Connect with us

Hi, what are you looking for?

सुख-दुख

जमे हुए पानी को मथना ही पत्रकारिता है!


शंभूनाथ शुक्ल

एक पत्रकार का असल काम जमे हुए पानी को मथना होता है। मेरी बचपन से ही आकांक्षा खूब लिखने की थी। ख़ासकर समाज के उस वर्ग की पीड़ा, जो दबा-कुचला रह गया, और उसकी पीड़ा को कोई सुर नहीं दे रहा। तब तक पत्रकार बनना मेरा कोई लक्ष्य नहीं था। शादी के बाद के चार वर्ष मैंने बिना नौकरी के गुज़ारे थे, सिर्फ़ लिख-पढ़ कर। मुझे दैनिक जागरण में ऑफ़र मिला और नौकरी कर ली लेकिन वहाँ जनरल डेस्क रास नहीं आई। सिर्फ़ अनुवाद और अनुवाद।

Advertisement. Scroll to continue reading.

संयोग से तब वहाँ के एडिटोरियल हेड हरि नारायण निगम ने एक अभिनव प्रयोग किया, उन्होंने डेस्क के लोगों को हर पंद्रह दिनों में एक ज़िले का दौरा करने और वहाँ से एक्सक्लूसिव स्टोरीज़ लाने को कहा। मुझे क्रमशः एटा, सुल्तान पुर और हमीरपुर ज़िले दिए गए। ये तीनों ही ज़िले ऐसे थे जहाँ के लिए कानपुर से कोई ट्रेन नहीं थी। सिर्फ़ बस ही एक ज़रिया थी। तीनों में कोई होटल नहीं, कोई ढंग की धर्मशाला नहीं। तब उत्तर प्रदेश में कवाल टाउन (कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, आगरा और लखनऊ) के सिवाय सभी जगह का हाल कमोबेश यही था। इसलिए अधिकांश साथी इस दौरे से बचने लगे। लेकिन मैंने इसे इंजॉय किया। और मुझे लगा कि अब मैं और लोगों से मिल सकूँगा तथा यही किया।

एटा और हमीरपुर दस्यु प्रभावित ज़िले थे इसलिए यहाँ पर शासन ने एसएसपी तैनात किए थे और विशेष कोर्ट भी। एटा में तो मैंने डाकुओं से मिलना-जुलना शुरू कर दिया। यह देख वहाँ के तत्कालीन एसएसपी विक्रम सिंह भड़क गए। बोले, आइंदा से एटा दिखे तो भली नहीं। तब मुझे लगा कि अब छिप कर एटा आया करूँगा। लेकिन हर सत्ता अपने भीतर अंतर्विरोध भी रखती है। और यही संतुलन हर विरोध को ज़िंदा रखता है। कुछ थानेदारों की मदद से मैंने दस्यु छविराम यादव से मुलाक़ात कर ली तथा अन्य दस्यु गिरोहों की अलीपुर के जंगलों में हुई मीटिंग की स्टोरी छाप दी। दैनिक जागरण तब भी उत्तर प्रदेश का बड़ा अख़बार था। बात शासन तक पहुँची, विधान सभा में हंगामा हुआ।

Advertisement. Scroll to continue reading.

पुलिस पर नकेल कसी गई। अब एटा जाने में भय था, कि कहीं पुलिस पकड़ न ले। लेकिन तब तक यह पता चल गया था कि ज़िला कप्तान भले ही वरिष्ठ हो लेकिन ज़िला दंडाधिकारी (DM) के समक्ष बौना ही होता है। और दोनों अंदर ही अंदर एक-दूसरे से डाह रखते हैं। यहाँ DM का पलड़ा भारी हो जाता है। तब वहाँ कृष्णन ज़िला मजिस्ट्रेट थे। मैंने उनसे सम्बंध बनाए। उन्होंने कहा कि तुम मेरे यहाँ आकर रुक सकते हो। यह सूचना SSP तक पहुँच गई पर अब वे कुछ कर नहीं सकते थे। इसके बाद तो में कई-कई दिन एटा ही रुकता। और अलीगंज के जंगलों से ढेरों स्टोरी निकालीं। वहीं से मैंने देवली का संतोषा कांड कवर किया, जिसमें संतोष सिंह ने 22 दलितों की हत्या की थी। और शिकोहाबाद के क़रीब मक्खन पुर जा कर अनार सिंह यादव द्वारा दस दलितों को मार देने वाला कांड भी कवर किया।

