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सुख-दुख

सेकुलर सावरकर अंग्रेजों से पेंशन मिलने के बाद सांप्रदायिक बन गए!

सौरभ सहज-

एक सुशील कुमार वो था जिसने देश के लिए ओलंपिक से लेकर कई अन्य अंतर्राष्ट्रीय मुकाबलों में मेडल्स जीत कर देश का नाम ऊंचा किया. देश को उस सुशील कुमार पर गर्व है. एक आज का सुशील कुमार है जो संगीन अपराधों में लिप्त है, मौत का सौदागर है. देशवासियों को इससे नफ़रत है. आज आप सुशील कुमार को कैसे देखते हैं?

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सुशील कुमार और सावरकर

जब आप अपने दिमाग में सुशील कुमार के बारे में सोचें तब वर्तमान और पूर्व स्थिति का आंकलन अवश्य करें और आप ही न्याय करें कि सुशील कुमार की व्यक्तिगत इमेज कल आने वाले भविष्य में क्या होगी? हमारी आने वाली पीढ़ी सुशील कुमार को अपना हीरो मानेगी या कलंक??. यह प्रश्नचिन्ह भविष्य में उठता रहेगा.

ठीक उसी प्रकार जैसे सावरकर के ऊपर उठता है. मैंने जितना पढ़ा, जाना और समझा उसके आधार पर सुशील कुमार की भविष्य में बनने वाली इमेज से सावरकर की बनी हुई विवादास्पद इमेज को समझने और समझाने की कोशिश कर रहा हूँ.

साल 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के छठवें दिन विनायक दामोदर सावरकर को गाँधी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने के लिए मुंबई से गिरफ़्तार किया गया था, हाँलाकि उन्हें फ़रवरी 1949 में बरी कर दिया गया था.

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वह गांधी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल थे या नहीं इसके लिए कपूर आयोग ने जाँच की, तीन साल की जांच के बाद आयोग ने जो जांच रिपोर्ट दी उसमें साफ-साफ कहा कि बेशक कोर्ट ने सावरकर को इस मामले में दोषी न ठहराया हो, लेकिन कुछ लोगों के हलफनामे और दूसरे सबूत इस बात की ओर इशारा करते हैं कि सावरकर और उनके संगठन की गांधीजी की हत्या के षड्यंत्र में सक्रिय भूमिका थी.

यह सावरकर के जीवन का आखिरी हिस्सा है, इस घटनाक्रम के बाद उनका राजनैतिक जीवन एकाकीपन और अपयश में गुजरा, लेकिन इतिहास के पन्नों में सावरकर के जीवन में यश भी है. बस फर्क इतना ही है कि व्यक्तिगत रूप से एक इंसान के रूप में इमेज क्या बनी.

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निश्चित रूप से सावरकर वीर, पराक्रमी, चतुर क्रांतिकारी थे. साल 1910 में उन्हें अंग्रेज अधिकारी नासिक के कलेक्टर जेकसन की हत्या में संलिप्त होने के आरोप में लंदन में गिरफ़्तार कर लिया गया था. उन्हें गिरफ्तार करके जब भारत लाया जा रहा था तब पानी के जहाज से समुद्र में कूद गये. उन्हें 13 मार्च, 1910 के दिन विक्टोरिया स्टेशन पर गिरफ़्तारी कर लिया गया.

उन्हें 25-25 साल की दो अलग-अलग सजाएं सुनाई गईं और सज़ा काटने के लिए भारत से दूर अंडमान यानी ‘काला पानी’ भेज दिया गया. वहाँ उन्होंने असहनीय पीड़ा सही जिसे सह पाना मौत के बराबर है.

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उन्होंने 9 साल 10 महीनों तक यह पीड़ा झेली. 11 जुलाई 1911 को सावरकर अंडमान पहुंचे और 29 अगस्त को उन्होंने अपना पहला माफ़ीनामा लिखा, वहाँ पहुंचने के डेढ़ महीने के अंदर. इसके बाद 9 सालों में उन्होंने 6 बार अंग्रेज़ों को माफ़ी पत्र दिए.

अपने ऊपर दया करने की गुहार करते हुए उन्होंने सरकार से ख़ुद को भारत की किसी जेल में भेजे जाने की प्रार्थना की थी. इसके बदले में वो किसी भी हैसियत में सरकार के लिए काम करने के लिए तैयार थे.”

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सावरकर ने कहा था कि अंग्रेज़ों द्वारा उठाए गए गए कदमों से उनकी संवैधानिक व्यवस्था में आस्था पैदा हुई है और उन्होंने अब हिंसा का रास्ता छोड़ दिया है. शायद इसी का परिणाम था कि काला पानी की सज़ा काटते हुए सावरकर को 30 और 31 मई, 1919 को अपनी पत्नी और छोटे भाई से मिलने की इजाज़त दी गई.

साल 1924 में सावरकर को पुणे की यरवदा जेल से दो शर्तों के आधार पर छोड़ दिया गया- एक तो वो किसी राजनैतिक गतिविधि में हिस्सा नहीं लेंगे और दूसरे वो रत्नागिरि के ज़िला कलेक्टर की अनुमति लिए बिना ज़िले से बाहर नहीं जाएंगे.

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अंग्रेज़ उनको पेंशन दिया करते थे, साठ रुपए महीना. वो अंग्रेज़ों की कौन सी ऐसी सेवा करते थे, जिसके लिए उनको पेंशन मिलती थी ? वो इस तरह की पेंशन पाने वाले देश में अकेले शख़्स थे.

अंडमान से वापस आने के बाद सावरकर ने एक पुस्तक लिखी ‘हिंदुत्व – हू इज़ हिंदू?’ जिसमें उन्होंने पहली बार हिंदुत्व को एक राजनीतिक विचारधारा के तौर पर इस्तेमाल किया. उनकी इस किताब के अनुसार हिंदुओं, सिखों, बौद्ध और जैनियों के लिए हिन्दुस्तान के नागरिक हो सकते हैं लेकिन मुसलमान और ईसाई नहीं हो सकते.

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जेल जाने से एक वर्ष पहले सन् 1909 में सावरकर ने एक किताब मराठी भाषा में लिखी जिसका नाम है-१८५७चे स्वातंत्र्यसमर. इस किताब में उन्होंने धर्मनिरपेक्षता की जमकर वकालत की है. इस पुस्तक का द्वितीय संस्करण लाला हरदयाल द्वारा गदर पार्टी की ओर से अमरीका में निकला और तृतीय संस्करण सरदार भगत सिंह द्वारा निकाला गया. इसका चतुर्थ संस्करण नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा सुदूर-पूर्व में निकाला गया. फिर इस पुस्तक का अनुवाद उर्दु, हिंदी, पंजाबी व तमिल में किया गया. इसके बाद एक संस्करण गुप्त रूप से भारत में भी द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने के बाद मुद्रित हुआ. इसकी मूल पाण्डुलिपि मैडम भीकाजी कामा के पास पैरिस में सुरक्षित रखी थी. यह प्रति अभिनव भारत के डॉ॰ क्यूतिन्हो को प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान पैरिसम संकट आने के दौरान सौंपी गई. डॉ॰ क्युतिन्हो ने इसे किसी पवित्र धार्मिक ग्रन्थ की भांति ४० वर्षों तक सुरक्षित रखा. भारतीय स्वतंत्रता उपरान्त उन्होंने इसे रामलाल वाजपेयी और डॉ॰ मूंजे को दे दिया, जिन्होंने इसे सावरकर को लौटा दिया. इस पुस्तक पर लगा निषेध अन्ततः मई, १९४६ में बंबई सरकार द्वारा हटा लिया गया.

लेकिन, 1924 में जेल से छूटने के बाद अपनी ही लिखी किताब के विपरीत जाकर,धर्मनिरपेक्षता के विरोध में अंग्रेजी तनख्वाह लेने वाले सावरकर ने अपना संपूर्ण बौद्धिक एवं भौतिक बल हिन्दुत्व की राजनीति पर लगा दिया. इसके बाद उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ़ अपनी लड़ाई समाप्त कर दी. स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में 1924 के बाद सावरकर ने देश के क्रांतिकारी के रूप में कोई काम नहीं किया. अंग्रेजों से 200 वर्ष की गुलामी से आज़ाद होने में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, पारसी आदि धर्मों के लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन थॉट ऑफ सावरकर स्कूल ने भारत के हिन्दुओं के सामने मुगलों की गुलामी के इतिहास को याद रखने और अंग्रेजों की गुलामी के इतिहास को भुला देने की भूमिका में काम किया.

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अबतक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक से लेकर आजतक तक जितने भी सरसंघचालक हुए सबकी सब चितपावन ब्राह्मण हुए हैं, एक रज्जू भैया को छोड़कर. सावरकर भी चितपावन थे. सावरकर कभी संघ का हिस्सा नहीं रहे, उनके 1910 से पहले के हिंदुत्व में और 1924 के बाद के हिंदत्व में भारी भेद है. चूंकि संघ की वैचारिक पृष्ठभूमि का कोई ढांचा नहीं है वह सावरकर के वैचारिक उन्माद के इधर उधर ही घूमती है. संघ का सेवा करने का मार्ग निश्चित रूप से सराहनीय है लेकिन राजनैतिक दृष्टि उसके पास वही है जो सावरकर ने 1924 के बाद देनी चाही. अपने गोत्र आइडेंटिटी के साथ उस विचार के उन्माद को बचाने के लिए सावरकर को पूजना कहाँ तक ठीक है, मुझे नहीं पता. अगर वे 1924 से पहले के सावरकर को पूजते हैं तो उसके बाद वाले सावरकर की विचारधारा को क्यों फॉलो करते हैं? और अगर 1924 के बाद वाले सावरकर को पूजते हैं तो क्या वह पूजने योग्य है? इसे आप सुशील कुमार के उदाहरण से समझ सकते हैं.

बहरहाल, जिस तरह सावरकर ने माफी मांगी थी, उस तरह भगत सिंह भी मांफी मांग सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. इसीलिए वे शहीद-ए-आजम के नाम से पूजे जाते हैं.

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एक तरफ वीरता का नारा -“माँ तेरा गौरव अमर रहे, हम रहे ना रहें” था. वहीं इसे- “जान है तो जहान है” जैसे राजनीतिक मंत्रोचार करने वाले की जीवन यात्रा को गौरवपूर्ण मानकर कैसे पूजा जा सकता है?

आज के राजनैतिक परिदृश्य में आपको सावरकर को सम्मान देना है तो आपको गाँधी की विचारधारा की तरफ़ पूरी तरह से पीठ घुमानी ही पड़ेगी. 1924 से 1966 तक अंग्रेजों के लिए काम करते हुए भी आप सावरकर को वीर कहते हैं, तब आप शहीद-ए-आजम भगत सिंह की वीरता को क्या कहेंगे.

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आज शायद अनुगामी पीढ़ी के सामने आजादी के अमर शहीद भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद के सहयात्रियों से ज्यादा माफी मांग कर जान बचाने वाले को पूज्य व्यक्तित्व मानना और उसके विचारों का अनुकरण करना ठीक भी हो सकता है.

जिस महापुरुष के लिए हर शर्त पर जेल से रिहा हो जाना अधिक महत्वपूर्ण है, फिर चाहे देश में राजतंत्र हो, लोकतंत्र हो, देशवासी स्वतंत्र रहें, परतंत्र रहें, यह सब मायने नहीं रखता है.

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आज उस महापुरुष के उपासकों के दौर में लोकतंत्र खतरे में है की बात करना भी खुद एक खतरा बन चुका है.

  • सौरभ ‘सहज’
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