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सुख-दुख

बड़े साहब और उनका कुत्ता!

बड़े साहब थे। उनका एक पालतू कुत्ता था। साहब कड़क थे। कुत्ता नम्र था। साहब काम से काम रखते थे। कुत्ता इधर उधर भी देख लेता था। साहब किसी को भाव नहीं देते थे। कुत्ता इस काम मेँ मास्टर था। साहब के मातहतों को इसकी जानकारी हो गई। उन्होने साहब के घर आना जाना शुरू किया। कुत्ते के लाड होने लगे। कुत्ता और अधिक कुत्ता हो गया। साहब और अधिक साहब होने लगे। कभी कभी तो साहब और कुत्ता दोनों उलटा सोचने लगते। कुत्ता ये सोच लेता कि असली साहब वही है….साहब का क्या, कुछ भी सोच सकते हैं। तो जनाब हुआ यूं कि इस लाड प्यार की वजह से कुत्ते को नजर लग गई। बीमार हो गया।

मातहत कुत्तों के डाक्टरों के अतिरिक्त दूसरे डाक्टरों को भी लाने लगे। साहब का जी खराब और कुत्ते का जिगर। बड़े जतन किए गए। साहब दुखी थे। आते जाते मातहत नई नई सलाह देते। साहब, ये कर लो! साहब, उस हॉस्पिटल मेँ ले जाओ। कुत्ते की बीमारी और उसकी तीमारदारी की खबर स्थानीय अखबारों के पहले पन्ने पर स्थान पाने लगी। कभी कभी तो फोटो के साथ। साहब की भावनाओं के जिक्र से सराबोर। किन्तु होनी को कोन टाल सकता था। एक मनहूस दिन कुत्ते को निधन हो गया। [साहब का कुत्ता था। वह मरता नहीं उसका निधन होता है] साहब के बंगले पर शोक व्यक्त करने वालों की भीड़ लग गई। मीडिया ने इस निधन की खबर को काले बार्डर के साथ मार्मिक शब्दों मेँ प्रकाशित किया।

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अनेक मातहतों ने शोक के विज्ञापन दिये। अनेकों को देने पड़े। ऑफ दी रिकॉर्ड शोक की घोषणा हुई, अर्थात सरकारी छुट्टी। कितने ही मातहत कर्मचारी, अधिकारी और शहर के जाने माने लोग साहब के सामने कुत्ते की डैडबॉडी से लिपट कर दहाड़े मार मार कर रोये। जिनको इस प्रकार से रोना नहीं आया, वे अंदर ही अंदर खुद को कोसते महसूस हुए। कई तो रोते रोते बेसुद्ध जैसे हो गए। बंगले पर इतनी भीड़ देख, साहब क्या करते! चेहरे पर दुख ना दिखाएं तो फिर कुत्ता काहे का पालतू कहलाता। इसलिए वे गमगीन से हो गए। मातहतों ने खुद ही मीटिंग बुला ली, कुत्ते के संस्कार की तैयारी के लिए। उसमें अनेक गणमान्य नागरिकों, कारोबारियों और 2,3, 4 नंबर का काम करने वालों ने इस शर्त पर संस्कार को भव्य बनाने मेँ खर्चा करने की हामी भरी कि इसकी जानकारी साहब को दी जाएगी।

शान से कुत्ते की अर्थी निकाली गई। शहर भर मेँ यह यात्रा होती हुई फिर से बंगले पर आई और बंगले के लॉन के एक कोने मेँ उसको पूरे सम्मान के साथ दफना दिया गया। कुत्ते की अंतिम यात्रा के बहाने कुछ लोगों को साहब के साथ साथ रहने का गौरव प्राप्त हो गया। रास्ते मेँ फूलों की बरसात तो होनी ही थी। मीडिया ने खूब कवरेज किया। अगले दिन सभी अखबारों मेँ तीये की बैठक वाली सूचना प्रकाशित हुई भी और साहब से फायदा उठाने की सोच रहे, चालाक लोगों ने भी छपवाई। इसमें मीडिया का ओबलीगेशन भी था। साहब के कुत्ते के निधन की मीडिया मेँ हुई कवरेज के कारण लोगों का तांता साहब के बंगले पर लगा रहता। आने वालों के चाय-काफी का इंतजाम भी विभागीय खाते मेँ हो रहा था। चतुर, कुटिल, अवसरवाद को समझने वाले नागरिकों, अधिकारियों, कर्मचारियों ने उस स्थान पर, जहां कुत्ता दफन किया गया था, फूल चढ़ाने शुरू कर दिये।