यह वह वक्त था, जब मध्य उत्तर प्रदेश में समाज के रॉबिनहुड बदल रहे थे। ठाकुरों और ब्राह्मणों की पकड़ ढीली पड़ रही थी। क्योंकि ब्राह्मण तो आज़ादी मिलते ही शहर निकल गए थे। उनके साथ ही बनिया और कायस्थ भी। गाँव में अगड़ी जातियों के नाम पर सिर्फ़ ठाकुर ही बचे थे। लेकिन उनकी सामंती ठसक उन्हें बदलते परिदृश्य के अनुरूप बदलने नहीं दे रही थी। गाँव में मध्यवर्ती कही जाने वाली जातियाँ- यादव, कुर्मी और लोध तेज़ी से उभर कर आ रहे थे। वे परिश्रमी थे तथा जवाहर रोज़गार योजना व प्रधानमंत्री रोज़गार योजना के चलते वे कृषि के अलावा दूसरे काम भी करने लगे थे। यथा गणेश छाप टेम्पू ख़रीद कर सवारियाँ ढोना, ट्रक ख़रीद कर चलवाना आदि। इसके अतिरिक्त आरएमपी की प्रैक्टिस करना। उनके पास अतिरिक्त पैसा आया तो उन्होंने अबसेंट्री लैंडलॉर्ड ब्राह्मणों और बनियों तथा कायस्थों की ज़मीनें ख़रीदीं। दूध का व्यवसाय किया। इससे उनके पास भी पैसा आया और अब ज़रूरत थी ताक़त की, जिसके लिए उन्हें भी रॉबिनहुड चाहिए थे, ऐसे जो उनके अपने हों। उनके समाज के ये नायक अब पुराने रॉबिनहुड को दबाने लगे।

Advertisement. Scroll to continue reading.

अब मान सिंह, लुक्का, तहसीलदार सिंह, माधो सिंह, मोहर सिंह का ज़माना ख़त्म हो रहा था। अस्सी तक आते-आते इन दस्यु सरगनाओं में मध्यवर्ती जातियों के रॉबिनहुड आ चुके थे। छविराम यादव तो इतने लोकप्रिय थे कि लोग उन्हें नेता जी बोलते थे। अनार सिंह यादव की छवि गब्बर सिंह जैसी थी। इटावा और कानपुर देहात में बाबा मुस्तकीम का जलवा था। लेकिन कोई भी दस्यु या रॉबिनहुड बिना राजनीतिक सपोर्ट के नहीं पनप सकता था।

तब विश्वनाथ प्रताप सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उनको चैलेंज दे रहे थे मुलायम सिंह यादव। वीपी सिंह से यूपी संभल नहीं रहा था। वे संजय गांधी की कृपा से मुख्यमंत्री बने थे। क्योंकि तब इंदिरा गांधी की सरकार को यूपी में एक राजपूत मुख्यमंत्री चाहिए था। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस से ब्राह्मण प्रभाव समाप्त करने के लिए यह ज़रूरी था। उनके पहले यूपी में कांग्रेस ने तीन बार लगातार ब्राह्मण मुख्यमंत्री बनाए थे- नारायण दत्त तिवारी, हेमवती नंदन बहुगुणा और कमलापति त्रिपाठी। इसके अलावा 9 जून 1980 से पहले इस प्रदेश में कोई भी राजपूत मुख्यमंत्री नहीं हुआ था। इसलिए किसी राजपूत को मुख्यमंत्री बनाना आवश्यक था।

Advertisement. Scroll to continue reading.

ठाकुरों में वीपी सिंह के अलावा वीर बहादुर सिंह इस प्रदेश के लोकप्रिय राजनेता थे। किंतु वे महत्त्वाकांक्षी थे और कांग्रेस में परिवार के अलावा किसी की भी महत्त्वाकांक्षा नाक़ाबिले बर्दाश्त है। वीबी सिंह की तुलना में वीपी सिंह तब तक लो-प्रोफ़ाइल में चलने वाले सौम्य राजनेता थे। साथ ही उनके पीछे एक जागीरदार की ठसक भी थी। कुछ कुमाऊँ के राजपूत भी थे, किंतु उनको तवज्जो नहीं मिली क्योंकि वे वहाँ के ब्राह्मणों को साधने में अनगढ़ थे। अगर 9 जून की बजाय मात्र 15 दिन बाद उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री चुनने का फ़ैसला होता तो शायद वीर बहादुर सिंह मुख्यमंत्री बनते।
(जारी)

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement