अणु शक्ति सिंह-
कल-परसों से ग़ज़ब बवाल देख रही हूँ। कई जगह पोस्ट पढ़ चुकी हूँ, “भारतीय मुसलमान अफ़ग़ानिस्तान के ख़िलाफ़ नहीं बोल रहे हैं। चुप बैठे हैं।”
क्या आफ़त है? क्यों आप मुँह में उँगली डालकर किसी से कुछ बुलवाना चाहते हैं? क्या कर लेंगे भारतीय मुसलमान अफ़ग़ानिस्तान के ख़िलाफ़ बोलकर? क्या? आप ही बताइए क्या?
दुनिया की सबसे बेहतरीन सेनाएँ बीस साल में कुछ हासिल नहीं कर पायी वहाँ। दो हज़ार से अधिक अमेरिकी फ़ौजियों की मौत हुई है। भारत अपनी सेनाएँ भेज सकने की हालत में नहीं है। भेजना भी नहीं चाहिये। तालिबान से उनके अपने ही देश में लड़ना और जीतना लगभग असम्भव है। उन्हें स्थानीय लोगों के साथ-साथ वहाँ की छिपी ढकी कन्दराओं और गुफाओं का भी साथ मिला हुआ है। हमारे सैनिकों की जान इतनी सस्ती नहीं है कि उन्हें मरने के लिए भेज दिया जाए।
कोई भी कूटनीतिक फ़ैसला फ़ेसबुक पर जोश में नहीं लिया जाता। यहाँ आवाज़ उठायी जा सकती है । विश्व अभी सकते में है।
हाँ, इज़रायल फ़िलिस्तीन वाले मसले को भी कम्पेयर करना भी अक़्लमंदी का सिला नहीं। इज़रायल अधिकृत देश है। संयुक्त राष्ट्र में शामिल है। उसके कई देशों के साथ सामरिक-व्यापारिक सम्बन्ध हैं। उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की बात की जा सकती है, उसके मित्र देशों पर दवाब बनाने के लिए कहा जा सकता है।
तालिबान को किस किस ने अधिकृत किया है यह बताइए? किसके ज़रिए उस पर दवाब डलवाया जा सकता है? पाकिस्तान भी सबके सामने उसे कोसता ही है।
आतंकवादी संस्था और देश में फ़र्क़ होता है। यह समझना ज़रूरी है लेकिन सबको यहाँ तालिबान के साथ-साथ भारतीय मुसलमानों को भी कोसकर निष्पक्ष होने का प्रमाणपत्र भी तो चाहिए।
आज़ादी का दिन है। संविधान याद कीजिए। आपके पास मूल अधिकार हैं पर वे तब तक ही जब तक किसी और के अधिकार का हनन ना करें। जिस तरह हमें बोलने का अधिकार हासिल है, वैसे ही चुप रहने का भी।
अपनी निष्पक्षता के लिए आपका उन्हें कोसना उनकी आज़ादी का हनन भी है।
वास्तव में निष्पक्षता की अवधारणा अगर इतनी बेवक़ूफ़ी भरी और हिपक्रिटिकल है तो भाड़ में जाये यह निष्पक्षता। मैं उनके साथ हूँ जिनपर आप बिल फाड़ रहे हैं।
बहुसंख्यकों पहले अपने देश में उन्हें बिना किसी डर बराबर महसूस करने में मदद कीजिए, फिर उनसे किसी विदेशी आतंकवादी संस्था का हिसाब माँगिएगा।
तब तक आज़ादी का दिन मनाइए और अपनी हिपॉक्रसी पर शर्म कीजिए।
उर्मिलेश-
अफगानिस्तान में सत्ता के हस्तांतरण के अमेरिकी-फार्मूले के तहत अब तालिबान काबुल में दाखिल हो चुका है. अब तक अफगानिस्तान में राष्ट्रपति रहे अशरफ़ गनी, उनकी सरकार और समूचे सैन्य प्रतिष्ठान ने तालिबान के विरुद्ध किसी तरह का उल्लेखनीय प्रतिरोध नहीं किया. अशरफ़ गनी वैसे भी अमेरिका के नुमायंदे के तौर पर ही अफगानिस्तान के राष्ट्रपति बने थे. अफगानिस्तान की जनता या राजनीति में उनकी कभी कोई हैसियत नही थी.
