कृष्ण पाल सिंह-
लोकसभा के चुनावी युद्ध का घमासान चरम पर पहुंच रहा है। प्रतिस्पर्धी दल एक दूसरे को सनसनीखेज आरोप लगाकर घेरने में लगे हैं। यहां तक कि उच्च पदों पर आसीन महानुभाव भी इसमें पीछे नहीं हैं। उन्हें यह भी भय नहीं है कि अति उत्साह से वे अपने पद की मर्यादा तार-तार करने के कलंक के भागी बन रहे हैं। पुराने समय की बर्बर लड़ाईयों में युद्ध और प्रेम में सब कुछ जायज होता होगा लेकिन लोकतंत्र इसकी अनुमति नहीं देता। चुनावी युद्ध के मौके पर भी लोकतंत्र नेताओं से संतुलित बने रहने की अपेक्षा करता है। ऐसा न होता तो चुनाव प्रचार के लिए आचार संहिता की लक्ष्मण रेखा न खींची जाती और इसे लांघने पर संबंधित के खिलाफ कार्रवाई का अधिकार चुनाव आयोग को न सौंपा जाता।
लोकतंत्र व्यवस्था को जड़ता का शिकार न होने देने वाली पद्धति है। हर व्यवस्था में कुछ समय बाद निहित स्वार्थों के हावी होने की गुंजाइश होती है। इसलिए लोकतंत्र नियमित अंतराल में चुनाव के समय यथा स्थिति के खिलाफ हुंकार का माहौल बनाने की प्रक्रिया का दूसरा नाम बन जाता है जिससे व्यवस्था का निरंतर परिष्कार होता रहे। लोकतंत्र समाज के वंचित, शोषित बहुजन के कल्याण के लिए सत्ता को प्रेरित रखने वाली अभी तक उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ पद्धति के रूप में मान्य हुआ है इसलिए लोकतंत्र को बेपटरी न होने देना इसमें भाग लेने वाले खिलाड़ियों की अनिवार्य जिम्मेदारी है और अवाम को इसे लेकर उनकी पैनी निगरानी करनी चाहिए।
कुछ दिनों से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेस के घोषणा पत्र में निहित इरादों को लेकर जिस तरह अर्धसत्य पर आधारित हमलों की मुहिम छेड़ रखी है उसे चुनाव अभियान के निम्न स्तर की पराकाष्ठा कहा जाये तो अतिरंजना न होगी। खासतौर से प्रधानमंत्री ने आर्थिक न्याय को लेकर इन हमलों में जाने अनजाने में अत्यंत गलत संदेश समाज में व्याप्त करने की कोशिश की है। न्याय की अवधारणा तब अस्तित्व में आती है जब किसी व्यक्ति या वर्ग के जायज अधिकारों को कोई दूसरा हड़प लेता है। कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे में न्याय तभी संभव है जब अन्याय करने वालों पर कार्यवाही का साहस दिखाने के लिए व्यवस्था के कर्ताधर्ता तत्पर हो सकें। आर्थिक संसार के आंकड़े बता रहे हैं कि देश की लगभग पूरी संपत्ति पर चंद लोग कब्जा कर चुके हैं। रूसो कहता था कि हर धन संचय के पीछे अपराध अवश्य होता है। पूंजी और अन्य परिसंपत्तियों का जबरदस्त केन्द्रीयकरण व्यवस्था के कर्ताधर्ताओं की अक्षमता को सिद्ध करता है जो एक ओर तो थोड़े से व्यक्तियों और वर्गों के बेलगाम मुनाफा बटोरने के उपक्रम को नियंत्रित करने में लाचार रहते हैं। दूसरी ओर आम लोगों को उनकी मेहनत और प्रतिभा के मुताबिक मेहनताना दिलाने में असहाय हो जाते हैं।
इस स्थिति को कैसे बदला जाये सरकार किसी भी पार्टी की आये उसके सामने यह बड़ी चुनौती रहती है। जब यूपीए की सरकार थी उस समय भी पूंजी और अन्य संसाधनों के केन्द्रीयकरण का खेल जारी था और आम लोगों में गरीबी प्रचंड रूप धारण कर रही थी। यूपीए की सरकार इस स्थिति को बदलने के लिए उठ खड़ी होने के बजाय यथा स्थितिवादी रूख अपनाये हुए थी। ऐसे में मोदी विकल्प का दावा लेकर सामने आये। उन्होंने कहा कि सरकार में आने का मौका मिलने पर विदेशी बैंकों में जमा भ्रष्ट तत्वों के काले धन को जब्त करके वे लोगों में बांटेंगे ताकि गरीबी को खत्म किया जा सके। लोग इससे प्रभावित हुए और उन्होंने नया जनादेश देकर मोदी को सत्तारूढ़ कर दिया। इसके बाद मोदी ने ऐसा किया या नहीं यह अलग विषय है लेकिन यह नहीं हो सकता कि मोदी जब बड़े लोगों का धन जब्त करने और उसे गरीबों में बांटने की बात कहें तो पुण्य है और कांग्रेस यही बात अब कहे तो पाप है।
