Connect with us

Hi, what are you looking for?

सियासत

मोदी की आंबेडकर पर अशिष्टता

-आनंद तेल्तुम्ब्ड़े-

हाल में मोदी जी ने अपने आप को आंबेडकर भक्त कहा था और दलितों को यह भरोसा दिलाया था कि वह आरक्षण के साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ नहीं होने देंगें चाहे आंबेडकर ही आ कर इस की मांग क्यों न करें. मोदी की यह अशिष्टता यह दर्शाती है कि हिंदुत्व की ताकतों के लिए दलितों को पटाने के लिए आंबेडकर को गलत ढंग से पेश करने तथा शासक वर्गों की राजनीतिक रणनीति में आरक्षण की कितनी नाज़ुक भूमिका है. आरक्षण जो कि दलितों के लिए वरदान है वास्तव में उनकी गुलामी का औज़ार बन गया है.

<p><strong>-आनंद तेल्तुम्ब्ड़े-</strong></p> <p>हाल में मोदी जी ने अपने आप को आंबेडकर भक्त कहा था और दलितों को यह भरोसा दिलाया था कि वह आरक्षण के साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ नहीं होने देंगें चाहे आंबेडकर ही आ कर इस की मांग क्यों न करें. मोदी की यह अशिष्टता यह दर्शाती है कि हिंदुत्व की ताकतों के लिए दलितों को पटाने के लिए आंबेडकर को गलत ढंग से पेश करने तथा शासक वर्गों की राजनीतिक रणनीति में आरक्षण की कितनी नाज़ुक भूमिका है. आरक्षण जो कि दलितों के लिए वरदान है वास्तव में उनकी गुलामी का औज़ार बन गया है.</p>

-आनंद तेल्तुम्ब्ड़े-

हाल में मोदी जी ने अपने आप को आंबेडकर भक्त कहा था और दलितों को यह भरोसा दिलाया था कि वह आरक्षण के साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ नहीं होने देंगें चाहे आंबेडकर ही आ कर इस की मांग क्यों न करें. मोदी की यह अशिष्टता यह दर्शाती है कि हिंदुत्व की ताकतों के लिए दलितों को पटाने के लिए आंबेडकर को गलत ढंग से पेश करने तथा शासक वर्गों की राजनीतिक रणनीति में आरक्षण की कितनी नाज़ुक भूमिका है. आरक्षण जो कि दलितों के लिए वरदान है वास्तव में उनकी गुलामी का औज़ार बन गया है.

Advertisement. Scroll to continue reading.

मोदी ने 22 मार्च को विज्ञान भवन, नयी दिल्ली में आंबेडकर मेमोरियल व्याख्यान देते हुए कई दिलचस्प बातें कहीं. उनमे से दो बातें ख़ास तौर पर महत्वपूर्ण हैं जो कि डॉ. आंबेडकर को जानबूझ कर गलत ढंग से पेश करने के कारण उन्हें शासक वर्गों के प्रतिनिधि के रूप में दर्शाती हैं. उनकी पहली घोषणा थी कि वह आंबेडकर भक्त है. दूसरी उनकी यह दावेदारी थी कि वह आरक्षण को किसी भी तरह से हल्का नहीं करने देंगें चाहे आंबेडकर स्वयं भी जीवित होकर इसे ख़त्म करने की मांग क्यों न करें. निस्संदेह उस की यह दोनों घोषणाएं और आंबेडकर प्रेम का दिखावा वास्तव में दलितों को भाजपा के पाले में खींचने के लिए ही हैं.

आंबेडकर प्रेम के पीछे का तर्कशास्त्र 
दलित संघ परिवार की चाल का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. यह उनकी भारतीय जनता का हिन्दू बनाम अन्य के तौर पर ध्रुवीकरण की रणनीतिक चाल को पलटने की ताकत रखता है. उनके सामाजिक, एतहासिक, वैचारिक और सांस्कृतिक परिवेश के कारण दलित एक बड़ा खेल बिगाड़ने वाले हो सकते हैं. इस बात का भरोसा नहीं है कि दलित अपने आप को हिन्दुओं के रूप में चिन्हित ही करेंगे.

