अगस्त 2015 में बजरंग बिहारी तिवारी की पहली किताब ‘दलित साहित्य: एक अंतर्यात्रा’ से नवारुण की यात्रा शुरू हुई थी. इतने वर्षों में देखते -देखते 29 किताबों का प्रकाशन संभव हो सका. यह इसलिए भी संभव हुआ क्योंकि तमाम मित्रों का सहयोग और प्रेम नवारुण को मिला. अभी भी नवारुण कई मित्रों का सामूहिक प्रयास ही है. आप भी प्रकाशन के इस अभियान से जुड़ेंगे तो ख़ुशी होगी. अब तक प्रकाशित किताबों का संछिप्त परिचय आपकी सुविधा के लिए दे रहा हूँ और किताबों के आवरण को भी. आपके सुझावों का इंतज़ार रहेगा. आर्डर के लिए 9811577426 पर व्हाट्स एप करें या [email protected] पर लिखें. नवारुण , विद्यार्थियों और बेरोजगारों को अपनी किताबों पर विशेष छूट देता है .
-संजय जोशी
नवारुण’ के प्रकाशन
1) दलित साहित्य : एक अन्तर्यात्रा
आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने दलित अध्ययन को व्यवस्थित रूप देते हुए इसे अखिल भारतीय संदर्भों से जोड़ा है। जन्म से दलित न होने के कारण उनकी दलित आलोचना पर प्रश्नचिह्न लगाए जाते हैं, किन्तु सवाल खड़े करने वाले विद्वान ये बात भूल जाते हैं कि सर्वप्रथम उन्होंने ही यह शिकायत की थी कि गैरदलित आलोचक उनकी अनदेखी कर रहे हैं। उन्हें यह ध्यान भी रखना चाहिए कि आलोचक की दृष्टि सदैव प्रशंसात्मक नहीं हो सकती। किसी गैरदलित की आलोचना में स्वानुभूति के अभाव से कुछ कमी भले रह जाती हो किन्तु आलोचना में तटस्थ होने का जो दुर्लभ गुण है, वह इस अभाव की ज़रूरत से ज़्यादा भरपाई करने में सक्षम है। माँग और आपूर्ति के आँकड़ों के अनुसार ‘दलित साहित्य : एक अंतर्यात्रा’ नवारुण की बेस्टसेलर किताबों की सूची में शामिल है।
2) इसी दुनिया में
वीरेन डंगवाल का पहला कविता संग्रह ‘इसी दुनिया में’ वर्ष 1991 में प्रकाशित हुआ था। लम्बे अरसे तक अनुपलब्ध रहने के बाद इसका दूसरा संस्करण नवारुण से 2015 में पुनः प्रकाशित हुआ। 112 पृष्ठों की इस किताब में उनकी कुछ छोटी कविताएँ, बहुचर्चित लंबी कविता राम सिंह, पी.टी. उषा, तोप एवं इलाहाबाद शहर की स्मृति पर केन्द्रित ‘सड़क’ श्रृंखला की सात कविताएँ संग्रहीत थीं। प्रकाशन के समय इस संग्रह में उनकी दो अन्य कविताएँ भी शामिल की गयीं।
वीरेन डंगवाल के इस पहले संग्रह में उनकी अनेकों यादगार कविताएँ मौजूद हैं और यह संकलन पाठकों द्वारा हाथोंहाथ लिया गया।
3) प्रतिरोध
सन 2016 में असहिष्णुता के विरोध में लेखकों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों द्वारा पुरस्कार वापसी का लम्बा सिलसिला चला था। वर्तमान सरकार एवं व्यवस्था का प्रतिरोध कर रहे 118 लेखकों, कलाकारों के आधिकारिक वक्तव्यों का संकलित दस्तावेज है ‘प्रतिरोध’।
4) एक पाठक के नोट्स
कुबेर दत्त का व्यक्तित्व बहुआयामी रचनात्मक प्रतिभा से सम्पन्न था। मूल रूप से वे कवि होने के अलावा एक विशिष्ट गद्यलेखक, संस्मरणकार एवं चित्रकार भी हैं। ‘एक पाठक के नोट्स’ कुबेर दत्त के उन समीक्षापरक आलेखों का संकलन है जो साहित्यिक पत्रिका ‘कल के लिए’ में 1999 से 2011 यानी उनकी मृत्यु से कुछ समय पूर्व पर्यन्त प्रकाशित होते रहे। कुबेर दत्त में साहित्यिक, सांस्कृतिक कर्म के प्रति एक दुर्लभ किस्म की संवेदनशीलता थी। ‘एक पाठक के नोट्स’ रचनाकर्म के प्रति उनकी उसी संवेदनशीलता की बानगी है। वे बड़ी सहजता से उल्लेखनीय रचनाओं, पुस्तकों के कथ्य और रचनाकार की शख्सियत पर चर्चा करते हुए पाठकों को इस दुनिया की व्यवस्था और पेचोखम से अवगत कराते हैं। समकालीन विषयों के साथ ही कविताओं, ग़ज़लों और फिल्मों की विवेचना भी वे उसी सरल कौशल से करते हैं।