इससे झूठ कोई बात नहीं हो सकती कि कोई पार्टी लोकतंत्र जैसी व्यवस्था में यह घोषणा करने की मूर्खता करे कि वह अमीर गरीब सभी की संपत्ति जब्त करने पर निकल पड़ेगी। कोई पार्टी ऐसा वायदा करती है तो उसका आशय यह होता है कि जिन लोगों ने गलत तरीके से संपत्ति जमा की है उनकी संपत्तियों को वापस लेने का अभियान वह चलायेगी ताकि वंचितों के जीवन को खुशहाल बनाया जा सके। पर प्रधानमंत्री मोदी तो आजकल ऐसे लोगों को अभयदान देने में लगे हुए हैं। दूसरे शब्दों में उन्होंने गरीबी के मुख्य कारण से मुंह मोड़कर गरीबों को अपने हाल पर छोड़ने का मन बना लिया है।
उच्चतम न्यायालय के सामने भी ऐसी याचिकायें पेश हो चुकी हैं जिनमें लोगों के आर्थिक सर्वे की मांग की गई और न्याय के तकाजे के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने समय-समय पर ऐसी मांगों से सहमति जताई है। राजनीति में भी आर्थिक न्याय के इस पहलू को नैतिक समर्थन मिलता रहा है जो काले धन पर श्वेत पत्र लाने जैसे कदमों से व्यक्त किया गया है। लेकिन भ्रष्ट तरीके से संपत्ति को जमा करने को रोकने के लिए व्यवहारिक कठिनाइयों की वजह से सरकारें इस ओर कदम नहीं बढ़ा सकी हैं। दूसरे सरकारों में इसे लेकर इच्छा शक्ति की भी कमी रहती है क्योंकि सरकारें उन वर्ग शक्तियों के नियंत्रण में रहती हैं जिनके हित काले धन और पूंजी के केन्द्रीयकरण की व्यवस्था से जुड़े होते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी 10 वर्षों से सत्ता में हैं। इस दौरान उन्होंने गरीबों की भलाई के नाम पर जो कहा किया वह फरेब की तरह रहा है क्योंकि एक सच्चे न्यायकर्ता की तरह निहित स्वार्थों से भिड़ने का साहस उनकी सरकार कभी नहीं संजो सकी। सुविधाजनक तरीके से सरकार चलाने का रास्ता निहित स्वार्थों के साथ गठजोड़ करके चलने में छुपा होता है और मोदी की इस मामले में प्रवीणता स्वयं सिद्ध है। लोगों के मोहभंग की नौबत इसके बावजूद नहीं आ रही तो उसके पीछे लोगों को भावनात्मक मुद्दों में उलझाये रखने की पैंतरेबाजी है जिसमें मोदी बहुत माहिर सिद्ध हुए हैं। पर वास्तविक जीवन यथा स्थिति के बने रहने पर अत्यंत नारकीय होता जायेगा जो समूची व्यवस्था में भूचाल पैदा कर देगा। हो सकता है कि प्रधानमंत्री सोचते हों कि जब तक यह होगा तब तक वे अपनी पारी पूरी करके जा चुके होंगे और उस समय जो होंगे वे झेलेंगे और देखेंगे।
स्थिति यह है कि विकास की वर्तमान पद्धति का लाभ चंद सुविधा संपन्न लोगों तक सीमित होता जा रहा है। उदाहरण के तौर पर वंदे भारत जैसी आलीशान ट्रेनें चलाई जा रही हैं जिससे रेल यात्रियों के लिए सफर बहुत आराम दायक और सुहावना बन गया है लेकिन वंदे भारत का जो किराया है क्या आम रेल यात्री उसे वहन कर सकता है। आम रेल यात्री की आमदनी घट रही है और रेल का किराया बढ़ रहा है। कोरोना के समय यात्रियों की कम संख्या रखने के लिए हर यात्री से दुगुना किराया लेने की घोषणा की गई थी लेकिन आज कोरोना समाप्त हो चुका है पर किराया उतना ही बरकरार है। इस तरह की छोटी-छोटी मंहगाई ने आम आदमी का बजट कितना बढ़ा दिया है जबकि उसकी आमदनी घटती जा रही है। सरकारी नौकरियां सिकुड़ चुकी हैं लेकिन निजीकरण में उनके आधे के बराबर भी वेतन, भत्ते व अन्य सुविधाओं की व्यवस्था नहीं है। आउटसोर्सिग में जितने वेतन का प्रावधान किया जाता है उसे न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के किसी भी मानक के अंतर्गत तर्क संगत नहीं ठहराया जा सकता है। ऐसे में लोगों का घरेलू बजट बढ़ेगा तो उनका जीवन निर्वाह कितना दुरूह हो जायेगा जबकि उनके पहले की पीढ़ी सरकारी नौकरी जैसे विकल्प में जो कमाती रही उससे वे अपनी आमदनी में बहुत दूर हैं।
