परसों जुमा के दिन कुवैत की एक मस्जिद में नमाज़ पढ़ते लोगों पर हमला हुआ.उसी दिन ट्यूनीशिया की मस्जिद में हमला और उसी दिन ही फ़्रांस में मज़हब के नाम पर खुनी खेल.मरने वाले भी मुस्लिम और मारने वाले भी.किसे कहा जाये मुसलमान।मरने वालों को या मारने वालों को.चौदह सौ बरस पहले भी ऐसा ही हुआ था.जब करबला में मैदान में एक तरफ हज़रत मुहम्मद साहेब के नवासे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने चन्द साथियों के साथ थे और दूसरी तरह उनके सामने यज़ीद के वो हज़ारों लोग थे जो अपने आपको मुसलमान कहते थे लेकिन इस्लाम को मानने में उनकी दिलचस्पी नहीं थी.वही मंज़र आज भी मौजूद है.एक तरफ इस्लाम के मानने वाले मुस्लिम हैं और दूसरी तरफ इस्लाम के नाम पर हाहाकार मचाने वाले।
अपने आपको इस्लाम का अलम्बरदार बताने वाले।उस इस्लाम का जिसने ये कहा है की जिसने किसी एक भी बेगुनाह का क़त्ल किया मानो की पूरी दुनियां को उसने क़त्ल किया।इस्लाम के ये अलम्बरदार ना जाने किस इस्लाम को मानते हैं.एक तरफ इन नामुरादों का इस्लाम है जो लाखों लोगों का ख़ून नाहक़ बहा देता है.वहीं दूसरी तरफ हज़रत मुहम्मद साहेब के इस्लाम के मानने वाले हैं जो करबला में प्यासे होने पर भी अपने हिस्से का पानी दुश्मनो के खेमे की तरफ भेज देते हैं की जाओ पहले उन्हें पिलाओ क्यूंकि वो भी प्यासे हैं.यही है हज़रत मुहम्मद साहेब का इस्लाम,यही है इमाम अली अलैहिस्सलाम और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का इस्लाम।बेगुनाहों का खूब बहाने वाले जिस इस्लाम की बात करते हैं वो यज़ीद का इस्लाम है,शिमर का इस्लाम है.मुसलमान अपने गरेबां में झाँक कर देखें की वो किस इस्लाम को मान रहे हैं.आईएस हो या अल क़ायदा या तालिबान,ये यज़ीदी इस्लाम को मानने वाले लोग हैं.असल इस्लाम से इनका कोई लेना देना नहीं है.वैसे भी मुसलमान आजकल मिलते कहाँ हैं.शिया-सुन्नी।देवबन्दी-बरेलवी मिल जायेंगे और अपने आपको असल इस्लाम का पैरोकार बताते हुए दुसरे को गालियां निकालना अपना फ़र्ज़ समझते हैं.
मुझे समझ नहीं आता की दाढ़ी रखकर,ऊँचा पायजामा और नीचे कुरता पहन,टोपी लगाकर ही हम अपने आपको मुसलमान क्यों दिखाना चाहते हैं.इस्लाम तो किरदार का नाम है,चरित्र का नाम है.हम चरित्र से मुसलमान क्यों नहीं दिखना चाहते।किसी को भी काफ़िर क़रार देने का हक़ हमें किसने दे दिया।अल्लाह तआला रब्बुल आलमीन है.रब्बुल मुस्लिमीन नहीं है.क्या अल्लाह ने दुनियां की ठेकेदारी हमें ही दी है.अगर ऐसा है तो फिर दुसरे मज़ाहिब के लोगों की क्या ज़रुरत थी.उन्हें क्यों बनाया गया.अल्लाह ने दुनियां की खूबसूरती के लिए मुख्तलिफ क़िस्म के मज़हब और नस्लें बनायीं,रंग बनाये।ज़ुबानी बनायीं ताकि यकसानियत रहे और ज़िन्दगी का लुत्फ़ बना रहे. ठीक वैसे ही जैसे मुख्तलिफ क़िस्म के खाने और दीगर सहूलतें उसने हमें दी हैं.हमें क्या हक़ है की हम दुसरे को अच्छे और बुरे का सर्टिफिकेट देते फिरें।किसने दिया है हमें ये हक़.