देने दोनों के लिए तैयार रहने वाले। उनकी श्री वर्गीज से खूब निकटता थी। बरसों से पत्रकारिता में दो भारी खलल चलते रहे हैं। एक तो, सरकारों की मंशा मीडिया पर कब्जा करने की रहती है। इसके लिए तरह-तरह के हथकंडे भी अपनाये जाते हैं। पीवी नरसिम्हाराव सरकार के आखिरी दिनों में कुछ मंत्री यत्र-तत्र मीडिया पर दबाव बनाने में लगे थे। तब तक संपादकों के बदले विज्ञापनकर्मियों को महत्व देने के परिणाम भी उभर आये थे। संपादकीय संस्थान जगह-जगह दरकिनार हो रहे थे।

दूसरे, मीडिया पर कब्जा करने की भाजपा की मंशा बहुत पुरानी रही है। जनता सरकार में श्री लालकृष्ण आडवाणी सूचना और प्रसारण मंत्री बने तब पार्टी कार्यकर्ताओं को जगह-जगह घुसाने की कोशिशें हुईं। इसके बाद यह काम पूरे योजनाबद्ध ढंग से होने लगा। जहां भी जैसे भी मौका मिले, कार्यकर्ता घुसाओ। ये कार्यकर्ता आम तौर पर तो पत्रकार बने रहते, लेकिन जरूरत के वक्त पार्टी कार्यकर्ता हो जाते। 94-95 तक उन्होंने पूरी मीडिया को घेर लिया। तब अखबार निकालने की ताकत उनके लोगों में नहीं थी। बाद में ताकत आयी तो अब तो प्रतिष्ठान के प्रतिष्ठान उनके लोगों के मालिकाने के हैं। सेंध लगाने से लेकर पत्रकारिता हथियाने तक की यह कहानी बहुत विस्तार से लिखने की मांग करती है। उसका विवरण फिर कभी।

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1995-96 में जनसत्ता के कई लोगों को लगा कि इन मुद्दों पर बोलना जरूरी है। प्रभाष जोशी की प्रेरणा बनी हुई थी। हमने कांस्टीट्यूशन क्लब के मावलंकर सभागार में इस विषय पर विचार करने के लिए सभा बुलायी। हाल खचाखच भरा। प्रभाष जी थे ही, मृणाल पांडे, कुलदीप नैय्यर, बीजी वर्गीज, जसवंत सिंह यादव, न्यायमूर्ति सावंत – दिल्ली का कोई सुधी पत्रकार ऐसा नहीं था, जो नहीं आया, और जिसने साथ चलने का संकल्प नहीं लिया। संयोजन का जिम्मा मेरे ऊपर आया। अभियान का नाम बना – पत्रकारिता को पुनर्जीवित करने का अभियान। अभियान लोगों से अपील करता कि मीडिया पर आंख मूंदकर भरोसा मत कीजिए। सूचनाएं प्रदूषित हो गयी हैं। उन्हें जान-समझ कर ग्रहण कीजिए। मुंबई में कार्यक्रम हुआ। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालयों के छात्र संघ ने अभियान में शिरकत की। बीएचयू में तो सात घंटे तक बैठक चलती रही। कुलपति महोदय ने कहा कि 17 साल बाद मालवीय सभागार में ऐसी कोई सभा हुई है। यही हाल इलाहाबाद के छात्र संघ भवन का था। भोपाल, जयपुर, लखनऊ – हर जगह अभियान को समर्थन मिला। अनेक जगहों पर चर्चा हुई कि देश में अपने किस्म का यह अलग आंदोलन खड़ा हो रहा है।

बाद में हम लोग ही कुछ अनमने हुए और आंदोलन रुका। लेकिन उस वक्त उसने अनेक कारगुजारियों को रोका,और इस संभावना को ख़ड़ा किया कि मीडिया के लोग संगठित होकर मूल्यों और मानकों के मुद्दे पर आम जनता को भी सहभागी बना सकते हैं। श्री बीजी वर्गीज को उस दौर में ही थोड़ा जाना। एक-एक समस्या को ठीक से समझने वाले। एक-एक घटना के परिणाम को ठीक से समझने वाले। हमारे समय के एक अच्छे ऋषि। वे नहीं रहे, उन्हें बहुत-बहुत नमन।

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आगे की बात के पहले एक बार फिर श्री प्रभाष जोशी की बात। सूचना का अधिकार दिलाने में उनकी और जनसत्ता की बड़ी भूमिका रही है। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद वे अकेले पत्रकार रहे, जिन्होंने बिना रुके लगातार संघ और उसकी मंशा का विरोध किया। इसी तरह विदेशी निवेश और विदेशी मालिकाने के सवाल पर भी वे कभी नहीं झुके। डंकल ड्राफ्ट के खिलाफ श्री रामबहादुर राय के साथ मैंने, इरा झा और अनंत मित्तल ने राष्ट्रपति तक जाकर जो प्रतिरोध दर्ज करवाया, उसमें दिल्ली से 900 से ज्यादा पत्रकारों की आवाज थी। सुबह गिरफ्तारी के समय हम 25-30 लोग ही इकट्ठा हुए। राय साहब कहते रहे- हम और आप हैं न । आंदोलन पूरा मानिए। वहीं शाम को सैकड़ों लोग जुटे। पेड न्यूज के खिलाफ श्री प्रभाष जोशी अंत तक लड़ते रहे। यह अफसोस है कि उनकी बात जनसत्ता के हम लोगों ने ही जल्द बिसार दिया। उनकी पुण्यतिथि पर या उनके जन्मदिन पर इन बातों की हम लोग भले चर्चा करते हों, लेकिन हकीकत यह है कि व्यवहार में कुछ नहीं करते।