दूसरी ओर विकास समर्पित भले ही भरे पूरे वर्ग के लिए हो लेकिन उसकी कीमत आम आदमी से वसूली जा रही है। भरे पूरे वर्ग के पास टैक्स चोरी की पूरी गुंजाइश रहती है। वह जब एक लाख रूपये के इनकम टैक्स की चोरी कर लेता है तब अपने खाते को दुरस्त करने के लिए एक हजार रूपये इनकम टैक्स देता है। यही हाल जीएसटी का है। बड़े दुकानदार और व्यवसायी आम आदमी से तो खरीददारी करने पर पूरी जीएसटी ऐंठ लेते हैं लेकिन खुद जब विभाग में जमा करने जाते हैं तो सैंकड़ों लूपहोल उन्हें मालूम रहते जिससे कम से कम जीएसटी जमा करके उनका काम चल जाता है। दरअसल भ्रष्ट कमाई में सबसे बड़ा जरिया टैक्स चोरी साबित हो रहा है। टैक्स की मार से अगर कोई अपने आप को नहीं बचा पा रहा तो वह आम आदमी है क्योंकि वह बाजार में जायेगा तो उसे तो टैक्स देना ही पड़ जायेगा। चूंकि टैक्स से होने वाली सरकार की सारी आय आम आदमी के भरोसे है इसलिए टैक्स की मार उस पर लगातार बढ़ती जानी है। फिर भी सरकार को उस पर इतने में भी रहम नहीं है। आम आदमी के बैंक खाते से न जाने कितने तरह के शुल्क की कटौतियों के प्रावधान किये जा रहे हैं जो उससे ज्यादा से ज्यादा वसूली करने के सरकार के इरादे को जाहिर करता है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार का स्वरूप जनकल्याणकारी कहा जाता है जिसकी अभिव्यक्ति जरूरी सेवाओं और सुविधाओं को कम से कम खर्च में लोगों को उपलब्ध कराने की गारंटी के माध्यम से व्यक्त होती है। ऊपर हमने रेल का उदाहरण दिया। लोगों को आवागमन की सुविधा एक मौलिक जरूरत मानी जाती इसलिए सरकार ट्रेनों का किराया कम से कम रखती थी भले ही उसे इसके लिए अनुदान की व्यवस्था करनी पड़े। पर आज तो लोगों की मौलिक जरूरत से लेकर हर तरह की सुविधा देने के मामले में सरकार ने जैसे मुनाफाखोर बनिया की दुकान खोल ली है इसलिए बाजार की दर हर क्षेत्र में हावी दिखायी देती है। आवश्यक सेवाओं में सरकार द्वारा मुनाफे का मापदंड अपनाना अनैतिक है पर इसे माने कौन। रोडवेज बसों में समाज के अंतिम छोर पर खड़े वर्ग के लोग सफर करते हैं लेकिन इन बसों में भी यात्रियों से जीएसटी वसूल की जाना मौजूदा सरकार के कल्याणकारी स्वरूप पर प्रश्न चिन्ह लगाता है।
आर्थिक क्षेत्र में यह उथल पुथल बताती है कि सरकार कंगाल होती जा रही है लेकिन क्यों। इसका कारण साफ है कि सारी पूंजी और संपत्तियां एकाधिकार वादी शक्तियों या भ्रष्ट नौकरशाही और नेताओं में सिमटती जा रही है जिसका एक मात्र हल यह है कि इन लोगों का आर्थिक सर्वे कराकर पर्दाफास किया जाये और जिन्होंने नाजायज तरीके से परिसंपत्तियां जमा की हैं उनकी धन संपदा पर सरकार कब्जा करे ताकि लोगों से अंधाधुंध टैक्स वसूली से बचने का मौका उसे मिल सके। बात कांग्रेस और भाजपा की नहीं है, यह मामला लोगों के हित से जुड़ा है अन्यथा भाजपा और कांग्रेस दोनों का वर्ग चरित्र एक ही है। मोदी चुनावी जरूरतों के लिए कांग्रेस पर लोगों की संपत्ति जब्त करने का इरादा दिखाने का आरोप भले ही लगा रहे हो लेकिन वे जानते हैं कि अगर यह काम उनकी पार्टी नहीं कर सकती तो कांग्रेस पार्टी भी नहीं कर सकती। आज जरूरत क्रांतिकारी चरित्र वाली राजनीतिक शक्तियों की है जो देश में आर्थिक और सामाजिक न्याय को स्थापित करने का साहस दिखा सकें। किसी की भी भ्रष्ट कमाई की गुंजाइश रोक सके और सामाजिक क्षेत्र में धर्म की दुहाई देकर एक बड़े वर्ग के मानवाधिकारों को हड़पने की धांधलगर्दी बंद करा सके।