Binod Ringania
पिछले सप्ताह राष्ट्रीय विमर्श में जिस शब्द का सबसे अधिक उपयोग किया गया वह था अहंकार। दिल्ली में बीजेपी की हार के बाद लोगों ने एक स्वर में कहना शुरू कर दिया कि यह हार अहंकार की वजह से हुई है। इन दिनों तरह-तरह का मीडिया बाजार में आ गया है। एक तरफ से कोई आवाज निकालता है तो सब उसकी नकल करने लगते हैं। और एक-दो दिन में ही किसी विचार को बिना पूरी जांच के स्वीकार कर लिया जाता है। इस तरह दिल्ली में हार की वजह को बीजेपी का अहंकार मान लिया गया। कल को किसी राज्य में बीजेपी फिर से जीत गई तो ये लोग उसका विश्लेषण कैसे करेंगे पता नहीं।
बीजेपी में कितना अहंकार आया है यह तो सोचने वाली बात है, लेकिन यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है आज इलेक्ट्रानिक मीडिया (आगे सिर्फ मीडिया लिखेंगे) का एक हिस्सा पूरी तरह अहंकार में डूबा हुआ है। आप यदि ऊंचे पद पर हैं तो उसके विरुद्ध कुछ बोल भी नहीं सकते। पिछली बार केजरीवाल को जब दिल्ली में जीत हासिल हुई थी तब मीडिया को मुगालता हो गया था कि यह जीत उसी की वजह से हुई है। इसलिए जब केजरीवाल ने मीडिया वालों को जेल भिजवाने की बात कही तो मीडिया बुरी तरह भड़क गया। केजरीवाल की खबरों पर एक तरह से बैन लग गया और मीडिया का आचरण ऐसा हो गया कि देखें अब कैसे जीतते हो। लेकिन केजरीवाल फिर से जीत गए।
मीडिया पर कोई-कोई एंकर तो इतना बुरा आचरण करता है कि आप शो को पूरा देख ही नहीं सकते। एक अंग्रेजी राष्ट्रीय चैनल के एंकर का नाम इसमें सबसे ऊपर आता है। यह अपने अतिथियों पर जमकर चिल्लाता है, उन्हें बोलने नहीं देता, उनकी ऐसी ग्रिलिंग करता है जैसी शायद सीबीआई वाले भी नहीं करते होंगे। जो शब्द उसके मुंह से बार-बार निकलते हैं वे होते हैं माय शो, माय शो। यानी मेरा कार्यक्रम, मेरा कार्यक्रम। कोई अहंकार में कितना डूबा हुआ है इसे मापने का एक तरीका यह है कि वह कितनी बार हम की बजाय मैं शब्द का इस्तेमाल करता है। चुनाव प्रचार के दौरान मोदी भी हमारे गुजरात की बजाय मेरे गुजरात बोला करते थे। यह अलग बात है कि तब देश उनके रंग में पूरी तरह डूबा हुआ था और इन सब बातों पर ध्यान देने का किसी के पास वक्त नहीं था।
आप सबके खिलाफ बोल सकते हैं। बस कोर्ट और मीडिया के विरुद्ध नहीं बोल सकते। लेकिन अब मीडिया को भी औकात दिखाने वाला सुपर मीडिया बाजार में आ चुका है। यह सुपर मीडिया है इंटरनेट पर यूट्यूब। इस सप्ताह एक वीडियो शो यूट्यूब पर वायरल बुखार की तरह फैला और लाखों लोगों ने इसे देखा। इसमें एक नकली और और साथ में असली केजरीवाल का नकली इंटरव्यू लिया गया था। इंटरव्यू लेने वाला उस अंग्रेजी चैनल के अहंकारी एंकर की नकल कर रहा था जिससे उसके दर्शक आजिज आ चुके हैं। वह केजरीवाल को बोलने नहीं दे रहा था, हर पांच सेकंड पर उनकी बात काट रहा था, दिस इस माय शो, कहकर चिल्ला रहा था।
सोचने वाली बात है कि जब 24 घंटे के चैनल उपलब्ध हैं, तब क्यों लाखों लोगों ने यूट्यूब पर इस वीडियो को देखा। इसका मतलब है कि लोग इस एंकर के आचरण से बुरी तरह नाराज हैं। एक तरह से लोग मीडिया के कुल आचरण से ही नाराज हैं। जो युवा पीढ़ी है वह इस तरह के मीडिया को सहन करने के मूड में बिल्कुल नहीं है। और हो सकता है कि आने वाले दिनों में युवा पीढ़ी ही मुख्यधारा के मीडिया को अपना आचरण बदलने के लिए बाध्य कर दे।
