राष्ट्रीय सहारा देहरादून से पांच स्थायी कर्मचारी सहित नौ लोग हटा दिये गए, कोई हलचल नहीं हुई
देहरादून : केन्द्र सरकार अखबारों में काम करने वाले कर्मचारियों के लिए वेतन आयोग का गठन करती है। अब तक पांच आयोग गठित हो चुके हैं लेकिन विश्व के सर्वाधिक पढा जाने वाला या अपने कर्मचारी को परिवार का सदस्य बताने वाले अखबार राष्ट्रीय सहारा ने एक भी आयोग की रिपोर्ट नहीं लागू की। पत्रकारों की दुर्दशा के लिए अखबार ही नहीं कर्मचारी भी दोषी हैं। याद करिये गुडगांव के हीरो होंडा की हड़ताल। शायद आधा दर्जन से भी कम कर्मचारी हटाए गए और कर्मचारियों ने बवाल कर दिया। वहीं राष्ट्रीय सहारा की देहरादून जैसी छोटी सी यूनिट से पांच स्थायी कर्मचारी सहित नौ लोग हटा दिये गए कोई हलचल ही नहीं हुई।
हम डरे हुए हैं। हम कायर हैं। बताते चलें कि मात्र सात संस्करण वाले इस अखबार ने तीन चार महीने के भीतर 60 साल से ऊपर वाले लगभग 82 लोगों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जबकि इसके मुखिया उपेंद्र राय ने अपने पहले कार्यकाल में मीडिया में सेवानिवृत्त की आयु 60 से बढाकर 65 की थी। मजे की बात यह है कि वित्तीय संकट से जूझ रहे सहारा मीडिया एक तरफ “सेल्फ या सेफ एक्जिट प्लान” के बहाने अपने उस कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा रहा है जिसे परिवार का सदस्य बताता आ रहा है। दूसरी तरफ मुंबई से नया संस्करण शुरू करने की घोषणा कर दी। ध्यान रहे कि कोई भी प्लान हमेशा सामान्य से बेहतर होता है। स्टेट बैंक भी वीआर एस लेकर आया था जो कि सामान्य से बेहतर था। सहारा ऐक्जिट प्लान के तहत क्या दे रहा है सिर्फ बकाया वेतन, फंड और ग्रेच्युटी। इसे कहते हैं कद्दू में तीर मारना। सहारा प्रबंधन अपने कर्मचारियों को देने का सब्जबाग दिखा रहा है वह तो देना ही है तो इसमें एहसान कैसा?
मीडियाकर्मियों के मजीठिया वेतन आयोग की रिपोर्ट सदन में रखी गई और पास होकर अधिनियम का रूप लिया। मालिकानों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया लेकिन हर बार मुंह की खाई। साम, दाम, दंड, भेद सभी रास्ते अपनाये। अखबारी भाषा में कहें तो सारे घोडे खोल दिये लेकिन हाथ कुछ नहीं लगा। एक कहावत है कि बिल्ली दूध नहीं पाती तो शिकहर गिराने का प्रयास करती है। इधर कुछ महीनों से अखबार के मालिकान यही कर रहे हैं। वे कर्मचारियों को प्रताड़ित कर रहे हैं, निलंबित कर रहे हैं नौकरी से निकाल रहे हैं या तबादला कर रहे हैं। मुझे भी सहारा ने 24 साल के कन्फर्मेशन के बाद निकाल दिया। न कोई आरोप लगाया और न ही जांच करायी/ स्पष्टीकरण मांगा। बीमारी की हालत में घर आकर टर्मिनेशन लेटर दिया। यहां यह भी बता दूं कि इससे पहले कुछ लोगों से इस्तीफा लिखवाया और उन्होंने लिख भी दिया जिसकी मैंने निंदा की।
अब सवाल यह उठता है कि इस्तीफा लिखने वालों की निंदा करने के बाद मैंने लेटर क्यों लिया। मैंने वकील की सलाह पर पत्र लिया और अब कोर्ट जा रहा हूं। मैं अवमानना के मामले में पहले से सुप्रीम कोर्ट में हूं। मेरे रिटायर होने में मात्र तीन साल बाकी है। मेरे पास खोने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है। कहने का मतलब यह कि अपने लिए न सही पत्रकारों की आगे आने वाली पीढी के लिए अपनी बेहतरी की लडाई में शामिल हों। क्या आप नहीं चाहते कि आपका वेतन बेहतर हो? अच्छी सेवा शर्तो पर काम करें? सेवा समाप्ति के बाद भविष्य अच्छा हो?
साथियों अब मौका है अपनी बेहतरी की लडाई में शामिल होने का। अगर आप ईश्वर को मानते हैं तो मानिये कि भगवान के घर देर है लेकिन अंधेर नहीं। अगर नहीं मानते हैं तो यह मानिये कि “सत्यमेव जयते”। मजीठिया वेज बोर्ड को लेकर लेबर कोर्ट समेत किसी भी कोर्ट में जाइए और दावा लगाइए।
अरुण श्रीवास्तव
वरिष्ठ पत्रकार
देहरादून
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