रंजन श्रीवास्तव-
आर्थिक जगत में पिछला हफ्ता ग्रोथ और महंगाई पर चर्चा में गुजरा। दुनियाभर में कंपनियों ने तिमाही नतीजे पेश किये। वे उम्मीद से बेहतर थे। उधर अमेरिकी फेड चेयरमैन श्री पॉवेल ने दो दिनों तक अमेरिकी सीनेट को ग्रोथ और महंगाई से जुड़े सवालों के जवाब दिए।
वे अपने पुराने सोच पर कायम थे कि महंगाई एक अल्पकालिक समस्या है। कोरोना के कारण सेवाओं और वस्तुओं की आपूर्ति में जो बाधाएं आई हैं, यह उनका परिणाम है। देर-सबेर ये समस्याएं दूर हो जाएंगी और महंगाई अपने पुराने स्तर पर आ जायेगी। फिर भी, उनके वक्तव्यों में पहले वाला दम नहीं था। वे भी चिंतित थे कि महंगाई उम्मीद से ज्यादा देर तक टिकी हुई है।
बाज़ार उनके हर बयान के साथ आशा-निराशा में झूलता रहा और आखिरकार शुक्रवार को अमेरिकी बाज़ारों ने भारी गिरावट के साथ दम तोड़ दिया। यह तब हुआ, जबकि लगभग सभी अमेरिकी कम्पनियों ने उम्मीद से बेहतर तिमाही रिज़ल्ट दिए।
बाजार को ग्रोथ और महंगाई पर श्री पॉवेल की बातों पर यकीन क्यों नहीं हो रहा? इसकी कुछ वाजिब वजहें हैं। बात सिर्फ कोरोना से जुड़ी नहीं है। सच है कि कोरोना का डेल्टा वेरिएंट अमेरिका में बढ़ रहा है। श्री बाइडेन के स्टिमुलस ने डिमांड पैदा की है, जबकि आपूर्ति अभी बाधित है। यह गैप महंगाई को बढ़ावा दे रहा है। पर बात इससे बड़ी है।
दुनिया पिछले एक दशक में वैश्वीकरण से पीछे हटी है। अमेरिका में ट्रम्प ने इसे बढ़ावा दिया और भारत में मोदी सरकार ने. आत्मनिर्भरता के नारे ने कंपनियों पर उत्पादन के राष्ट्रीयकरण का दबाव बनाया है। वैश्वीकरण के कारण उत्पादन को कहीं भी शिफ्ट कर कीमतों को नियंत्रित करने की जो सुविधा कंपनियों को एक दशक पहले तक थी, वह धीरे-धीरे घट रही है। उत्पादन निम्न मज़दूरी से उच्च मज़दूरी वाले क्षेत्रों की तरफ शिफ्ट हुआ है। यह कीमतों में आग लगा रहा है।
दूसरे विकसित देशों में युवा आबादी कम है। वृद्ध होती आबादी का खर्च ज्यादा है। कोरोना ने इसे बढ़ाया ही है। इस वजह से मजदूरी बढ़ने का दबाव है। ऐसा अनुमान है कि वैश्वीकरण से स्वदेशीकरण की यह प्रक्रिया महंगाई को तेज करेगी। चूंकि राजनीति को यह स्वदेशीकरण पसंद है, इसलिए इस समस्या से पार पाना मुश्किल है। कोरोना तो देर सबेर चला जायेगा, पर आत्मनिर्भरता की यह बीमारी देर तक रहेगी। जब तक ऐसा रहेगा, महंगाई नहीं रुकेगी, ग्रोथ भी सवालों के घेरे में रहेगा।