मजे की बात है कि तालिबान की तरफ से जिन अली अहमद जलाली को संक्रमण कालीन सरकार का प्रमुख या अशरफ़ गनी का उत्तराधिकारी बनाया जा रहा है, वह भी अमेरिका की पसंद है. वह तो वर्षो से अमेरिकी नागरिक भी हैं. पद से हटने की घोषणा कर चुके मौजूदा राष्ट्रपति अशरफ़ गनी भी सन् 1964 से 2009 के बीच अमेरिकी नागरिक थे. समझा जाता है कि अहमद जलाली के नाम को तालिबान ने पहले ही अपनी मंजूरी दे दी थी.
तकरीबन दो दशक से अफगानिस्तान में जो भी होता आ रहा है, वह दुनिया भर में सत्ता-पलट के कुख्यात षडयंत्रकारी-अमेरिका के नक्शेकदम पर ही. अभी जो हो रहा है, वह भी अमेरिका के ही नक्शेकदम पर ही.इसमें किसी को भ्रम नहीं होना चाहिये. अमेरिका को अफगानिस्तान से हटना था. अफगानिस्तान में अपनी सैन्य-उपस्थिति के साथ सत्ता-पलट कराने की उसकी पुरानी रणनीति अब बेमतलब लग रही थी. ऐसे में उसने अपने कुछ मित्र-देशों से मशविरे के बाद दोहा और वाशिंगटन में बैठकर अफगानिस्तान में सत्ता-हस्तांतरण के लिए नया प्रकल्प तैयार किया.
मैं वैदेशिक मामलों का नियमित अध्येता नहीं हूं. लेकिन एक भारतीय पत्रकार के तौर पर भारत-पाकिस्तान मामलों और कश्मीर मसले को समझने की लगातार कोशिश करता रहा हूं. इस नाते, अमेरिका का यह नया ‘अफगानिस्तान-प्रकल्प’ मुझे बहुत आश्वस्तकारी और निर्दोष नहीं लगता. इसके कई खतरनाक आयाम नजर आ रहे हैं. भारत, रूस और चीन, तीनों मुल्कों की सरकारों और सामरिक मामलों के उनके विशेषज्ञों को इस ‘अनोखे सत्ता-हस्तांतरण’ के अमेरिकी राजनीतिक -प्रकल्प को लेकर सतर्क रहना चाहिए.
प्रकाश के रे-
काबुलीवाला डिस्पैच
- स्थानीय काबुल मीडिया का सूत्रों के हवाले से कहना है कि ग़नी ने पॉलिटिकल लीडरान को ज़िम्मा देकर देश छोड़ दिया है. शायद वे ताजिकिस्तान गए हैं.
- मेरे सूत्र बता रहे हैं कि तालिबान ने ग़नी से हैंडओवर लेने से मना कर दिया था. इसलिए अंतरिम सरकार या अंतरिम राष्ट्रपति की घोषणा में देरी हो रही है. अब अफ़ग़ान नेता दोहा जायेंगे और अंतरिम सरकार पर बात होगी.
- पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई ने बच्चियों के साथ एक वीडियो संदेश देकर कहा है कि वे काबुल में हैं और तहरीक ए इस्लाम तालिबान से शहरियों की सुरक्षा की गुज़ारिश की है.
- तालिबान ने अपनी टुकड़ियों को काबुल शहर में आने का आदेश दिया है. उन्हें कहा गया है कि अफ़रातफ़री और लूटपाट को तुरंत रोकें.