Advertisement. Scroll to continue reading.

यह स्वाभाविक है कि 1909 में जब भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिकता के बीज बोए गए उसी समय यह मुद्दा भी उभरा था. मिन्टो-मार्ले सुधारों पर बातचीत के दौरान मुस्लिम लीग ने कांग्रेस को यह चुनौती दी थी कि दलित और आदिवासी हिन्दू समाज का अंग नहीं हैं. प्रारंभिक दलित आन्दोलन जो अभी मानव होने के नाते अपने मानवाधिकारों की मांग तक ही सीमित था अभी अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं बना पाया था. तब भी कांग्रेस को मुस्लिम लीग के साथ लखनऊ समझौता करने के बाद मान्टेग्यु-चेमस्फोर्ड सुधारों के परिपेक्ष्य में गवर्नमेंट  आफ इंडिया एक्ट के लागू होने पर दलितों की ओर ध्यान देना पड़ा. संकेत के तौर पर गाँधी जी को जून 1916 को छुआछूत की प्रथा के खिलाफ बोलना पड़ा और दलितों के लिए चिंता जतानी पड़ी.

Advertisement. Scroll to continue reading.

दलितों का समर्थन लेने के लिए कांग्रेस को अकेले बम्बई प्रान्त में ही चार सम्मलेन करने पड़े. 1927 में महाड़ तालाब संघर्ष से हिन्दुओं से मोहभंग होने के बाद आंबेडकर ने दलितों के लिए एक राजनीतिक पह्चान बनानी शुरू कर दी थी. उनके हिन्दुओं और हिन्दू धर्म पर हमलों जिनकी परिणति उनके परिनिर्वाण से दो माह पहले बौद्ध धम्म अपनाने में हुयी, ने दलितों को हमेशा के लिए एक अलग सामाजिक-धार्मिक पहचान दे दी. यह इतिहास है जो कि संघ परिवार के भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाने के आड़े आ रहा है. उनकी यह सोच उच्च वर्णीय अधिनायक्वादी और ब्राह्मणवादी है जो कि नाज़ीवाद की एक लोग, एक राष्ट्र, एक नेता की अवधारणा पर आधारित है.

इस कारण से संघ परिवार की रणनीति में डॉ. आंबेडकर का आलोचनात्मक महत्व हो जाता है. जब तक वे आंबेडकर का पर्याप्त भगवाकरण नहीं करेंगे तब तक उन्हें इस का डर बना रहेगा. डॉ. आंबेडकर के प्रति नया उपजा प्रेम इसी राजनीतिक मजबूरी की उपज है. दलित आन्दोलन की वैचारिक दुर्बलता, दलित नेतृत्व का दिवालियापन, आत्ममुग्ध मध्य दलित वर्ग और हिन्दू देवताओं जिन्हें उन्होंने आंबेडकर के आह्वान पर त्याग दिया था, के स्थान पर आंबेडकर का बड़े स्तर पर देवकरण ने संघ परिवार के आंबेडकर के भगवाकरण के असंभव कार्य को बहुत आसान बना दिया है. यह वास्तव में बालासाहेब देवरस जो कि आरएसएस के सब से लो – प्रोफाइल वाले सरसंघचालक थे के समय में ऐसी कुछ चालें चली गयीं.

Advertisement. Scroll to continue reading.

उसके समय में ही दलित उत्थान के नाम पर “सेवा भारती” संगठन के नाम से दलितों में काम शुरू किया गया. इस में डॉ. आंबेडकर को प्रात:स्मरणीय सूचि में रखना, और मध्य वर्ग के दलित जो कि उच्च जातियों में अपनी सामाजिक पहचान बनाना चाहते थे, के लिए एक विशेष अभिप्राय से “समरसता मंच” का सृजन करना था. तब तक उन द्वारा पवित्र माने जाने वाले पर डॉ. आंबेडकर द्वारा कटु हमले किये जाने के कारण वे उन के लिए अभिशाप थे. इस रणनीतिक बदलाव के कारण उन्होंने डॉ. आंबेडकर को के.बी.हेडगेवार का दोस्त, हिन्दुओं के महानतम हितैषी, आरएसएस के प्रशंसक, मुस्लिम और कम्युनिस्ट विरोधी, घर वापसी के समर्थक, भगवा झंडे के राष्ट्रीय झंडे के तौर पर समर्थक, एक महान राष्ट्रवादी के तौर पर पूरे जोर शोर के साथ सत्य के रूप में प्रचारित किया गया.

