रीवा सिंह-
तालिबान ने भारत को ‘मुहब्बत भरा संदेश’ देते हुए कहा है कि हस्तक्षेप और सहायता की कोशिश न की जाए। भारतीय सेना वहाँ जाती है तो अच्छा नहीं होगा।
तालिबान के प्रवक्ता मोहम्मद सुहेल शाहीन ने कहा है कि भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में सेना और दूसरे देशों की मौजूदगी के नतीजे देखे हैं, तो उनके लिये यह खुली किताब की तरह है।
खुली धमकी मिल रही है। आप यह कहकर ख़ुद को तसल्ली देते रहें कि जब अमेरिका, NATO औऱ UNO कुछ नहीं कर पा रहे तो हम क्या कर सकते हैं। हाँ, कुछ नहीं कर सकते हम बेबस रहने के अलावा। मेरे या आपके पास कोई फ़ौज नहीं है जिसे तैनात कर दें लेकिन विरोध तो कीजिए बिना लाग-लपेट के!
OIC (Organisation of Islamic Cooperation) क्या कर रहा है? उनके 57 स्टेट्स ने मुँह में दही क्यों जमा रखा है? अफ़ग़ानी लोग कम मुसलमान हैं क्या? शार्ली हेब्दो के कार्टून पर आग बबूला होते हैं, फ़्रेंच टीचर ने मोहम्मद पैग़म्बर की तस्वीर दिखा दी तो छात्र ने क़त्ल कर दिया और तमाम बुद्धिजीवी प्रांत कूद पड़े उसे जायज़ ठहराने के लिये। आज जब घर-घर जाकर 12 वर्षीय अबोध बच्चियों को घर से अगवा कर सेक्स स्लेव बनाया जा रहा है और फ़तह का जश्न मनाया जा रहा है तो ख़ून पानी हो गया?
वो बच्चियाँ भी मुसलमान हैं, अपने ख़ुदा का वास्ता देकर रहम की भीख माँग रही हैं। उनकी ज़िंदगी दोज़ख़ में तब्दील हो रही है और समूचा विश्व तमाशबीन बन बैठा है।
मैं यह कहने में कोई परहेज़ नहीं करूँगी कि बात धर्म-रक्षा की न हो तो हमारी ‘जागरुकता’ गर्त में चली जाती है। लड़कियाँ मर रही हैं, कोई बात नहीं, वो जन्मी ही थीं कुंठित पुरुषों की हवस की तृप्ति को। आपकी नज़र में उनका इतना ही वजूद है। सांप सूंघ गया है इस्लामिक संगठनों को, अब नहीं कहेंगे कि हम 57 राज्य मिलकर कड़ा संदेश देंगे, एकजुट हो सही के समर्थन में आयेंगे। अपने ख़िलाफ़ अत्याचार नहीं सहेंगे।
वो हाड़-मांस की बनी, साँस लेती ज़िंदा लड़कियाँ हैं न, पैग़म्बर की तस्वीर थोड़े हैं।
रंगनाथ सिंह-
कुछ लोग हैरत जता रहे हैं कि तालिबान ने इतने कम समय में इतने बड़े इलाके पर कैसे कब्जा कर लिया। मजहबी ढपोरशंख कई सौ सालों से किसी भी युद्ध के विश्लेषण के लिए एक ही टूल इस्तेमाल कर रहे है। लड़ाई जीत गये तो अल्लाह की रहमत और हार गये तो उसकी रजा। जहाँ मरने और मारने वाले दोनों ही मुसलमान हों वहाँ अल्ला की कन्फ्यूजन समझना इनके वश की बात नहीं। लेकिन सोचने-समझने वाले लोग युद्ध में जीत और हार के भौतिक कारणों के विश्लेषण में रुचि रखते हैं।