- एक देश पर एक महाशक्ति के दो दशक के क़ब्ज़े का समर्थन करने, उसकी तबाही करने पर चुप रहने और उसके वापस जाने पर दुखी होनेवाले उदारवादी गणों के लिए संतोषजनक ख़बर- अमेरिका ने कहा है कि अगर तालिबान मानवाधिकारों का उल्लंघन करेगा और आतंकियों को पनाह देगा, तो अफ़ग़ानिस्तान पर पाबंदी लगेगी. उदारवादियों को इससे ख़ुश होना चाहिए क्योंकि अमेरिकी पाबंदियों से घुट रहे कई देशों पर वे नहीं बोलते हैं.
- काबुल से आ रही तस्वीरें बता रही हैं कि जगह जगह बड़ी तादाद में लोग तालिबानी लड़ाकों का स्वागत कर रहे हैं. पहले अन्य कई शहरों और अब काबुल को देखकर कहा जा सकता है कि यह केवल मिलिटरी विक्टरी नहीं है, पॉपुलर अपराइज़िंग भी है.
अफ़ग़ानिस्तान में एक इलाक़ा ऐसा है, जो बीते चालीस साल से ज़्यादा की लड़ाई में कभी भी किसी हमलावर के क़ब्ज़े में नहीं आ सका है. आज भी वह तालिबान की गिरफ़्त से बाहर है. वह इलाक़ा है पंजशीर घाटी, जो लीजेंडरी मुजाहिद अहमद शाह मसूद का गढ़ रहा था. ट्रेड टॉवर हमले से दो दिन पहले अल-क़ायदा व तालिबान ने उनकी हत्या कर दी थी. मसूद परिवार बहुत रसूखदार है. अगर तालिबानी शासन के ख़िलाफ़ लड़ाई चलेगी, तो वह यहीं से चलेगी. अहमद शाह मसूद के बेटे अहमद मसूद ने कहा है कि वे देश में अमन के लिए तालिबान से बातचीत करने के लिए तैयार हैं. उन्होंने यह भी कहा है कि अफ़ग़ानिस्तान के लिए वे अपने पिता का ख़ून माफ़ कर सकते हैं. जिस तरह से पिछले कुछ समय से तालिबान जिस तरह से मुजाहिदों को आदर दे रहे हैं, उससे लगता है कि पंजशीर को उसकी स्वायत्तता के साथ मसूद से समझौता कर सकते हैं, जैसा उन्होंने इस्माइल ख़ान और कई नेताओं के साथ किया है.
अवधेश कुमार-
तालिबान काबुल को घेरने और प्रवेश करने में जिस ढंग से सफल हैं उसे देखकर लगता है कि अफगानिस्तान फौज को लेकर जो कल्पना थी वह सही साबित नहीं हुई। प्रश्न है कि अब आगे क्या होगा? कुछ देश कह रहे हैं कि बलपूर्वक कब्जे की सरकार को मान्यता नहीं देंगे। क्
या तालिबान इस समय अपनी ताकत की बदौलत शांति वार्ता कर सत्ता हाथ में ले लेते हैं तो उसे मान्यता दी जाएगी? यह दुनिया की जिम्मेवारी थी कि कड़ा स्टैंड लिया जाता। यह स्पष्ट कहा जाना चाहिए था कि तालिबान का संघर्ष कतई स्वीकार नहीं है। कतर पे उनके राजनीतिक मुख्यालय को बंद करने की भी घोषणा नहीं की।
विश्व के कुछ देशों की चिंता और दबाव को देखते हुए उसने संघर्षविराम के लिए अवश्य कहा लेकिन जो सख्त चेतावनी तालिबान को देना चाहिए वह कतर ने नहीं दिया है। आखिर कतर की राजधानी दोहा में ही अमेरिका सहित दूसरे देश तालिबान से वार्ता कर रहे थे। कतर ने सबसे पहले तालिबान को अपने यहां राजनीतिक मुख्यालय बनाने की अनुमति दी। कतर से पूछा जाना चाहिए।