आज मुसलमान जिस मक़ाम पर है उसका ज़िम्मेदार वो खुद है.पूरी दुनियां में साठ के आसपास इस्लामी मुल्क हैं लेकिन तरक़्क़ी के नक़्शे में एक भी मुल्क नज़र नहीं आता.हाँ बम धमाकों, शिया-सुन्नी की जंगों से अख़बार सुर्ख ज़रूर रहते हैं.किसने मना किया है हम तरक़्क़ी न करें।किसने रोक है हमें जदीद तालीम हासिल करने से.हम मदरसों से बाहर तो निकलें।यूनिवर्सिटीज में तो जाएँ।दीन के ओलामा जब तक यूनिवर्सिटीज से नहीं निकलेंगे तब तक क़ौम को सही राह मिलना मुश्किल है.हम मदरसों को मॉडर्न तरीके से क्यों नहीं चलाते।वहां साइंस और इंग्लिश क्यों नहीं पढ़ाते।सारे मदरसे मौलवी तैयार करने की फैक्टरियां बने हुए हैं.अरे वहां से डॉक्टर,इंजीनियर,जर्नलिस्ट,साइंटिस्ट भी तो निकालिये।समाज को इनकी ज़्यादा ज़रुरत है बजाय मौलवियों के.मदरसों में ज़माने की ताज़ा हवा तो आने दीजिये।दिमाग़ की खिड़कियां तो खोलिए ताकि ताज़ा हवा आये.बंद दिमाग़ों से तैयार होने वाले लोग बाहर निकल कर अपने जैसे लोग ही तैयार करेंगे।
अफ़सोस की बात है की हमारी सियासी जमातें भी मुसलमान उन्हें ही मानती हैं जो दाढ़ी और टोपी वाले होते हैं.जदीद ख़यालात का और पेण्ट-शर्ट पन्ने वाला,क्लीन शेव मुसलमान उन्हें मुसलमान नहीं लगता।किसी भी पार्टी के प्रोग्राम दो-चार दाढ़ी वाले टोपी वाले ज़रूर नज़र आ जायेंगे ताकि ऐसा लगे की मुसलमान उनके साथ भी हैं.हद होती है तुष्टिकरण की.
मुसलमानो को अपने गरेबां में झाँकने की ज़रुरत है.उन्हें ज़माने के साथ चलने की ज़रुरत है.इस्लाम की जो उदार शक्ल है, जो असल इस्लाम है उसे मानने और चलने की ज़रुरत है.मुसलमान जब तक अपने अंदर बैठे दुश्मनो को नहीं पहचानेंगे तब तक कुछ भी बदलने वाला नहीं है.आईएस हो या अल क़ायदा।जब तक इनके ख़िलाफ़ सभी मुसलमान एक साथ खड़े नहीं होंगे तब तक कुवैत जैसे हादसे होते रहेंगे। ये इस्लाम को मानने वाले नहीं है.हमारा दुश्मन कोई गैर मुस्लिम नहीं है.उन्हें क्या पड़ी है की धमाके करें।उन्हें अपनी तरक़्क़ी देखनी है.हमें भी उन्हीं रोशनखयाल गैर मुस्लिमो के साथ खड़े होकर दहशतगर्दी के खिलाफ खड़ा होना पड़ेगा।छोटी छोटी बातों को लेकर दिए जाने वाले फतवों के बरअक्स सभी फ़िरक़ों और मसलकों के ओलामा को दहशतगर्दी के खिलाफ एक प्लेटफार्म पर खड़ा होना होना पड़ेगा।बेहतर है की अपनी हर कमी के लिए दूसरों को ज़िम्मेदार ठहराने की बजाय हम अपना घर देखें और उसे सुधारें।इस्लाम भी यही सिखाता है.
लेखक एवं एवनटीवी ब्यूरो चीफ़ नासिर ज़ैदी से संपर्क : 9460355786, [email protected]
pradeep k srivastava
June 29, 2015 at 3:39 pm
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Nasir Zaidi
June 30, 2015 at 8:35 am
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Furquan Ahmad Ansari
July 1, 2015 at 1:17 am
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Nasir Zaidi
July 2, 2015 at 6:42 am
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