कुबेर दत्त का गद्य एक प्रतिबद्ध साहित्यिक सांस्कृतिक कार्यकर्ता का गद्य है जो पाठक और आलोचक दोनों को अपने ज्ञान के दायरे बढ़ाने के लिए प्रेरित करता है।
5) झारखंड आंदोलन के दस्तावेज़: खंड एक 【वीर भारत तलवार 】
झारखंड आंदोलन पर वीर भारत तलवार द्वारा सहेज कर रखे गए दस्तावेज़ों का यह संकलन उन्हीं द्वारा सम्पादित है। इन दस्तावेजों से गुजरते हुए पाठक उन पार्टियों के चारित्रिक वैषम्य को देखकर हैरान रह जाएंगे जिन्होंने लम्बे समय तक झारखंड आंदोलन के नाम पर संघर्ष किया। झारखंड मुक्ति संग्राम से जुड़े प्रमुख संगठन, जिनसे वहाँ की जनता को अपार आशाएँ रहीं, सत्ता प्राप्ति के बाद वही सब कुछ करते रहे जो सदियों से होता चला आया है। न प्राकृतिक संसाधनों का अवैध दोहन रुका, न वहाँ के मूल निवासियों के कठिन जीवन में कहीं कोई छोटी सी आशा की किरण जगी। असंगठित मजदूरों को संगठित करने, लघु तथा कुटीर उद्योग धंधों की स्थापना, जंगली उत्पादन पर आधारित उद्योग एवं शिक्षा को निःशुल्क एवं अनिवार्य बनाने और निजी उद्योगों को स्थानीय जरूरतों से जोड़ने जैसी तमाम घोषणाएँ स्वतंत्र राज्य बनने और सत्ता सुख मिलते ही भुला दी गईं। झारखंड और आदिवासी आंदोलन के नाम पर राजनीति करने वाले इन सारे संगठनों के वैचारिक दिवालियेपन ने वहाँ की गरीब जनता के दुःख दर्द को कम करने की बजाय बढ़ाया ही है।
वीर भारत तलवार ने झारखंड आंदोलन के समय के इन दस्तावेजों को इसी आशा के साथ संग्रहीत किया है कि आगामी पीढ़ी इन्हें पढ़कर इस भूमि से जुड़ी समस्याओं और राजनीतिक पतन को रेखांकित कर सके और संभवतः यहीं से उम्मीद की कोई नई राह भी निकले।
6) बचा हुआ नमक लेकर
कुबेर दत्त में कविता-कर्म की गहरी समझ थी। उनके लेखन में भी वही खुलापन था जो उनकी शख्सियत में। उनकी बेचैनी कला को जीवन से जोड़ने की थी कि- ” भाषाएँ होंगी असंख्य, पढ़ जिसे सकेंगे अनपढ़ भी।” कवि-मीडियाकर्मी होने के साथ साथ ही वे बेहतरीन गद्य-लेखक और चित्रकार भी थे। साहित्यिक- सांस्कृतिक कर्म के प्रति एक दुर्लभ किस्म की संवेदनशीलता उनके भीतर थी। ‘बचा हुआ नमक लेकर’ नामक यह संग्रह उनकी 1987 से 2011 यानी लगभग ढाई दशक के दौरान लिखी गई असंकलित और अप्रकाशित कविताओं का संकलन है। इसमें गीत, ग़ज़ल एवं मुक्त छंद की लंबी और कई छोटी कविताएँ हैं जिनमें भक्ति आंदोलन से लेकर प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन की काव्य परंपरा की स्पष्ट अनुगूँज है।
अपनी कविता को कुबेर दत्त जहाँ जनता की आवाज़ बनाना चाहते हैं वहीं आर्थिक उदारीकरण, सूचना साम्राज्य और आक्रामक उपभोक्तावाद के दौर में बढ़ती हिंसा, स्वार्थपरता, धार्मिक पाखण्ड, साम्प्रदायिक कट्टरता, उन्माद, लूट, दमन, राजनैतिक अवसरवाद, समझौतापरस्ती, आम इंसान के जीवन की बढ़ती मुश्किलों और प्रतिरोध की बेचैनी के यथार्थ को उसमें दर्ज करते हैं। परिजन, साथी रचनाकार, कलाकार, प्रकृति, शहर, कस्बा, गांव, समुद्र तट अर्थात सम्पूर्ण जीवन जगत के प्रति इन कविताओं में एक विरल संवेदना मौजूद है।