जिस तरह नाटो की सेना और उसके बाद संपूर्ण अमेरिकी सेना अफगानिस्तान की सरकार, प्रशासन वहां की पूरी व्यवस्था ,लोकतंत्र की समर्थक जनता, विदेशी नागरिकों सबको अरक्षित छोड़ कर चले गए वह शर्मनाक है। तालिबान साफ कह रहा है कि वह वास्तविक इस्लामी शासन लागू करेगा। वह कैसा होगा इसकी कल्पना की जा सकती है।
मुकेश असीम-
अफगानिस्तान का मौजूदा घटनाक्रम अमरीकी साम्राज्यवाद प्रायोजित और सालों से कतर म़े अमरीकी नुमाइंदों और तालिबान के बीच जारी सौदेबाजी का नतीजा प्रतीत होता है। संभवतः यह अमरीका द्वारा चीन की घेराबंदी की योजना का एक अहम हिस्सा है।
अफगानिस्तान की सीमा पर ही चीन के तुर्क आबादी वाले क्षेत्र हैं। साथ ही वहीं तुर्क आबादी वाले भूतपूर्व सोवियत देश भी स्थित हैं। पिछले कई महीने से शिनजियांग में मुस्लिम आबादी पर जुल्म को लेकर चीन के विरुद्ध एक जबरदस्त प्रचार अभियान जारी है।
उसी के अगले चरण बतौर अफगानिस्तान की सत्ता तालिबान को सौंपी गई है। घटनाक्रम देखिए तो लडाई लगभग नहीं के बराबर हुई है और अमरीका प्रशिक्षित पूरा अफगान फौजी, पुलिस व इंटेलीजेंस सुरक्षा तंत्र मय समस्त आधुनिक हथियारों व साजो-सामान लगभग बिना लडे तालिबान के हाथ में आ गया है।
सख्त मुकाबले के सारे बयानों को झुठलाते हुए अशरफ गनी ने काबुल में तालिबान का स्वागत किया है। अमरीकी फौज अपनी हजारों हमवी बख्तरबंद गाडियों, ड्रोन, बडे हथियारों को न अपने साथ ले गई है, न ही उन्हें नष्ट कर गई है। ये सब बिल्कुल चाक-चौबंद पार्क की गई स्थिति में तालिबान को मिले हैं।
यह सहमति से प्रायोजित सत्ता हस्तांतरण है। चूंकि अशरफ गनी ने गले लगाकर स्वागत किया है और काबुल पर कब्जे के लिए लडाई नहीं हुई अतः अमरीकी-यूरोपीय साम्राज्यवादियों की वह घोषित ‘जनतांत्रिक’ शर्त भी पूरी हो गई है कि जबर्दस्ती कब्जा करने पर वे तालिबान की सत्ता को मान्यता नहीं देंगे। भारत की मोदी सरकार और तालिबान के बीच भी कटुता के बजाय आपसी वार्ता व समझदारी के संबंधों की दबी-छिपी बातें बाहर निकल ही आ रही हैं।
संभाव्य यही है कि मध्य एशियाई तुर्क आबादी वाले क्षेत्रों को तनाव और युद्ध का अगला अखाड़ा बनाने का पूरा प्रयास होगा जिसमें चीन को उलझाया जा सके। चीन के खिलाफ अमरीका प्रत्यक्ष युद्ध के बजाय इसी छद्म युद्ध की नीति पर आगे बढेगा।
चीन रूस भी इस स्थिति को समझ रहे हैं। अतः वही दोनों इससे निपटने के लिए तालिबान के साथ वार्ताओं में सबसे अधिक सक्रिय हैं ताकि उसके साथ इससे विपरीत अपने हित वाले किसी प्रति समझौते पर पहुंच सकें।