सत्तर सेकेंड का सीन

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यह एक्शन सीन कुल सत्तर सेकेंड का रहा. इसमें सब कुछ था. सवाल पूछती हुई एक रिपोर्टर थी. उसका कैमरा था. सामने रॉबर्ट वाड्रा खड़े थे. उनके साथ उनके सुरक्षा गार्ड खडे थे. यह एक होटल का गलियारा था जहां पूरा सीन एक ही टेक में शूट हुआ. कहते हैं कि रिपोर्टर कई घंटे से उनका इंतजार करती रही और ज्यों ही राबर्ट वाड्रा जिम से कसरत करके निकले त्यों ही रिपोर्टर ने माइक लेकर पूछना शुरू कर दिया कि हरियाणा वाली जमीन के प्रकरण के बारे में उन्हें क्या कहना है? वाड्रा पहले रिपोर्टर को देखते रहे, फिर तीन बार क्रोध में भरकर कहा: ‘आर यू सीरियस?’ फिर एएनआई की उस रिपोर्टर के हाथ में ठहरे गनमाइक को जोर का मुक्का मारा. गनीमत रही कि रिपोर्टर का गनमाइक उसके हाथ छूट कर नीचे नहीं गिरा. उसके बाद वाड्रा आगे बढ गए और एक आवाज आती रही कि डिलीट कर दो…

इस घटना पर मीडिया बेहद नाराज हुआ. मीडिया बिरादरी ने, चैनल बिरादरी ने और बाकी सब मीडिया ने इस हरकत को अशोभनीय माना और मीडिया की आजादी पर हमला माना. यह हमला था भी. यह बात कई लोगों ने कही  कि वाड्रा का ऐसा गुस्सा एकदम नाजायज था. वे विनम्रता पूर्वक कह सकते थे कि ‘नो कमेंट’; या वे यह भी कह सकते थे कि ‘अभी नहीं, जब अवसर आएगा वे बात करेंगे’; या वे कह सकते थे कि मेरे वकील से बात कर लीजिए या ऐसा ही कुछ कह देते ताकि ऐसा अभद्र सीन न बनता. अगर गलती से ऐसा हो गया तो बाद में वे गलती मानकर मीडिया से सॉरी भी बोल सकते थे. लेकिन उन्होंने ऐसा भी नहीं किया.

वाड्रा की गलती यह थी कि वे बहुत जल्द बौखला गए और गुस्से में भरकर बोल उठे. यही नहीं, उन्होंने माइक को एक झापड़ तक रसीद कर दिया. ऐसा फुटेज मीडिया के मनमाफिक था. बड़े परिवार से संबद्ध बड़े आदमी की बदतमीजी को दिखाने वाली बाइट सबसे आकषर्क बाइट थी. उसे हर चैनल ने जमकर बजाया और कुछ ने इस पर बहस भी उठाई कि यह बदतमीजी है, मीडिया की आजादी पर हमला है, वाड्रा को माफी मांगनी चाहिए.

वाड्रा ने अशिष्ट व्यवहार किया था और इस पर उनकी धुलाई होनी थी, हुई. वाड्रा जिस ताकत के प्रतीक हैं, जिस तरह के संदभरे में उनका नाम आता रहा है, उनके कारण वे सबसे बड़ी खबर बनते हैं. वाड्रा की हिफाजत करने के लिए मीडिया में कांग्रेसी टाइप के लोग आए जबकि एक नागरिक के रूप में उनका निजी सचिव कुछ बोल सकता था और मीडिया की जबर्दस्ती की आलोचना करते हुए वाड्रा  की बदसलूकी के लिए माफी मांग सकता था. कह सकता था कि एक प्राइवेट बंदा जिम से कसरत करके निकल रहा है.

उसे लेकर जमीन की खरीद-फरोख्त से संबधी कई आरोप मीडिया बार-बार प्रसारित कर चुका है. अचानक एक रिपोर्टर आगे आती है और दनाक से सवाल पूछने लगती है तो वाड्रा संभल नहीं पाते और नाराज हो उठते हैं. एक नागरिक को आप इस तरह नहीं घेर सकते. हां, वाड्रा को क्रोध नहीं करना था! यह कहा तो गया लेकिन कांग्रेसी संदीप दीक्षित द्वारा कहा गया कि जो हुआ उसके लिए अफसोस है. लेकिन वाड्रा के निजता के केस में पार्टी प्रवक्ता का बोलना कहां तक संगत था?

