अनुभव सिन्हा-
बहुत सारे लोग कहते हैं कि अच्छी फ़िल्में और हिट फ़िल्में दो अलग चीज़ें हैं। ये उत्तर एक त्रासदी है। अगर फ़िल्म अच्छी है तो हिट होनी चाहिए। आपकी हिट और अच्छी फ़िल्मों की परिभाषाएँ अलग हैं पर वो अलग बहस है। अगर अच्छी फ़िल्म हिट नहीं है तो ज़िम्मेदारी आपकी है। क्यों फ़िल्म हिट तो आपके थियेटर जाने से होती है। और अगर अच्छी है तो आपको थियेटर जा के देखनी चाहिए। और अगर आप ऐसी फ़िल्मों पर पैसा या समय या effort नहीं लगाना चाहते। तो उन्हें अच्छी कहना बंद कर दीजिये।। ये बात बेजा है कि अच्छी तो है पर मज़ेदार नहीं है, या टाइम पास नहीं है, या गाने नहीं हैं, या जो भी आप चाहें नहीं है तो फिर वो आपके लिये अच्छी नहीं है। मान लीजिए।
फ़िल्म एक कला है। जैसे कविता एक कला है, या पेंटिंग, या फोटोग्राफी या संगीत या खाना बनाना। हर कला का अपना एक माध्यम होता है। अगर किसी निर्माता निर्देशक ने फ़िल्म थियेटर के लिये बनाई तो फिर थियेटर ही उसका असली माध्यम है। और अगर फ़िल्म अच्छी है तो उसके असली माध्यम में ही उसको देखना उसके साथ न्याय होगा।
मुझे याद है गोविंद निहलानी साहब ने एक सीरियल बनाया था ‘तमस’। हिन्दी टीवी का, मेरे ख़याल से, महानतम सीरियल है। भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’ पर आधारित था। उन्हीं दिनों मेरे एक बड़े चचाज़ाद भाई से बात हो रही थी तमस के बारे में। उन्हें बड़ा अच्छा लगा था और उन्होंने उसे VHS पर रिकॉर्ड किया था। मुझसे कुछ एपिसोड छूट गये थे। उस ज़माने में लोग टीवी से टेप पे रिकॉर्ड कर लिया करते थे। हमने piracy शब्द सुना ही नहीं था। बहरहाल। चूँकि मेरे कुछ एपिसोड छूट गये थे तो मैंने उनसे कहा कि मुझे सारे टेप दे दीजिये। उन्होंने एक टेप निकाला और दे दिया। मैंने कहा एक में कैसे अँटेगा? उन्होंने कहा अरे उसमें लंबे लंबे शॉट हैं कि वो साइकिल पे जा रहा है तो जा ही रह है तो मैं बीच बीच में pause कर देता था रिकॉर्डिंग के समय। छोटे में कहें तो उन्होंने गोविंद निहलानी के एक महान शो को देखते देखते Edit कर दिया था। मुझे आशा है कि भैया या तो ये पोस्ट पढ़ नहीं रहे या उन्हें ये बात याद नहीं।
तो लब्बोलबाब यूँ कि शो पसंद बहुत था और इतना कि रिकॉर्ड किया गया पर इतने टेप कौन लगाये। ना। ये नाजायज़ है। जो चीज़ जैसे और जहां के लिये बनायी गई है और अच्छी है तो उसका सम्मान किया जाय। कला है। वरना होगा क्या कि ये जो फ़िल्में आपको अच्छी लगती हैं पर आप टीवी पे देख लोगे ये टीवी पर भी आनी बंद हो जायेंगी। क्योंकि बननी बंद हो जायेंगी। टीवी वाले कहेंगे कि थियेटर में तो चली नहीं तो अच्छी नहीं है, हमें नहीं चाहिए। धीरे धीरे हम बनाना बंद कर देंगे। करना पड़ेगा। मेरी पिछली पाँच में से तीन फ़िल्में आपने भर भर के थियेटर में देखीं तो अपनी शिकायत नहीं कर रहा। जनरल बात कर रहा हूँ। दरअसल मेरे पिछले