अहमद रशीद तालिबान के बड़े जानकार माने जाते हैं। उन्होंने पाकिस्तानी पत्रकार गुल बुखारी से बातचीत में कहा कि तालिबान ने जिस तरह की रणनीति इस बार अपनायी है वह सामान्य नहीं है। तालिबान ने ग्रामीण इलाकों पर कब्जा करने के बाद शहरी इलाकों की ओर रुख किया है। तालिबान के पास सभी मूवमेंट के लिए जरूरी इंटेलीजेंस मुहैया थी। तालिबान के जो नेता 20 सालों से पाकिस्तान के क्वेटा इत्यादि में आराम से रह रहे हैं वो अब भी वहीं आराम से हैं। यहाँ याद दिला दें कि फिलवक्त तालिबान का राजनीतिक कार्यालय कतर में है। अफगान सरकार कतर सरकार की मध्यस्थता में ही तालिबान से बातचीत कर रही है।
जाहिर है कि तालिबान का यह हमला लम्बे समय की रणनीति का परिणाम है। तालिबान के पास अफगानिस्तान वायुसेना के पायलटों के ठिकानों तक की जानकारी मौजूद है। उन्होंने वायुसेना से मुकाबला करने की यह तरकीब ईजाद की कि पायलटों को खोजकर उनकी हत्या कर दो। जिस तरह अफगान सेना के कई कमाण्डरों ने एवं अन्य गुटों के सरगनाओं ने तालिबान से हाथ मिलाया है उसके पीछे डर कम और रणनीति ज्यादा दिखती है।
जाहिर है कि अफगानिस्तान की मौजूदा हालात के लिए अमेरिकी दोहरापन भी जिम्मेदार है। अमेरिका जब तक अफगानिस्तान में था उसने तालिबान को नियंत्रित रखा लेकिन अहमद रशीद के अनुसार उस दौरान तालिबान आराम से पाकिस्तान में सुखी जीवन जीते रहे। अहमद रशीद के अनुसार दुनिया के किसी मुल्क में दहशतगर्दी तभी फल-फूल पाती है जब उग्रवादियों के पास कोई शरणगाह हो जहाँ वो अपना इलाज करा सकें, आराम कर सकें और प्रशिक्षण प्राप्त कर सकें। पाकिस्तान तालिबान के लिए 20 साल तक शरणगाह बना रहा और अमेरिका उसकी तरफ आँख मूँदे रहा।
अमेरिका ने जिस तरह हाबड़-धाबड़ में तालिबान को वार्ता में शामिल कर के उन्हें वैधता प्रदान की और जमीनी हालात की अनदेखी कर के वहाँ से जल्दबाजी में निकल गया उसने भी अफगानिस्तान के लिए मुश्किल पैदा की।
कई विद्वान मानते हैं कि पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई नहीं चाहती कि अफगानिस्तान में स्थिर सरकार बने क्योंकि उन्हें भारत-अफगान के स्थायी रिश्तों से डर लगता है। भारत और बांग्लादेश के रिश्तों में बेहतरी से पाकिस्तान काफी बेचैन रहता है। अफगानिस्तान की स्थायी सरकार से भारत के दोस्ताना रिश्तों के बाद पाकिस्तान खुद को दो भारत-दोस्त देशों के बीच सैण्डविच के आलू-टिक्की जैसा महसूस करेगा।
तालिबान और पाकिस्तान की दूसरी मुश्किल है ईरान। ईरान और भारत भी पुराने दोस्त हैं। हाल के दशकों में अमेरिकी दबाव में आयी थोड़ी ऊँच-नीच के बावजूद दोनों देश एक दूसरे पर भरोसा करते हैं। आपको याद ही होगा कि इस इलाके में ईरान स्थित चाहबहार पोर्ट जिसमें भारत भागीदार है और पाकिस्तान स्थित ग्वादर पोर्ट जो चीन बना रहा है, के बीच होड़ है।