हम सब जानते हैं कि अब इस प्रसंग में वाड्रा साहब से सवाल करना बेकार है. यह वाड्रा को ही तय करना है कि वे मीडिया के साथ कैसा सलूक करें- जैसा सलूक करेंगे वैसा फल पाएंगे. उनके साथ किसी की हमदर्दी नहीं हो सकती. लेकिन मीडिया की उस धंधई किस्म की जिद पर गौर करें जो मीडिया को हर हाल में किसी न किसी बड़े आदमी को ‘बाइट देने’ या ‘बुलवाने’ के लिए ‘मजबूर’ करता है. वो बोलेगा तो बाइट मिलेगी, बाइट मिलेगी तो धंधा चलेगा, नौकरी चलेगी.

वाड्रा की नजर से न देखकर अगर हम किसी नागरिक के साथ मीडिया के मान्य व्यवहार की नजर से देखें तो पहला सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या रिपोर्टर ने वाड्रा से मिलने-बात करने का टाइम पहले से लिया हुआ था? अगर समय नहीं लिया गया था और अचानक गनमाइक सामने किया गया तो वाड्रा का नाजायज गुस्सा भी जायज लग सकता है. सत्तर सेकेंड की बाइट का एक कमजोर पहलू यह भी है.

मीडिया का बाइट बनाने का आग्रह किस कदर बढ़ा हुआ है वह इसी से स्पष्ट है कि मीडिया के रिपोर्टर /कैमरामेन किसी प्रेस कांफ्रेंस में जब सवाल करने या एक बाइट लेने के लिए इकट्ठे होते हैं तो अपने-अपने कैमरों को सही जगह लगाने के लिए आपस में हाथापाई तक करने पर उतर आते हैं क्योंकि अगर एंगिल बढ़िया न मिला, अगर बाइट बढ़िया न मिली तो मालिक या बड़े संपादक की डांट पडनी तय है. अंदर की यह बात रिपोर्टर/कैमरामेन की रौबदार छवि को काफी दयनीय बनाती है. वह जो कुछ करता है अपनी रोजी-रोटी, अपने नाम के लिए करता है, इसलिए अपना गनमाइक लेकर किसी न किसी के पीछे लगा रहता है- कोई शिकार मिले और उसकी पौ बारह हो जाएं!

इस प्रकरण में हमें रिपोर्टर और बाइट वाले व्यक्ति के बीच के संबंध को समझने की कोशिश करनी चाहिए. यह संबंध ‘शिकारी और शिकार’ जैसा नजर आता है. रिपोर्टर /कैमरामेन ‘शिकारी’ हैं और जिससे बाइट चाही गई है वह  है ‘शिकार’! आप अपने शिकार के पीछे दौड़ते-भागते हैं और ज्यों ही वह सामने नजर आता है आप गनमाइक बढ़ा देते हैं. वह बचना चाहता है तो आप उसके पीछे दौड़ते हैं और पूछते जाते हैं कि आपका क्या कहना चाहते हैं.

जिसके पीछे भागा जा रहा है उसके पास खबर है यानी वह खबर का स्वामी है. ऐसे में वह अगर पूछने पर जवाब नहीं देता है तो अपने आप लगने लगता है कि दाल में कुछ काला हेागा. अगर कोई मीडिया की इस जबर्दस्ती से नाराज होकर कोई कटूक्ति कर देता है तो मीडिया की आजादी पर हमला मान लिया जाता है. आखेटित बंदा बोला तो मरा, न बोला तो मरा! यह कहां का न्याय है? अपनी रोजी-रोटी की खातिर किसी को बोलने के लिए मजबूर करना कहां का डेमोक्रेटिक राइट हुआ?

लेखक सुधीश पचौरी जाने-माने मीडिया विश्लेषक हैं.



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