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तीये की बैठक से पहले बंगले के पास फूलों का ठेला लग चुका था। आज तीये की बैठक थी। बैठक मेँ मंच पर कुत्ते की फोटो थी, जिस पर महकते गुलाबों की माला थी। पास मेँ ही बड़ी टोकरी फूलों से भरी रखी थी। साहब आ चुके थे। शोक प्रकट करने वाले आ रहे थे। इस बीच किसी ने मंच लगा दिवंगत आत्मा [कुत्ते] को शब्दों मेँ श्रद्धासूमन अर्पित कर दिये। फिर क्या था, स्वघोषित मंच संचालक आ गया। नाम लिए जाने लगे। एक आया, उफ! आज तो मेरे शोक की कोई सीमा नहीं है। जब भी साहब के बंगले पर जाता, आगे के शब्द गले मेँ अटक गए, कुत्ते को कुत्ता कहना शोभाजनक नहीं होता, नाम वह जानता नहीं था, वह मूक प्राणी मुझसे यूं लिपट जाता जैसे मेरा भाई हो। आज मैं खुद को अकेला महसूस कर रहा हूँ। दूसरा पहले वाले से तेज था, बोला, साहब जी जानते हैं, मुझे देख उनका हीरा ऐसे पूंछ हिलाता था कि मुझे मेरे बच्चों की याद आ जाती।

साहब जी, अपने प्रिय के जाने का गम ना करें, वे मेरे बेटे को अपना हीरा समझ सकते हैं। तीसरा कौनसा कम था, उसके शब्द यूं आए, आज इस शोक की गहरी घड़ी मेँ मुझसे शब्द नहीं निकल रहे। उनके जाने से यूं अहसास हो रहा है, जैसे प्राण चले गए हो। यह कह वह फफक फफक के रोने लगा….उसके जानने वालों ने गर्दन नीची कर कॉमेंट पास किया, साला नोटंकी…..कॉमेंट बोलने वाले तक नहीं पहुंचा, वह रोते रोते बोला, काश मैं भी उनके साथ साथ चला जाता। वह और भी बोलता इससे पहले ही किसी ने उसकी शर्ट खींची। उसने शर्त खींचने वाले की ओर तरफ देखा तो उसे लगा कि साहब उसे देख रहे हैं….वह आँख पर हाथ फेरता हुआ बैठ गया।

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साहब और साहब के कुत्ते की चापलूसी का क्रम कई देर तक जारी रहा। ऐसा लग रहा था जैसे चापलूसी की कोई प्रतिस्पर्धा हो रही हो। हर वक्ता खुद को बड़ा कुत्ता भक्त, कुत्ता प्रेमी और कुत्ते का सबसे निकट का सगा साबित करने की कोशिश मेँ लगा था। एक दो वक्ताओं ने दिवंगत कुत्ते के नाम पर रोड का नाम रखने की मांग की। उसकी याद मेँ साहब के बंगले पर स्मारक निर्माण की बात छेड़ उसके लिए फंड की घोषणा भी कर दी। मीडिया वाले अपने काम मेँ थे। फोटो ले रहे थे। वक्ताओं के शब्द नोट भी कर रहे थे। साहब के फोटो खींचे गए। बहुत सारे व्यक्ति खुद के फोटोग्राफर साथ लेकर आए। साहब को शोक संदेश देते वक्त और कुत्ते की चित्र पर पुष्प अर्पित करते हुए के फोटो खिचवाए।

जो फोटोग्राफर नहीं लाये थे, उन्होंने मीडिया से जुड़े फोटो ग्राफ़रों को मैनेज किया। दूसरों के लाये फोटोग्राफरों को इशारे किए। किसी अच्छे से अच्छे इंसान के मरने पर तीये की बैठक या अंतिम अरदास घंटे से अधिक नहीं हुई थी शहर मेँ। लेकिन साहब के कुत्ते की तीये वाली बैठक कई घंटे तक चली। बैठक की समाप्ती के बाद उनके पर्सनल स्टाफ ने साहब को गेट के पास हाथ जोड़ के खड़ा कर दिया गया। एक एक व्यक्ति साहब से मिल कर गया। कई तो जबर्दस्ती गले लग के रोये भी। बैठक फाइनली समाप्त। साहब को उनकी गाड़ी बंगले ले आई। कुछ गाडियाँ साहब के पीछे पीछे घर तक। साहब बंगले के अंदर गए। अंदर सब नॉर्मल।