अवतार की तीन फ़िल्में और इस अवतार की तीन फ़िल्में थियेटर में काफ़ी सफल रहीं तो मैं इस लिहाज़ से बहुत भाग्यशाली हूँ। कम लोग हैं जिनके career में थियेटर की छह फ़िल्में सफल हों और मेरा करियर तो अभी शुरू ही हुआ है। अच्छा ठीक है अभी काफ़ी बचा है बोल देते हैं। सफ़ाई दे रह हूँ कि मैं ‘अनेक’ और ‘भीड़’ की शिकायत नहीं कर रहा। मान लेते हैं कि दोनों अच्छी नहीं थीं। अभी आगे बताता हूँ। देखते जाओ।
अच्छी फ़िल्में क्या होती हैं उस पर बहस नहीं है। हम सब जानते हैं। जो अच्छी लगी वो अच्छी है। हिट फ़िल्म क्या होती है इस पर बात की जा सकती है। हिट आपके लिये नहीं होती। हिट निर्माता, निर्देशक या कलाकारों के लिए होती है। ये नया चलन है कि हर फ़िल्म के box office collection आपको बताये जाते हैं। मैं नहीं कह रहा कि ये झूठ होते हैं। वैसे होते भी हैं। पर वो बात फिर कभी। पर ये आँकड़े बहुत layered होते हैं nuanced होते हैं। हर फ़िल्म के लिए इनका विज्ञान अलग होता है। इसमें मत पड़िये। किसी एक फ़िल्म का दो सौ किसी दूसरी फ़िल्म के दो सौ से बहुत अलग हो सकता है।आप नहीं समझ पायेंगे। बीस साल फ़िल्में बनाने के बाद अब समझ में आना शुरू हुआ है मुझे। और आपको क्या? आप तो अच्छे की सोचिए। जो भी आपकी अच्छे की परिभाषा हो। और अच्छी है तो थियेटर में जा के देखिए। टीवी पर अलग फ़िल्में बन रही हैं। वो भी बहुत अच्छी हैं। पर वो बनाने वालों ने टीवी के लिए बनायी हैं। थियेटर वाली फ़िल्में टीवी पर भी दिखाते हैं कि अगर छूट गई तो वहाँ देख लें आप। पर बनाने वालों ने थियेटर के लिये बनायी थी। उसका मज़ा थियेटर में है। वहीं देखें वरना वो टीवी के लिए बनाता ना? मोबाइल पे रील देखें, फ़िल्में नहीं। कला का अनादर है। उसके ऑडियो वीडियो पर इतनी मेहनत से काम होता है। मोबाइल पे थियेटर की फ़िल्म देखना ऐसा है कि पिज़्ज़ा की फोटो खींच के खा ली। सच। कला सिर्फ़ कलाकार की नहीं पारखी की भी ज़िम्मेदारी है।
हरजिंदर
December 30, 2023 at 5:47 am
सिनेमा के टिकट इतने महंगे कर दिए हैं कि आम लोग कैसे जायेंगे देखने। टी वी पर या मोबाइल पर ही देखेंगे वो। अब जो महंगे टिकट खरीद सकते उन्हीं के हिसाब से ही फिल्में बनेंगी ना। फ़िर वो सब के लिए अच्छी कैसे होंगी !!?? जो टिकट खरीद सकते, उन्हीं को अच्छी लगें, ऐसी फिल्में ही बनेंगी।
piyush kumar
December 31, 2023 at 4:32 pm
सिन्हा साहब की बातें सही है। सौ आने।
परंतु टिकट का जो खेल अलग चल रहा है, वही हिंदी सिनेमा को मार रहा है।
टिकट का मूल्य 350 रूपए से काम नहीं है।
सिंगल स्क्रीन थिएटर नहीं के बराबर है और मल्टीप्लेक्स मनमानी वसूल रहे हैं।
piyush kumar
December 31, 2023 at 4:34 pm
सिनेमा देखने का असली मजा तो सिनेमा हॉल में ही है।
“भीड़” एक ऐसी फिल्म है जो हमारे व्यवस्था को नंगा कर देती है।
जैसे हम और आप बिना कपड़े के दीखते हैं।