सिर्फ़ अपने देश ही नहीं, पूरी दुनिया के पीड़ितों के प्रति उनमें गहरी संवेदना थी। सत्ता के दलालों, स्वार्थी महत्वाकांक्षी टटपूँजियों के लिए अपनी रचनाओं में वे तीखा व्यंग्य करते हैं। उनकी ग़ज़लें भी इस विधा के लिए आवश्यक व्याकरण और शिल्प के पैमाने पर खरी उतरती हैं।
7) चुपचाप अट्टहास
प्रसिद्ध कवि लाल्टू का यह संग्रह वर्तमान राजनीतिक एवं प्रशासनिक विकृतियों की शिनाख़्त करते हुए उनके विरुद्ध रचनाकार का प्रतिरोध रचता है और किसी भी राष्ट्र अथवा कालखण्ड में होने वाली अमानुषिक गतिविधियों तथा उनके परिणामों के प्रति हमें आगाह भी करता है।
उनका यह संकलन हत्यारों के अट्टहास के शिकार धरती के प्रत्येक प्राणी को समर्पित है, अतः इस संग्रह को तमाम मानव विरोधी शक्तियों के विरुद्ध कवि के प्रतिरोध के रूप में देखा जाना चाहिए।
इस किताब में छल और अत्याचार से भरे अपने मस्तिष्क के प्रयोग से आम इंसानों के जेहन पर अधिकार कर लेने वाले एक शैतान का एकालाप है तो एक शासक के रूप में जनता के साथ उसके संवाद और विवाद की तेज़तर्रार छवियाँ भी। समर्थ कवि लाल्टू के इस कविता-संग्रह ‘चुपचाप अट्टहास’ की समस्त कविताएं वस्तुतः एक ही शृंखला की कड़ियाँ हैं। संभवतः इसीलिए कवि ने इन कविताओं को अलग-अलग शीर्षक देने की जगह क्रम संख्या के आधार पर रखा है।
8) मैंने पाले सुंदर हारिल
‘मैंने पाले सुंदर हारिल’ की लेखिका इंदु बाला मिश्र हिंदी पाठकों के लिए एक ऐसा अपरिचित नाम है जिसे दशकों पहले ही अपने अस्तित्व में आ जाना था। जीवन की जद्दोजहद में इंदु जी की कविताएँ कहीं गुम हो गयीं और साथ ही गुम हुई कविताओं को लेकर एक नवयुवती की उत्कंठ इच्छा जिसने उसे जीवन के तमाम झंझावातों से बचाए रखा। उम्मीद है हिंदी के नए पाठकों को कविताओं को लेकर यह बेचैनी रचनात्मक रूप से परेशान करेगी और कविताओं की जमीन को पकड़कर चलने का आग्रह भी।
नवारुण ने इस किताब को ऐसे विशिष्ट रूपाकार में प्रकाशित किया है कि कोई भी कविता प्रेमी पाठक इसे उपहारस्वरूप पाकर आनंदित होगा।
9) विज्ञान की दुनिया
विज्ञान जैसे दुरूह समझे जाने वाले विषय को अपने सरल, सरस लेखन द्वारा बच्चों और सामान्य पाठकों के बीच लोकप्रिय बनाने में देवेंद्र मेवाड़ी का उल्लेखनीय योगदान है।
देवेंद्र मेवाड़ी की भाषा और शिल्प बनावटीपन से दूर बेहद सरल और सम्प्रेषण की दृष्टि से कारगर है। किस्सागोई के अंदाज़ में लिखी गयी यह किताब न सिर्फ़ बच्चों बल्कि विज्ञान की दुनिया को करीब से समझने की इच्छा रखने वाले हर पाठक के लिए उपयोगी है। विषयानुसार प्रयुक्त चित्रों के कारण यह पुस्तक आकर्षक और संग्रहणीय बन पड़ी है।
10) नई खेती
रमा शंकर यादव ‘विद्रोही’ के इस बहुचर्चित संकलन में उनकी वो तमाम कविताएँ उपस्थित हैं जिनके कारण उनकी एक निराले कवि के रूप में पहचाने गए।
विद्रोही का जीवन चाहे जितना अराजक और असंतुलित रहा हो, अपनी कविताओं में वे पूरी तरह एक मुक़म्मल कवि दिखाई पड़ते हैं। उनकी कविता में व्यक्तिगत सुख, दुःख की बजाय समष्टि की चिन्ता है। उनकी आस्था समूह के प्रति है। सामान्य बोलचाल की भाषा में गंभीर आशय की कविताएँ लिखने वाले विद्रोही इतिहास, मिथक और समकालीनता को इतनी कुशलता से साध लेते हैं कि साधारण पाठक भी उनसे सहजता से जुड़ जाता है।
