दिलीप खान-
भारत कभी महान देश नहीं था। महानता एक भ्रम है। कोई मुल्क महान नहीं है, लेकिन नरेन्द्र मोदी के दिल्ली आगमन की तैयारियों के समय से देश में सौहार्द्र का माहौल लगातार बिगड़ा। Pankaj Mishra सर ने कल सही लिखा कि लोग चेता रहे थे। कह रहे थे कि असहिष्णुता बढ़ रही है। न सरकार ने माना, न उनके समर्थकों ने।
अलबत्ता, ऐसा कहने वालों के पीछे मोदी समर्थक ‘देशविरोधी-देशविरोधी’ चिल्लाते हुए हुमच उठते थे। उन्हें मज़ा आ रहा था। उन्हें लग रहा था कि पहली बार हिंदुओं की मनमानी चल रही है। लिंचिंग होती रही, सरकारी पार्टी के लोग लिंच करने वालों को सम्मानित करते रहे। भड़काऊ बयानों का सिलसिला बढ़ता गया, सरकार की तरफ़ से ऐसे लोगों को खुली छूट मिलती रही।
‘धर्म संसद’ के नाम पर एक समुदाय के ख़ात्मे का आह्वान करने के बावजूद पुलिस ने कुछ नहीं किया।
‘गोली मारो सालों को’ जैसे नारे ऑन कैमरा लगाने वालों का कुछ नहीं बिगड़ा। वैमनस्यता फैलाने ‘के बावजूद’ लोकप्रिय होने का सिलसिला, वैमनस्यता फैलाने ‘के लिए’ लोकप्रिय होने में तब्दील होता गया।
एक से एक ज़हरीले लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ नफ़रत की बदौलत देश भर में रातों-रात ‘मशहूर’ हो गए। ये सब खुलेआम हो रहा था। हर कोई देख रहा था। सरकार अगर इस पर चुप रही, तो ‘वह ऐसा होने देना चाहती थी’ के अलावा इसका और क्या मतलब होगा?
टीवी पर हिंदू-मुस्लिम के नाम पर सबसे ज़हरीले लोगों को पर्दे पर बुलाया जाता रहा। ऐंकर्स उन्मादी होकर चिल्लाते रहे, सरकार ऐसे ऐंकर्स को पुचकारती रही। विदेशी मीडिया ने भारत की स्थिति को ख़राब बताया तो इसे सरकार और उसके समर्थक ‘विदेशी षडयंत्र’ कहकर आगे बढ़ते रहे।
मीडिया फ़्रीडम, मानवाधिकार, बराबरी, रोज़गार, शिक्षा सबमें भारत पिछड़ता गया। सरकार हर रिपोर्ट को या तो झुठलाती रही या उसे षडयंत्र बताती रही। यहां तक कि अपनी ही संस्था NSSO के डेटा को झूठ कह दिया। दंगे-फ़साद में उलझे लोग इन सबको ‘देश निर्माण में होने वाली तकलीफ़’ कहकर सीना फुलाते रहे।
हत्यारे अब मुस्लिम निकले हैं, तो रातों-रात देश में असहिष्णुता नज़र आने लगी है सबको। जब ज़हर बढ़ेगा तो ज़ाहिलों की फ़ौज सिर्फ़ हिंदुओं तक सीमित रहेगी, ये भरोसा कहां से लाए थे?
इस स्थिति के लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ मौजूदा निज़ाम ज़िम्मेदार है। नाम लेकर कहूं तो नरेन्द्र मोदी और अमित शाह। यही दोनों देश चला रहे हैं। बाक़ी, किसी को ज़िम्मेदार ठहराना चालाकी है।