तालिबान का ट्रम्प कार्ड इस्लामी निजाम ही उसकी सबसे बड़ी मुश्किल भी है। रूस को चेचन्या में, चीन को शिनझिंयाग में खुद पाकिस्तान को बलूचिस्तान और केपीके में इस्लामी जिहादियों से समस्या है। आपको याद होगा कि आईएसएस के अब बक्र बगदादी ने भी खुद को दारुल इस्लाम का खलीफा घोषित किया था। वैसे तो यह स्थानीय राजनीति का खेल होता है लेकिन इसका दूरगामी असर दूसरे देशों के भटकी हुई अवाम पर होना लाजिमी है।
जिनके जहन में प्रोपगैण्डा मशीनरी ने भर दिया है कि एक दिन इस्लामी निजाम कायम होगा उन्हें किसी दूर देश में इस्लामी निजाम की पुकार सुनायी देने पर वो थोड़े भ्रमित हो जाएँ तो कौन सी बड़ी बात है। लेकिन जमीनी हकीकत क्या है? तालिबान सुन्नी इस्लाम के एक फिरके से वाबस्ता है। अफगानिस्तान के चारो तरफ जिन बड़ी ताकतों का शिकंजा है वो कौन हैं? रूस, चीन, अमेरिका, भारत का तो सबको पता है, ईरान भी शिया इस्लाम वाला देश है। इस भसड़ में भारत सबसे सुरक्षित है। काबुल पर चाहे जिसकी हुकूमत हो भारत उससे दोस्ती कर लेगा क्योंकि अफगानी राष्ट्रवाद मूलतः एंटी-पाकिस्तान है।
कल कुछ हिन्दुस्तानी टीवी पत्रकारों का अफगानिस्तान मुद्दे पर कार्यक्रम देख लिया। बहुत दुख हुआ। पाकिस्तान के इलीट पत्रकार काफी बेहतर कार्यक्रम कर रहे हैं। सबसे बड़ी बात कि जहाँ हिन्दुस्तानी इलीट अंग्रेजी में कार्यक्रम कर रहे हैं वहीं पाकिस्तानी इलीट उर्दू को काफी तवज्जो देते हैं। कल नजम सेठी, रजा रूमी और मुर्तजा सोलंगी की बातचीत सुन रहा था। उन तीनों की हिन्दी बातचीत से कई बातें समझ में आयीं। नजम सेठी ने अपने शो में साफ कहा है कि पाकिस्तान ने तालिबान को 20 साल तक पाला-पोसा।
कुछ भारतीय पत्रकार आँख मूँद कर कह-लिख रहे है कि तालिबान के पास जनसमर्थन है। सीधी सी बात है जिसके पास जनाधार होता है वह चुनाव लड़ता है। चुनाव लड़ने के खिलाफ हथियार बन्दे लड़ाकों का गिरोह बनाकर सरकारी इमारतों पर कब्जा करने के लिए जंग नहीं छेड़ता। कुल मिलाकर अफगानिस्तान की अवाम इस पूरे घटनाक्रम में तमाशबीन भर है। वह निजाम के लिए चल रहे संघर्ष में अपना जानोमाल बचाने के लिए चिंतित है। तालिबान के बढ़ते प्रभाव की वजह अफगानिस्तान में पलायन शुरू हो चुका है।
कल ही भारतीय टीवी एंकरों के भी कुछ शो देख लिये। एक मशहूर एंकर तो एक पूर्व राजनयिक से केवल यही कहलवाने में पूरा शो बिता दिये कि भारत की कूटनीति कितनी, कैसे और क्यों गलत है? पूर्व राजनयिक के पास घिसीपिटी चार लाइनें ही थीं। जाहिर है कि दोनों को मौजूदा मामले का कोई खास आइडिया नहीं था। एक अन्य भारतीय अंग्रेजी एंकर से तालिबान प्रवक्ता से निराशाजनक बातचीत देखी।
जब से तालिबान का मामला उभरा है तब से यह महसूस हो रहा है कि इस मामले में भारत के पास नैटिव एक्सपर्टीज का सख्त अभाव है। हमारे पास ढंग के अफगानिस्तान विशेषज्ञ नहीं है। कुछ पूर्व राजनयिक विशेषज्ञ के तौर अपनी रिटायरमेंट टीवी पर काट रहे हैं लेकिन उनको अंग्रेजी बोलने के सिवा क्या आता है पता ही नहीं चलता! हिन्दी मीडिया में ऐसी विशेषज्ञता की तलाश करने का प्रयास करना ही व्यर्थ है।
अफगानिस्तान में अभी क्या हो रहा है इसकी परतें कुछ दशकों में खुलेंगी। कौन किस पर्दे के पीछे क्या खेल खेल रहा है यह सब धीरे-धीरे सामने आएगा। अभी जो माहौल है उसमें कूटनीति के भयानक खेल चल रहे होंगे। मेरी राय में किसी तरह की ठोस राय बनाने की जल्दबाजी करने से बचना चाहिए।
यह भी गौरतलब है कि कल एक अफगान सांसद ने भारतीय टीवी चैनल पर आरोप लगाया कि मीडिया तालिबानी प्रोपैगण्डा को आँख मूँद कर आगे बढ़ा रहा है। तालिबान की जीत का जो बयानिया गढ़ा जा रहा है वह अतिरेक से भरा है। इस बार तालिबान कूटनीतिक रूप से ज्यादा तैयार दिख रहा है। दो दशक पहले वह वीडियो को हराम समझता था अब वो उसका महत्व समझ गया है।
प्रकाश के रे-
बातचीत और लड़ाई साथ-साथ… काबुल के अमेरिकन यूनिवर्सिटी ऑफ़ अफ़ग़ानिस्तान की प्रोफ़ेसर विक्टोरिया फ़ोन्टान ने अलजज़ीरा को बताया है कि अगले गुरुवार आनेवाले स्वतंत्रता दिवस के हवाले से काबुल में बहुत से लोग चर्चा कर रहे हैं कि तालिबान इस सप्ताहांत काबुल आ जायेंगे और स्वतंत्रता की घोषणा कर सकते हैं. आज राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी ने अपने संबोधन में कहा है कि वे ख़ून-ख़राबा रोकने के लिए प्रतिबद्ध हैं और हालात क़ाबू करने के लिए बातचीत का सिलसिला जारी है. ऐसा माना जा रहा है कि यह वैकल्पिक सरकार बनाने का संकेत हो सकता है. तालिबान की शर्त है कि ग़नी इस्तीफ़ा दें. हेरात के वारलॉर्ड इस्माइल ख़ान तालिबान का संदेश लेकर ग़नी से जल्दी मिलेंगे. संभव है, उनकी बातचीत भी हुई हो क्योंकि इतनी लड़ाई के बाद भी मोबाइल और इंटरनेट चल रहे हैं. अगर इस्माइल ख़ान असफल रहते हैं, तो तालिबान काबुल पर हमला कर देंगे. काबुल से केवल 10-15 किलोमीटर दूर मैदान को इसीलिए वे आज कल में दख़ल करने की कोशिश कर रहे हैं. उधर मज़ार-ए-शरीफ़ में अफ़ग़ान फ़ोर्सेस और मार्शल दोस्तम के लड़ाकों तथा तालिबान के बीच जमकर लड़ाई हो रही है. ऐसा लगता है कि कल तक संकेत मिल जायेंगे कि कोई अस्थायी सरकार बनेगी और शांति से अगली सरकार का फ़ैसला होगा या गृहयुद्ध भड़केगा. अगर तालिबान को मज़ार में रोक दिया गया, तो वह शहर अफ़ग़ान सरकार का केंद्र बनेगा क्योंकि काबुल के टिके रहने की उम्मीद नहीं है.
वैसे, अब तालिबान को रोकना असंभव है. अफ़ग़ानिस्तान के सबसे बड़े वार लॉर्ड इस्माइल ख़ान ने हेरात में हथियार डाल दिया है. यहाँ कई दिन से लड़ाई चल रही थी. इस्माइल ख़ान पुराने मुजाहिद हैं और उनका बड़ा असर है. उन्हें उनके घर में ही रखा गया है. इससे उनके सम्मान का अनुमान लगाया जा सकता है. हेरात अफ़ग़ानिस्तान का तीसरा सबसे बड़ा शहर है. ग़ोर प्रांत बिना किसी लड़ाई के तालिबानियों को मिला है. ऐसा बुज़ुर्गों की मध्यस्थता से हुआ है. इसी ग़ोर से मोहम्मद ग़ौरी निकला था, जिसने हिंदुस्तान में मुस्लिम शासकों की शुरुआत की थी.
इतिहास के बड़े अध्याय को लिखाता हुआ देखना भी मेहनत का काम है. अभी मैंने तालिबान के मुख्य प्रवक्ता द्वारा ट्वीट किया हुआ एक टेप सुना. यह बातचीत सम्मानित मुजाहिद अहमद शाह मसूद के साथ बराबर के सम्मानित मुजाहिद इस्माइल ख़ान और तालिबान के मार्गदर्शक मंडल के मुखिया आमिर ख़ान मुत्तक़ी के बीच हुई है. हेरात के इस ऐतिहासिक योद्धा ने आज समर्पण किया है, पर यह समर्पण नहीं है.
मुत्तक़ी ने कहा कि देश को बनाना है और उन सब मुजाहिदों का सपना पूरा करना है, जो कई दशक से लड़ रहे हैं. मुत्तक़ी ने मसूद समेत सबका नाम लिया, जिनसे तालिबान की बाद में दुश्मनी रही या तालिबान ने उन्हें मार दिया. इस्माइल ख़ान ने मुत्तक़ी की बात से सहमति जतायी और मुत्तक़ी के उस प्रस्ताव को भी माना कि इस्माइल ख़ान अमीरात की सरकार में बड़ी भूमिका निभायेंगे.
यह अफ़ग़ान राष्ट्रवाद की निर्मिति की प्रक्रिया है. बरसों पहले पढ़ी गयी थोड़ी फ़ारसी अब काम आ रही है.
बहरहाल, यह पोस्ट इसलिए कि कुछ बड़े हिंदी मीडिया इस्माइल ख़ान को भारत का पुराना दोस्त कहकर आपत्तिजनक ख़बरें छाप रहे हैं. हेलो हिंदी मीडिया, थोड़ा रहम करो अपने उपभोक्ताओं पर. बेगानी शादी में अब्दुल्ला क्यों बनना!
द वायर पर करण थापर के साथ इंटरव्यू में पूर्व डिप्लोमैट विवेक काटजू बता रहे हैं कि हमारी अफ़ग़ान नीति का हाल यह है कि अशरफ़ ग़नी के दुबारा राष्ट्रपति बनने की वहाँ के चुनाव आयोग की आधिकारिक घोषणा से पहले ही ट्वीटर पर उन्हें बधाई भेज दी जाती है. इस पर मुझे वह प्रकरण याद आया कि मोदी जी ने एक बार ग़नी को जन्म दिन की बधाई दी. उधर से ग़नी ने शुक्रिया कहते हुए बताया कि आज उनका जन्म दिन नहीं है. ख़ैर, विकीपीडिया जो न कराए. बहरहाल, अगर आप भारत की अफ़ग़ान नीति और आगे क्या करना चाहिए के बारे में जानना चाहते हैं, तो काटजू का यह इंटरव्यू ज़रूर देखें. कुछ दिन पहले उन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स में एक उम्दा लेख भी लिखा है. विवेक काटजू अफ़ग़ानिस्तान में भारत के राजदूत रहे हैं और विदेश सचिव भी. कंधार हवाई अड्डे पर जब आइसी 814 अपहरण कर ले जाया गया था, तो उसे और यात्रियों को वापस लाने के लिए जसवंत सिंह और अजीत डोभाल के साथ काटजू भी गए थे. उनके विश्लेषण व सुझाव पर गंभीरता से ध्यान दिया जाना चाहिए.
अफ़ग़ान इतिहास – संक्षेप में-
शाह ज़हीर ने कुछ मॉडर्नाइज़ेशन करना शुरू किया, तो उनके भतीजे दाऊद ख़ान से तख़्तापलट करा दिया गया. जब दाऊद ख़ान ने कुछ करना शुरू किया, तो तख़्तापलट कराकर मार दिया गया. फिर अफ़ग़ानियों पर साम्यवाद थोपना शुरू हुआ और वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी और सरकार के अंदरूनी कलह को मिटाने के लिए सोवियत आक्रमण हुआ. दस साल भयानक दमन, हिंसा और लूट का दौर चला.
फिर मुजाहिद सत्ता में आए, कहानी वही रही. उसके ख़िलाफ़ खड़े हुए मदरसे के मुल्ला और तलबा. फिर लड़ाई और जमी. बाहरी ताक़तों ने अपने-अपने फ़ायदे के लिए इस और उस गुट को उकसाया, पाला और पोसा. फिर लादेन का तमाशा बढ़ा. अभी कुछ सिस्टम बना पाते कि तालिबानी उसके चक्कर में ठेल दिए गए.
फिर मुजाहिद आए. मामला वही रहा. पहले आए सोवियत जैसे क़बीलाई समाज को बंदूक़ से कॉमरेड बना रहे थे, वैसे ही अमेरिका और यूरोप बंदूक़ से उनका लोकतंत्र संस्कार करने लगे. मामला वही रहा. बीस साल एक देश दुनिया के सबसे ताक़तवर लोकतंत्र के फ़ौज़ी बूटों तले दबा रहा. बाक़ी लूट, दमन, हिंसा, मार-काट का सिलसिला चलता रहा. अब जब अमेरिका वापस हुआ, तो उसके सहारे सत्ता में बैठे लोग भी तितर-बितर हो गए.
अब फिर तालिबानी आ रहे हैं. जिन्हें मानवाधिकार की बहुत चिंता है, उन्हें कुछ बातों का संज्ञान लेना चाहिए. इतने साल जो चला है, वह क्या है, क्या लाखों मौतें मानवाधिकार के दायरे में नहीं हैं? क्या इस पर नहीं सोचा जाना चाहिए कि किसी भी समाज में स्थिरता रहेगी, तभी मॉडर्नाइज़ेशन आएगा? क्या अफ़ग़ानिस्तान को अस्थिर बनाए रखना मानवाधिकार लाना था? आप केवल बच्चाबाज़ी के बारे में पढ़ लीजिए, उससे ही बहुत सारी बातें साफ़ हो जायेंगी. जहाँ तक महिलाओं की बात है, तो इतने साल के युद्धों से उनके अधिकारों का हनन नहीं हुआ? क्या एक क़बीलाई समाज बम-बारूद से आप सुधार देंगे? बदलाव पीढ़ियों में होता है. अफ़ग़ानिस्तान को समय मिलना चाहिए, जो उसे पांच दशक से नहीं दिया गया है.
अफ़ग़ानिस्तान को उसके हाल पर छोड़िए, मदद करना ठीक है, चिंता करना सही है, लेकिन इससे उनकी क़िस्मत बनाने का अधिकार नहीं मिल जाता. मेरी नहीं, तो अमेरिका, यूरोप, रूस, चीन, ईरान जैसे देशों के नेताओं की ही सुन लीजिए, जो अब कह रहे हैं कि अफ़ग़ान अपना भविष्य ख़ुद बनायें.