11) रूसी क्रांति और साहित्य संस्कृति
1917 की रूसी क्रांति मानव इतिहास की कुछ युगांतरकारी घटनाओं में से एक है जिसने पूरी दुनिया को प्रभावित किया।
मार्क्स एंगेल्स को उम्मीद थी कि आगे बढ़े हुए देशों में भी मजदूर क्रांति होगी किन्तु सबसे प्रभावशाली और सशक्त प्रयास रूसी मजदूर वर्ग के नाम पर दर्ज हुआ। क्रांति ने जनता के शासन की संस्था के रूप में सोवियतों को आकार दिया। सार्वभौमिक मताधिकार पर आधारित इन सोवियतों ने पूरी क्रांति में बेहतरीन भूमिका निभाई।
रूसी क्रांति के कारण दुनिया भर के उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों के साथ घनिष्ठ सम्बंध कायम हुए और पूरे विश्व के प्रगतिशील बौद्धिकों और किसान मजदूर आंदोलनों का वैचारिक जुड़ाव सोवियत संघ के साथ बना।
रूसी क्रांति को सदैव विपरीत परिस्थितियों से जूझना पड़ा। पूंजीवाद के साथ उसकी निरंतर लड़ाई के परिणामस्वरूप उस प्रयोग और सपने में तमाम विकृतियों का जन्म हुआ। लगभग सात आठ दशक तक जूझने के बाद आंतरिक और बाह्य समस्याओं के आगे इस कोशिश ने दम तोड़ दिया। कहते हैं कि वर्तमान के सबसे गंभीर युद्ध अतीत के नाम पर लड़े जाते हैं। मौजूदा समय के संघर्ष में इस किताब को बतौर एक योगदान देखा जाना अपेक्षित है। इस किताब को मार्क्सवादी अध्येता गोपाल प्रधान ने तैयार किया है।
12) कविता वीरेन
वीरेन डंगवाल हमारे समय के शायद इकलौते ऐसे कवि हैं जिनकी पैठ कविता के आम पाठक तक भी उतनी ही है जितना खास पाठकों/आलोचकों तक। वीरेन दा आज भले ही सशरीर इस दुनिया में नहीं हैं किन्तु उनकी कविताएँ उसी जीवन्तता और प्रासंगिकता से उनके पाठकों और मित्रों के बीच मौजूद हैं।
किसी स्तंभकार ने उनका मूल्यांकन करते हुए कितनी खूबसूरत टिप्पणी की थी कि “वीरेन डंगवाल की कविताओं में अनुभव की उदात्तता है तो रोज़मर्रा की मामूली चीज़ों के प्रति गहरा लगाव भी। ग्रीष्म की तेजस्विता है तो शरद की ऊष्मा भी।”
इस संग्रह में वीरेन डंगवाल की समस्त प्रकाशित/अप्रकाशित कविताओं के अलावा उनके द्वारा किए गए नाज़िम हिकमत की 40 कविताओं के अनुवाद भी संग्रहीत हैं। ‘कविता वीरेन’ काव्य प्रेमियों के लिए एक सहेजने योग्य धरोहर है।
13) आसिफ़ाओं के नाम
पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत में बलात्कार की घटनाओं में अप्रत्याशित रूप से बढ़ोत्तरी हुई है। हैवानियत की सारी हदों को पार करते हुए दो साल की छोटी सी बच्ची से लेकर अस्सी वर्ष की वृद्धाओं तक के साथ बलात्कार की घटनाएँ अब प्रायः सुनाई पड़ने लगी हैं। जम्मू के कठुआ इलाके में आठ साल की मासूम बच्ची आसिफ़ा के साथ घटी ऐसी ही एक घोर अमानवीय दुर्घटना ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया। इस घटना के बाद दोषियों को बचाने के लिए जिस तरह की राजनैतिक मक्कारियाँ की गईं , उसने हमारी सभ्यता, संस्कृति और मनुष्यत्व पर बहुत बड़े प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए हैं। इस उच्च प्रतिष्ठित मानव समाज के गौरवशाली अतीत और उपलब्धियों के बरक्स आज के चिंताजनक परिदृश्य पर गम्भीर विचार और गहन पड़ताल किए जाने का समय आ गया है। हमें इस तथाकथित आधुनिकता और विकास की भी समीक्षा करनी चाहिए कि विकसित होने का क्या यही प्रमाण है! यदि आधुनिक मनुष्य होने की यही निशानी है तो इसे सिरे से ख़ारिज कर दिया जाना चाहिए।
बच्ची के पिता का यह बयान कि “हमने उसे हर जगह ढूँढ़ा सिवाय मंदिर के” में जो पीड़ा और विश्वास टूटने का दर्द है, वह शायद कभी न लौटे। आजकल हमारी स्मृति बहुत कमजोर हो गयी है। बड़ी बड़ी बातों को बहुत जल्द भुला देते हैं हम। यह संग्रह इसी दिशा में एक छोटा सा प्रयास है कि हम इन घटनाओं को याद रखें और इसी क्रम में आसिफ़ा के पिता का विश्वास छीजने न दें। आसिफ़ा के प्रति संवेदना एवं श्रद्धांजलि स्वरूप सोशल एवं वैकल्पिक मीडिया पर लिखी गयी इन कविताओं को इस घटना और इससे जुड़े उत्तर प्रसंगों के प्रतिरोध के रूप में भी देखा जाना चाहिए।
14) वर्ण से जाति
भौतिक एवं सामाजिक संरचनाओं के आधार पर वर्ण और जाति का विश्लेषण करती यह किताब मूलतः यालावार्थी नवीन बाबू की एम.फ़िल. थीसिस पर आधारित है। नवीन बाबू इस व्यवस्था की जड़ों का इतिहास तलाशते हुए ऋग्वेद काल से पिछली सदी के उत्तरार्द्ध तक आते हैं।
वे लिखते हैं कि जैसे जैसे समाज विकास की एक अवस्था से दूसरी में आगे बढ़ता है वैसे वैसे असमानताएँ भी बढ़ती जाती हैं। वर्ण और जाति मूलतः दो भिन्न उत्पादन पद्धतियों से जुड़े हुए हैं। प्रारम्भ में वर्ण व्यवस्था सामाजिक वर्गों पर आधारित थी। कालांतर में यह जन्म पर आधारित होती चली गई। पुस्तक के अंत में नवीन बाबू पर केन्द्रित प्रो.मनोरंजन मोहंती, प्रो.वरवर राव, एम.नादराजा, एस.सैमुअल असिर राज, भूपेंद्र यादव और बाला के कुछ यादगार संस्मरण भी शामिल हैं।
15) डॉ अंबेडकर: चिन्तन के बुनियादी सरोकार
बाबा साहब अंबेडकर की उपेक्षा उनके समय में भी होती रही और आज भी उनके विचारों को उपेक्षित कर भावनात्मक प्रतीक के रूप में उनका अधिक प्रयोग किया जा रहा है।
यह पुस्तक बाबा साहब के ग्रंथों का सिलसिलेवार ढंग से मूल्यांकन और बातचीत का एक पड़ाव है। साथ ही यह सामाजिक असाम्यता को उत्पन्न करने वाली व्यवस्था की पहचान भी सुनिश्चित करती है। आज डॉ अंबेडकर के विचारों को स्वीकार करने और उन्हें समग्रता से समझने की आवश्यकता है। अब परंपरागत सत्ता संरचना टूटी है। गैर दलित समाज को विवश होकर दलित समाज की तरफ ध्यान देना पड़ रहा है। यह किताब भागीदारी के सवालों पर सोचने का रास्ता देती है। यही डॉ अंबेडकर के चिंतन के मूल में था। यह देश मात्र बहुसंख्यक लोगों का ही नहीं है। संपादक रामायन राम ने इस किताब में इन बिंदुओं पर व्यवस्थित चर्चा की है।
सिर्फ़ हार्डबाउंड संस्करण उपलब्ध.
16) एका : राजीव कुमार पाल
‘एका’ अवध के उस बिसरा दिए गए किसान आंदोलन की गाथा है जो बेदखली के अमानवीय कानून के प्रतिरोध में प्रारम्भ हुआ था। 1920 से 1928 की कालावधि के दौरान पूरे अवध प्रान्त के किसानों को ‘एका’ आन्दोलन के जरिये एकत्र करने का श्रेय जाता है बाबा रामचंदर और क्रांतिवीर मदारी पासी को। इस आयोजन में इन्हें झिंगुरी सिंह, सहदेव सिंह, बृजपाल सिंह, राम गुलाम पासी, अमोल शर्मा, झिनकू सिंह, देवनाथ त्रिपाठी आदि साथियों का अनन्य सहयोग मिला था। यह किताब इस पूरे कालखण्ड के दौरान घटे तमाम ऐतिहासिक प्रसंगों और उस दौर की सहेजने योग्य यादों के पुनर्स्मरण का एक शानदार प्रयास है।
राजीव कुमार पाल की इस महत्वपूर्ण किताब का आवरण जाने माने चित्रकार सोमनाथ होर के प्रसिद्ध चित्र ‘खुली बैठक : तेभागा डायरी’ के रेखांकन पर आधारित है।
17) समय जुलाहा
जाने माने कवि, आलोचक, पत्रकार और दूरदर्शन के प्रोड्यूसर कुबेर दत्त 2009 से 2011 तक महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा की पत्रिका ‘ पुस्तक-वार्ता ‘ में ‘समय जुलाहा’ नामक एक स्तम्भ लिखते रहे थे। संस्मरण, रिपोर्ताज, निबंध, आलोचना और समीक्षा जैसी विभिन्न विधाओं में लिखी गयी उन्हीं रचनाओं का पुस्तकाकार संचयन है- ‘समय जुलाहा’।
सुधीर सुमन और श्याम सुशील द्वारा संपादित यह किताब चार खंडों में विभाजित है। भाषा- साहित्य खंड में तमाम साहित्यकारों, उनसे जुड़ी घटनाओं, एवं उल्लेखनीय किताबों का शुमार है।
संगीत/गायन/रंगकर्म खंड में संगीत की विविध धाराओं, गायकों, कलाकारों पर लिखे गए संग्रहणीय आलेख हैं। गिर्दा पर केन्द्रित उनका संस्मरण विचलित कर जाता है।
इसी प्रकार ‘सिनेमा/दूरदर्शन’ एवं ‘चित्रकला’ खंडों में इन विधाओं से जुड़े विभिन्न कलाकारों, निर्देशकों, फ़िल्मों और समकालीन रचनात्मक धाराओं का महत्वपूर्ण उल्लेख है।
18) शैक्षणिक परिसरों की घेराबंदी: बोध, प्रतिरोध, आज़ादी
पिछले दो दशकों के दौरान भारत की शिक्षा प्रणाली में गतिरोध और पतन के ऐसे दृश्य उपस्थित हुए जिन्होंने शिक्षण व्यवस्था को आमूलचूल हिलाकर रख दिया है। सार्वजनिक संस्थाओं का क्षरण, स्कॉलरशिप में कमी, 40 प्रतिशत से लेकर 1100 प्रतिशत तक की गई बेतहाशा फ़ीस वृद्धि से देश के लगभग सारे विश्वविद्यालयों के छात्र प्रभावित हुए और अन्ततः जब वे इसके विरोध में धरना प्रदर्शन पर उतरे तो मौजूदा सरकार ने कठोरता से उनका दमन किया। स्थितियों के निरन्तर बिगड़ते जाने से स्थितियाँ क्रमशः भयावह होती गयीं और अब पूरे देश में अशांति और आतंक फैल चुका है।
राष्ट्रीय स्तर के संगठन ‘पीपुल्स कमीशन ऑन श्रृंकिंग डेमोक्रेटिक स्पेस’ ( पीसीएसडीएस) के 2016 के राष्ट्रीय सम्मेलन में यह निर्णय लिया गया कि शैक्षणिक संस्थानों और प्राकृतिक संसाधनों से जुड़े विषयों पर कार्यरत मानवाधिकार रक्षकों पर निरंतर हो रहे हमलों के लिए दो न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) होने चाहिए। दिल्ली में तीन दिनों के दौरान सम्मानित निर्णायक मंडल के सामने 17 विशेषज्ञों, 49 छात्रों और फ़ैकल्टी की मौखिक गवाहियों के लिप्यान्तरण स्वरूप निर्मित यह पुस्तक शैक्षणिक संस्थानों के वर्तमान परिदृश्य और उनकी ज्वलंत समस्याओं का दस्तावेज भी है।
19) मैं एक कारसेवक था
दलित एक्टिविस्ट भंवर मेघवंशी की यह आत्मकथा 2019 की बेस्टसेलर किताबों में शामिल है। महज़ 25 दिनों के भीतर इसका पहला संस्करण समाप्त हो गया था। भंवर मेघवंशी किशोरावस्था में आर.एस.एस. से जुड़े और पाँच वर्ष बाद अलग होकर मजदूरों और दलितों की बेहतरी के लिए प्रयासरत संगठनों के साथ पूर्णकालिक रूप से कार्य करते रहे।
इस आत्मकथा के जरिये भंवर मेघवंशी अपने पाठकों को न सिर्फ़ अपनी जीवन यात्रा पर ले जाते हैं बल्कि आर.एस.एस. की कार्यप्रणाली और उसकी उन आंतरिक गतिविधियों को भी सार्वजनिक करते हैं जिनके दम पर आज यह संगठन सत्ता के शीर्ष पर मौजूद है।
20) कुमाऊनी शब्द संरचना
कुमाऊनी भाषा और व्याकरण की संभवत पहली किताब. व्यवहारिक प्रयोगों से यह किताब कुमाऊनी भाषा में रूचि रखने वालों के लिए एक जरुरी पुस्तक है.