चाहें तो आप इन्हें तमाशा कह कर नकार सकते हैं परन्तु इन्हें नज़रंदाज़ नहीं कर सकते. इन्होने दलित नेताओं के सहयोजन करने की ठोस ज़मीन बनायी.  पिछले कुछ चुनावों में भारतीय जनता पार्टी सभी पार्टियों को मिला कर सब से ज्यादा आरक्षित सीटें जीतती रही है. परन्तु केवल अरक्षित सीटें ही काफी नहीं हैं. उनकी ध्रुवीकरण की रणनीति में दलितों का अमूल परिवर्तन करना और जीतना भी था. तभी उनका ध्रुवीकरण संभव हो सकता है. क्योंकि इस का उल्टा अल्पसंख्यक जो दलितों को मिला कर 30 प्रतिशत वोटर हैं जो उन की हिन्दू राष्ट्र की योजना में रोड़ा बन सकते हैं, का पृथकीकरण संभव है. इस रणनीति में रोहित वेमुला जैसे रेडिकल्स का बहिष्कृतीकरण और आदिवासियों को माओवादी कह कर दमन करना शामिल है.

Advertisement. Scroll to continue reading.

आंबेडकर को भक्त पसंद नहीं थे
मोदी जी को जानना चाहिए के उन्हें भक्त पसंद नहीं थे. उन्हें नायक पूजा से नफरत थी. वे राजनीतिक जीवन में इस के घोर विरोधी थे क्योंकि इस से अन्वेषण की स्फूर्ति, सृजन की भावना और सोच का स्वतंत्र नजरिया बाधित हो जाते हैं. उनके जीवनी-लेखक धनंजय कीर लिखते हैं: मार्च 1933 के प्रथम सप्ताह में बम्बई में एक मीटिंग में उन्हें एक प्रशस्ति पत्र देने पर उन्होंने कहा,” इस पत्र में मेरे कार्यों और गुणों का बहुत बखान किया गया है. इस का मतलब है कि आप लोग मेरे जैसे आदमी को देवता बना रहे हैं. अगर आप लोगों ने नायक पूजा के इन विचारों को शुरू में ही ख़त्म नहीं किया तो यह तुम्हें बर्बाद कर देगा. एक व्यक्ति को देवता बना कर आप अपनी सुरक्षा और मुक्ति के लिए एक व्यक्ति पर विश्वास करने लगते हैं और आप में दूसरों पर निर्भरता और अपने कर्तव्य के प्रति उदासीनता की भावना घर कर जाती है. अगर आप इन विचारों के शिकार हो गए तो जीवन की राष्ट्रीय धारा में लकड़ी के लठ्ठों की तरह हो जायेंगे. आप का संघर्ष ख़त्म हो जायेगा..

1943 में महादेव गोविन्द रानाडे जी के 101वें जन्म दिन पर भाषण में उन्होंने बताया था कि वे नायक पूजा खिलाफ क्यों है. नागपुर में 1956 में धर्म परिवर्तन के समारोह के दौरान लोग उनका अभिवादन करने और उन के चरणों पर सम्मान में गिरने लगे. यद्यपि उन की तबियत ठीक नहीं थी उन्होंने छड़ी उठा कर एक को मारी और चिल्लाये कि वे उनका गुलामों वाला व्यवहार पसंद नहीं करते हैं. अगर वे आज जीवित होते तो मोदी को भी इसी प्रकार की झिड़की सुननी पड़ती. आंबेडकर उन्हें दलितों को सामाजिक भेदभाव से बचाने के लिए उनके संवैधानिक कर्तव्य का स्मरण दिलाते.