जानने की बात है कि श्री एन.के. सिंह श्री प्रभाष जोशी के सबसे प्रिय लोगों में से एक हैं। वे पत्रकारों के अधिकारों के लिए भी निरंतर लड़ते रहे हैं। उन्होंने, श्री शलभ भदौरिया ने मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के पत्रकारों के हित की कई जानी-मानी लड़ाइयां लड़ी हैं। उनके चलते कई संस्थानों में पत्रकारों और पत्रकारिता के हित की बातें हुई हैं। श्री शलभ भदौरिया का संगठन मप्र श्रमजीवी पत्रकार संघ मध्यभारत में सर्वत्र फैला हुआ है। वह एक बड़ी ताकत है। उसी तरह पत्रकारिता के क्षेत्र में श्री एन.के. सिंह की साख और विश्ववसनीयता बड़ी और मानी हुई है।

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पत्रकारिता में आज जो जंगल राज हो गया है, एक बहुत विश्वसनीय आवाज ही वॉर्निंग सिग्नल का काम कर सकती है। श्री एन के सिंह बहुत सहज रूप से वैसी ही एक धुरी बन सकते हैं, जैसे कि श्री प्रभाष जोशी थे। मेरे जैसे अनेक पत्रकार उनके पीछे चलने में गौरव महसूस करेंगे। और पत्रकारिता की भी यह सच्ची सेवा होगी। जैसे पत्रकारिता श्री प्रभाष जोशी से अपेक्षा करती थी,वैसे ही पत्रकारिता श्री एन.के. सिंह जी से भी अपने मूल्यों और मानकों को सुरक्षित रखने के काम को आगे बढ़ाने की अपेक्षा करती है।

कृपया इस निमंत्रण को स्वीकार करें। देश में एक मंच तो हो, जहां से पत्रकारिता की यथास्थिति पर बात तो हो। जो कुछ हो रहा है, अवाम भी उसे जानता चले। ऐसा न हुआ तो होगा खबरों को बेचने का धंधा; लेकिन फिरौती, छिनैती,लूट और डकैती ही मानक न बन जाएं, इसकी जद्दोजहद तो हमें करनी होगी। अंकुश लगानेवाली संस्थाओं को भी निगहबानी पर लगाया जा सके तो प्राथमिक काम हो जायेगा। होगा उसी तरीके से, श्री राम बहादुर राय के हवाले से जिसका मैंने उल्लेख किया –

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हम दो हैं, तीन हैं, पांच हैं, सात हैं, दस हैं – हम हैं, यही दुनिया को दस्तूर पर लाने के लिए काफी होगा। वाणी मिथ्या नहीं जाती। यदि विश्वास से बोली गई हो तो। डंकल ड्रॉफ्ट के मौके पर तत्कालीन राष्ट्रपति श्री शंकर दयाल शर्मा ने प्रधानमंत्री को लिखा – दिल्ली के एक हजार पत्रकार बोल रहे हैं। इनकी चिंताएं हैं। सरकार सारे मामले पर फिर एक बार विचार करे। – इसके पहले राय साहब और मैंने बात रखी। राष्ट्रपति महोदय ने केवल एक शब्द पूछा – आप दोनों लोग कहां के हैं। बताया, राय साहब गाजीपुर के। मैं आजमगढ़ का। जाने के लिए उठ खड़े हुए राष्ट्रपति बैठ गए। उनकी आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने कहा- ओह, आपके इलाके ने आजादी की लड़ाई के लिए बहुत संघर्ष किया है। उस इलाके के लोगों का दर्द मैं समझता हूं। उनकी चिंताएं कभी वृथा नहीं हो सकतीं।

और मावलंकर सभागार में श्री कुलदीप नैयर बोल कर आए थे कि केवल पांच मिनट रुकेंगे। फिर आए तो पूरे समय बैठे। बोले, भरोसा नहीं था कि सारी बिरादरी यहां बैठी होगी, इसलिए जल्दी जाने को बोला था।

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मान्यवरो! निवेदन सुनें, अभ्यर्थना सुनें।

मीडिया को पुनर्जीवित करने के अभियान की खासियतें थीं –

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-जनसता, इंडियन एक्सप्रेस और फाइनेंसियल एक्सप्रेस के साथियों के 100-100 रुपये के चंदे से ही कार्यक्रमों की शुरुआती व्यवस्था हो जाती थी।

-कार्यक्रम के सभागार के बाहर चद्दर बिछा दी जाती थी, और हर कोई कुछ न कुछ आर्थिक योगदान देता ही था।

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-विश्वविद्यालय छात्र संगठन और समाजसेवी संस्थाएं खुद आगे बढ़कर साथ खड़ी होती थीं।

-कोई कार्यक्रम ऐसा नहीं हुआ, जिसमें उस शहर के तमाम बुद्धिजीवियों, समासेवियों, साहित्यकारों और सुधी लोगों ने शिरकत न की हो।

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-कोई कार्यक्रम ऐसा नहीं हुआ, जिसमें उस शहर के सारे के सारे सुधी पत्रकार न आएं हों और उन्होंने मंच की बात लोगों तक न पहुंचायी हो।

लेखक ओम प्रकाश सिंह एब्सल्यूट इंडिया अखबार, मुंबई के संपादक हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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