21) ‘टिकटशुदा रुक्का’
प्रतिष्ठित पत्रकार और लेखक नवीन जोशी का ‘दावानल’ के बाद यह दूसरा उपन्यास है। उत्तराखंड के शिल्पकार समाज के हालात और उससे जूझते हुए एक दलित युवक की सामाजिक–राजनीतिक चेतना के विकास एवं अंतर्द्वंद की इस कहानी को पढ़ते हुए हम पहाड़ों के जीवन को बहुत करीब से देख पाते हैं। पहाड़ के बाशिंदों की यह जीवन गाथा किसी बाहरी व्यक्ति को भले ही अविश्वसनीय लगे किन्तु पहाड़ के बाशिंदों की कई पीढ़ियों का यह मार्मिक सत्य उन्हें भीतर तक विचलित करेगा।
नवीन जोशी के इस उपन्यास में अंतश्चेतना को विचलित करती इन घटनाओं के समानांतर ही मनुष्यत्व, परस्पर प्रेम और सहज अनुराग की मोहक छवियाँ भी मौजूद हैं।
22 से 25 तक ‘डॉ. अम्बेडकर: बुनियादी पाठ’ इस श्रृंखला के अंतर्गत प्रकाशित चार पुस्तिकाओं के नाम हैं- ‘भारत में जाति प्रथा’, ‘जातिप्रथा उन्मूलन’, ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ तथा ‘बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स’】
22) ‘भारत मे जातिप्रथा’ डॉ अम्बेडकर द्वारा कोलंबिया विश्वविद्यालय में 1916 में नृविज्ञान के छात्र की हैसियत से प्रस्तुत किया गया शोध पत्र है। इसमें उन्होंने भारत में जाति व्यवस्था की आरम्भिक परिस्थितियों, उसकी उत्पत्ति, विकास तथा व्यापक विस्तार की प्रविधियों पर चर्चा की है। जाति व्यवस्था किस तरह स्त्रियों के अधिकारों पर पितृसत्ता के नियंत्रण का परिणाम है, यह इस लेख का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है।
23) ‘जातिप्रथा उन्मूलन’ डॉ. अम्बेडकर का बहुचर्चित लेख है जो 1936 में लाहौर के ‘जातपांत तोड़क मंडल’ के वार्षिक अधिवेशन में दिए जाने वाले भाषण का लिखित रूप है। इसमें व्यक्त किये गए विचारों को सहन न कर सकने की स्थिति में जाति पांति तोड़क मंडल ने बाबा साहब से इस भाषण में परिवर्तन करने को कहा। जब डॉ आंबेडकर ने ऐसा करने से इंकार किया तो वह सम्मेलन रद्द कर दिया गया था। इस भाषण में डॉ. अम्बेडकर ने जाति प्रथा के भारतीय समाज पर दुष्प्रभाव की चर्चा करते हुए, जाति को सही ठहराने या उपेक्षा करने वालों से बहस करते हुए इसे भारतीय समाज और हिन्दू धर्म दोनों के लिए घातक बताया। वेदों और शास्त्रों से छुटकारा पाकर अंतरजातीय विवाह के जरिये जाति उन्मूलन की एक सम्भव राह भी उन्होंने सुझाई।
24) ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ मूलतः डॉ. अम्बेडकर द्वारा संविधान सभा के समक्ष प्रस्तुत किये जाने के लिए एक ज्ञापन के रूप में तैयार किया गया था। उसे उन्होंने संविधान के अनुच्छेदों व धाराओं के रूप में क्रमबद्ध किया था, साथ ही परिशिष्ट में स्पष्टीकरण हेतु टिप्पणियां भी संकलित थीं। इस ज्ञापन के जरिये बाबा साहब ने भारत में राजकीय समाजवाद लागू करने का प्रस्ताव रखा था, जिसके लिए जमीन तथा बड़े उद्योगों के राष्ट्रीयकरण की बात की थी।साथ ही अस्पृश्यों को अल्पसंख्यक का दर्जा देते हुए पूना समझौते से निकले आरक्षण के फॉमूले की जगह पृथक निर्वाचन व दोहरे मताधिकार तथा ‘कम्युनल अवार्ड’ लागू किये जाने की आवश्यकताओं पर भी विस्तृत चर्चा की गई है।
25) ‘बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स’
यह आलेख मूल रूप से नेपाल में अन्तरराष्ट्रीय बौद्ध सम्मेलन के समय डॉ. अम्बेडकर द्वारा दिया गया भाषण है। बाद में यह पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुआ। इसमें उन्होंने बुद्ध तथा कार्ल मार्क्स के दर्शन तथा व्यवहार के बीच की असमानताओं तथा समानताओं की चर्चा की है। वे बुद्ध को हिंसा से मुक्त साम्यवादी मानते हैं तथा हिंसा तथा सर्वहारा की तानाशाही के कारण मार्क्सवाद की आलोचना करते हैं। वे मार्क्सवादियों को बौद्ध धर्म से सीखने की बात करते हैं और साम्यवाद के आदर्शों को उचित मानते हुए बुद्ध और मार्क्स के बीच साध्य व साधन के आधार पर तुलना करते हैं। यह लेख सिद्ध करता है कि डॉ आंबेडकर मानव कल्याण के लिए समतावादी मूल्यों के पक्षधर थे, इसीलिए वे बुद्ध व मार्क्स को कसौटी पर परखते हैं।
26) केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य
बीसवीं शताब्दी का पहला दशक केरल रेनेसां के आरंभ का साक्षी बना था। इस रेनेसां में ही केरल के ‘मॉडल स्टेट’ बनने की संभावना का निर्माण हुआ। स्वयं रेनेसां के बीज दासप्रथा उन्मूलन की लंबी प्रक्रिया में मौजूद थे। रेनेसां का दौर एक घोर जातिवादी समाज व्यवस्था के दरकने का दौर है। डॉ. पाल्पू ने जिस समतामूलक समाज का सपना देखा था उसे सुनियोजित ढंग से आगे बढ़ाने का कार्य उनके संगठन एसएनडीपी योगम् ने किया। श्रीनारायण गुरु रेनेसां के नायक के रूप में देखे गए। महाकवि कुमारन का जुड़ाव भी आशान योगम् से ही था। इसके बाद दलित जननायकों का आविर्भाव हुआ। अय्यनकाली और पोयिकयिल योहन्नान ने अपने-अपने तरीके से दलित जनता को जागृत और संगठित करने का प्रयास किया। इसके ठीक बाद केरल प्रदेश में कम्युनिस्टों की सक्रियता बढ़ी। राज्य के पुरोगामी तबके, खासकर दलित जनता ने कम्युनिस्ट आंदोलन का भरपूर सहयोग किया। सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन से गुजरते हुए साम्यवाद राजनीतिक आंदोलन में तब्दील हुआ और एकीकृत राज्य के पहले चुनाव ने कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनायी। इस सरकार के अजेंडे पर क्या था? कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों को प्रांतीय सरकार ने किस हद तक लागू करने में सफलता पायी? इन नीतियों और कार्यक्रमों का दलित जनता पर किस तरह का असर पड़ा? भूमि सुधार के प्रयासों का क्या परिणाम रहा? परवर्ती सरकारों और परिवर्तन-विरोधी ताकतों ने क्रांति चक्र को किस तरह अवरुद्ध करना चाहा? इन तमाम सवालों के जवाब आपको इस किताब में मिलेंगे। मलयालम दलित साहित्य की प्रकृति और प्रवृत्ति का आलोचनात्मक विवेचन किताब की ख़ासियत है। विभिन्न साहित्यिक विधाओं में दलित लेखन का विकास व्यवस्थित रूप से इस पुस्तक में प्रस्तुत किया गया है। सहज भाषा और ईमानदार शोधदृष्टि ‘केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य’ पुस्तक को पठनीय बनाते हैं।
27) लाकडाउन में मजदूर: भूखा, बेरोज़गार (चित्रकथा)
54 पृष्ठों की यह चित्रकथा 42 श्रमिकों की कथा है जो लाकडाउन में मजबूर कर दिए गए, अपने- अपने काम –धंधों से हाथ धो बैठे. इन्हें बरहमपुर, पश्चिम बंगाल के चित्रकार कृष्णजित सेनगुप्ता ने तैयार किया है और हर चित्र को कुछ पंक्तियों से और अर्थपूर्ण बनाने की कोशिश की गई है.
28) नन्ही दोस्त के नाम (कविता)
‘नन्ही दोस्त के नाम’ संग्रह की कविताएँ जहाँ एक तरफ़ विविधताओं से भरे जीवनानुभवों से समृद्ध हैं वहीँ दूसरी तरफ़ श्रेष्ठ कविता के प्रतिमानों पर भी खरी उतरती हैं. ये कवितायें उद्देश्यपरकता की कसौटी पर भी उतनी ही खरी हैं जितनी उच्चतर काव्यशिल्प पर. सत्तर के दशक की क्रांतिकारी कविताओं से यह कविताएँ इस अर्थ में एकदम भिन्न हैं कि इनमें अपनी बात कहने के आवेश में कवि ने बात कहने के लहजे को नज़रअंदाज नहीं कर दिया है. फूल के रंग और गंध की तरह कवि की विचारधारा उसकी कविता का ही हिस्सा बन गई है.
ये कविताएँ पाठकों को सोचने को मजबूर करती हैं और क्रांतिकारी गुस्से से भरती हैं और इस सड़ी हुई समाज व्यवस्था को बदल देने और बेहतर समाज बनाने के लिए प्रेरित करती हैं.
29) किसानों का दिल्ली पड़ाव (दस्तावेज़)
अखिल भारतीय किसान महासभा के राष्ट्रीय सचिव पुरुषोत्तम शर्मा द्वारा 30 पृष्ठों की यह पुस्तिका बहुत विस्तार से और सरल भाषा में भारत सरकार द्वारा 2020 में निर्मित हुए तीन कृषि क़ानून के दूरगामी प्रभावों की चर्चा करती है और और 26 नवम्बर 2020 से दिल्ली में शुरू हुए किसान आंदोलन से भी परिचय कराती है.