संजय कुमार सिंह-
यह खुश होने की बात नहीं है… सुप्रीम कोर्ट ने पूछा और सभी अखबारों में खबर छप गई। हम खुश हो गए। लेकिन सच यह है कि अखबारों ने नहीं पूछा इसलिए सुप्रीम कोर्ट को पूछना पड़ा। या ऐसे कहिए कि सुप्रीम कोर्ट ने नहीं पूछा और अखबारों ने भी नहीं पूछा तो सुप्रीम कोर्ट कितने दिन लोगों को मरने दे।
ऐसा नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट को या जजों को नहीं पता होगा कि मनाने को तो टीका गुरू टीकोत्सव भी मना चुके हैं। उन्हें रोकने वाला कहीं कोई नहीं है और यह काम सुप्रीम कोर्ट को ही करना है। यह सबको पता है।
हाल की कुछ खबरों से लग रहा है कि सुप्रीम कोर्ट सरकार की खबर ले रहा है लेकिन आज ही खबर है सिस्टम ने बाकायदा व्यवस्था करके जस्टिस अरुण मिश्रा को उनकी सेवा का लाभ दिया है। लेकिन उसकी खबर तो नहीं दिखी। मतलब सुप्रीम कोर्ट के जज द्वारा सरकार के पक्ष में फैसला देना और उन्हें ईनाम दिया जाना – बहुत सामान्य खबर की तरह कहीं खो गई। जो स्थिति है उसमें उसे पहले पन्ने पर छपना चाहिए था और सुप्रीम कोर्ट को बताया जाना चाहिए था कि क्या हो रहा था, क्या हुआ है और कितनी बेशर्मी से पुरस्कार दिया और लिया जा रहा है।
सरकार से पूछने के लिए बहुत कुछ है और पूछना ही है तो यह भी पूछा जाना चाहिए कि पीएम केयर्स किस मर्ज की दवा है? करोड़ों रुपए पड़े रह गए लाखों लोग मर गए। एक चंदा देने वाले की मां बिना इलाज मर गई। पैसा हड़प लिया जाता तो क्या होता जो अभी नहीं हुआ है? जो मर गए उनके परिवार के लिए यह पैसा तो हड़प ही लिया गया है। वैसे भी, प्रधानमंत्री (और कई मंत्री) अगर सरकारी पैसों से सेवा नहीं करेगा और चंदा व सीएसआर के पैसे भी बटोर कर बैठ जाएगा तो लोग मरेंगे ही। इस बारे में पूछा जाता रहा है पर सुप्रीम कोर्ट ने उसे सही ठहराया है।
मेरे ख्याल से गलत तो उसका गठन ही है पर अब पूछा जाए तो वह बात नहीं होगी फिर भी अभी उसपर सवाल नहीं है। पूछने के लिए तो सुप्रीम कोर्ट से भी बहुत कुछ पूछा जा सकता है। सरकारी वकील ने साफ झूठ बोले सुप्रीम कोर्ट को समझ में नहीं आया? इसलिए यह खुश होने की बात नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने बहुत निराश किया है और सब कुछ सार्वजनिक होने, चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस के बावजूद अरुण मिश्रा को एनएचआरसी का मुखिया बना देना बहुत कुछ कहता है जिसका जवाब इन खबरों या सुप्रीम कोर्ट के सवालों में नहीं है। इसलिए इन खबरों से खुश मत होइए।