गुवाहाटी में हमारे मित्र अतनु भुयां ने एक किताब लिखी है टीआरपी। दो महीनों के अंदर ही इसके कई संस्करण निकालने पड़ गए। असम की पुस्तक इंडस्ट्री में यह एक अभूतपूर्व बात है। भुयां ने अपनी पुस्तक में बताया है कि टीआरपी क्या होती है। दरअसल टीआरपी मापने वाली कंपनी एक शहर के कुछ चुने हुए घरों में टीवी के साथ टीआरपी मशीन फिट कर देती है। उसके बाद उस घर के लोग किस समय कौन सा कार्यक्रम देखते हैं वह सबकुछ रिकार्ड होता रहता है। उदाहरण के लिए गुवाहाटी के चालीस या पचास घरों में ये मशीनें लगी हुई हैं। इन चालीस या पचास घरों में टीवी पर जो कुछ देखा जाता है उसी पर गुवाहाटी की टीआरपी निर्भर करती है।
अतनु लिखते हैं कि होमेन बरगोहाईं की टीआरपी बिल्कुल कम आती है, जबिक शाम के समय दिखाई जाने वाली गुवाहाटी की क्राइम न्यूज की टीआरपी काफी अधिक होती है। किसी चोर-उचक्के को पकड़कर उसकी पिटाई (जो कि कानूनन जुर्म है) करने के दृश्य की टीआरपी भी बहुत अधिक होती है। चैनलों का ध्यान इस बात पर रहता है कि इन चालीस-पचास परिवारों की रुचि क्या है। उन्हें इस बात की परवाह नहीं होती कि राज्य भर के लोग कौन से कार्यक्रम देखना चाहते हैं। इस तरह चालीस-पचास परिवार (ये परिवार कौन से हैं कोई नहीं जानता) ही असम राज्य के सभी चैनलों पर क्या दिखाया जाएगा इसे तय करते हैं। यह हाल सारे देश का है। ऐसे में मीडिया के कार्यक्रमों का स्तर क्या रह जाएगा सोचने वाली बात है।
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अंततः केजरीवाल फिर से दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए। यह दिल्ली या देश के लिए अच्छा होगा या बुरा। कुछ भी हो केजरीवाल जुनूनी तो हैं ही। एक समय उन्हें लगता था राइट टु इंफार्मेशन ही सबकुछ है। इससे भ्रष्टाचार दूर हो जाएगा। फिर उन्हें लगा कि लोकपाल आने पर सबकुछ ठीक हो जाएगा। फिर लगने लगा कि सत्ता हासिल किए बिना कुछ भी संभव नहीं है। वे किसी भी चीज के पीछे जुनूनी बनकर लग जाते हैं। जब तक उन्हें नहीं लगता कि लक्ष्य हासिल करने के लिए यह सही औजार नहीं है तब तक वे उसे छोड़ते नहीं हैं। इसी तरह नया करने की उनमें बुद्धि और सामर्थ्य है। टीएन शेषन के मुख्य चुनाव आयुक्त बनने के पहले किसी को इस पद की ताकत का पता नहीं था। हमें लगता है मुख्यमंत्री पद की ताकत का भी अभी तक किसी ने पूरी तरह इस्तेमाल नहीं किया है। एक धारणा बन गई है कि भारत में सरकारी कर्मचारियों से काम करवाना आसान नहीं है, न ही यहां घूसखोरी को खत्म करना आसान है। हो सकता है केजरीवाल हमें मुख्यमंत्री की असली ताकत का एहसास करवा दे। आप समर्थन करें या विरोध – आईआईटी खड़गपुर का यह पूर्व छात्र बुद्धिमान तो है ही। आईआईटी केएचजी का टेंपो हाई है।
लेखक Binod Ringania से संपर्क +919864072186 के जरिए कर सकते हैं.
अरुण साथी
February 18, 2015 at 7:16 am
एकदम स्टिक और संतुलित.. आभार