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शाम तक जब साहब बाहर नहीं आए तो जो लोग साहब के पीछे पीछे आए थे, धीरे धीरे लौट गए। शाम हुई। रात आई। साहब सोचते रहे कि कहीं अपने ही कुत्ते को पहचानने मेँ भूल तो नहीं हो गई थी। सोचते सोचते इतना सोच गए कि वे अवसाद मेँ चले गए। रात को उनकी हालत खराब हो गई। कोमा मेँ जा पहुंचे। उनको हॉस्पिटल मेँ भर्ती करवा दिया गया। सुबह के अखबार तीये की बैठक वाले समाचारों से लबरेज थे। लोग बाग अखबार ले उनके बंगले पहुंचे।

कई अखबार वाले भी अपने अपने एडिशन लेकर आ चुके थे। हर कोई उनको कवरेज दिखाना और पढ़ना चाहता था। परंतु बंगले पर उनको मालूम हुआ कि साहब तो हॉस्पिटल मेँ हैं। वे उधर हो लिए। वहां पहुंचे तो जानकारी मिली कि डाकटर ‘साहब इज नो मोर’ बोल के उनका मुंह ढक चुके हैं। जो साहब को अखबार दिखाने, उनको मिलने हॉस्पिटल पहुंचे थे, वे कुछ देर बाद नजर नहीं आए । साहब की डैडबॉडी घर लाई गई। किन्तु पर्सनल स्टाफ और बंगले के नौकरों के अतिरिक्त कोई बंगले पर नहीं आया । परिवार वाले गहरे सदमे मेँ। वे एक दूसरे की मुंह की तरफ देखें, जिस साहब के कुत्ते के मरने पर पूरा शहर उमड़ा था, आज उसी साहब के मरने पर कोई नहीं। लेकिन उनको शोक और गम मेँ इस बात का अहसास नहीं हुआ कि कुत्ते के मरने पर तो वे सब लोग साहब को मुंह दिखाने आए थे, जब साहब ही नहीं रहे तो किसको मुंह दिखाने आवें! फिर साहब ही नहीं रहे तो काम किस से पड़ेगा, इसलिए किसने आना था।

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परिवार वालों ने जैसे तैसे पर्सनल स्टाफ की मदद से अंबुलेंस की और डैडबॉडी को ले अपने पैतृक शहर रवाना हो गए। अगले दिन मीडिया मेँ सिंगल कॉलम की खबर थी कि ब्रेन हमरेज से साहब की मौत। एक दो ने यूं लिखा, कुत्ते के गम मेँ साहब की मौत। कई रोज गुजरे सरकार ने नया साहब लगा दिया। मीडिया मेँ आने वाले साहब की चर्चा होने लगी। कई दिन बाद साहब आए। चार्ज लिया। बंगले मेँ अपनी पसंद का रंग रोगन करवाया। जहां पुराने साहब के कुत्ते को दफनाया गया था, उस स्थान पर एसी रूम बनवाया। नए साहब का सामान आया तो उसमें साहब का कुत्ता भी था। जिसे वह एसी रूम दिया गया। स्वाभाविक तौर पर पर्सनल स्टाफ ने शहर के गणमान्य नागरिकों को साहब की जानकारी तो दी साथ मेँ उनके लाडले कुत्ते के बारे मेँ भी बता दिया। परंतु इस बार लोग थोड़ा सचेत थे। आ आ कर मिले।

लेकिन कई दिनों बाद तक भी ये तय नहीं कर पा रहे थे कि कुत्तई मेँ कौन बड़ा है! क्योंकि साहब और कुत्ते, दोनों के मुंह से लार टपकती थी। कुत्ता भौंकता था, साहब गुर्राते थे। दोनों की आवाज मेँ कोई अधिक फर्क नहीं था। जब लोग समझते समझते समझे तो फिर दोनों के लिए रोटी और बोटी का प्रबंध होने लगा। साहब और उनके कुत्ते की आवाज मेँ बदलाव आ गया। दोनों मौज मेँ थे। उनके साथ और भी बहुत सारे। शहर वैसे का वैसे।

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इस कहानी के लेखक वरिष्ठ पत्रकार गोविंद गोयल हैं जो राजस्थान के श्रीगंगानगर जिले के निवासी हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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