Advertisement. Scroll to continue reading.

मोदी जी दलित विकास के लिए बजट में फंड की कमी करके दलित विद्यार्थियों की उन्मुक्त अभिव्यक्ति को कुचलने की खुली छूट दे रहे हैं और रोहित वेमुला जैसे होनहार छात्रों की संस्थागत हत्या की परिस्थितयां पैदा कर रहे हैं. न्याय मांगने पर पुलिस उन्हें बुरी तरह पीट रही है जैसा कि 22 मार्च को हैदराबाद विश्वविद्यालय में हुआ. वह उसी समय आंबेडकर का स्तुतिगान कर रहे थे. मोदी जी को मालूम होना चाहिए कि आंबेडकर कोई टुच्चे नेता नहीं थे जिन्हें चापलूस पटा सकते थे. उनका चित्रण करना अपमान है.

आरक्षण का फंदा
दूसरा बिंदु जो मोदी जी ने उठाया वह अधिक जटिल एवं महत्वपूर्ण है. दलितों के लिए आरक्षण एक भावनात्मक मुद्दा रहा है और इसी  लिए इसे किसी ने कभी भी निष्पक्ष दृष्टि से नहीं देखा है. जब मोदी जी ने आश्वस्त करने वाले स्वर में कहा कि आरक्षण को छुया नहीं जायेगा बेशक आंबेडकर भी आ कर इस की मांग क्यों न करें, इससे उन्होंने अपने वर्ग को इस के महत्व के बारे में समझा दिया है.

Advertisement. Scroll to continue reading.

आरक्षण के लिए अकेले आंबेडकर ही ज़िम्मेदार हैं: पहले राजनैतिक प्रतिनिधित्व के लिए और बाद में सरकारी सेवाओं और शैक्षिक  संस्थानों में. पहले का मंतव्य तो शुरू में ही परास्त हो गया था. इस का इरादा दलितों के प्रतिनिधियों को विधायिका संस्थाओं में दलित प्रतिनिधियों को उनके हित संवर्धन के लिए भेजना था. दलितों के सच्चे प्रतिनिधियों को चुनने के लिए डॉ. आंबेडकर ने अलग मताधिकार की व्यवस्था चुनी थी. उन्होंने इसे गोलमेज़ कांफ्रेंस (1930-1932) में गाँधी जी के कट्टर विरोध के बावजूद प्राप्त किया था. परन्तु इस की घोषणा के तुरंत बाद गाँधी जी ने मरण व्रत रख कर उन्हें ब्लैकमेल किया. आंबेडकर जी को अलग मताधिकार छोड़ कर संयुक्त मताधिकार व्यवस्था स्वीकार करनी पड़ी जिसे पूना पैकट कहते हैं.

अलग मताधिकार जिस से दलितों के सच्चे प्रतिनिधि चुनना सुनिश्चित हो सकता के विरुद्ध संयुक्त मताधिकार से केवल वे चुने जाते हैं जो गैर दलितों के बहुमत को स्वीकार होते हैं जिस से कांशी राम के कथनानुसार केवल चमचे ही पैदा होते हैं. इस द्वारा दलितों के सच्चे प्रतिनिधि को चुनने की कोई सम्भावना नहीं होती है. इस का सब से पहला सबूत डॉ. आंबेडकर खुद हैं जो कि स्वतंत्र भारत में छुट भैय्या नेताओं के विरुद्ध भी कभी चुनाव नहीं जीत सके.

Advertisement. Scroll to continue reading.

आंबेडकर इस (राजनैतिक) आरक्षण को पचा नहीं सके परन्तु इन के संविधान में समावेश के समय 10 वर्ष की समय सीमा लगाने के सिवाय कुछ भी नहीं कर सके. शासक वर्ग के लिये इस की उपयोगिता का यह सबूत है कि 10 वर्ष की समय सीमा समाप्त होने पर बिना कोई मांग उठे इसे हर बार बढ़ा दिया जाता है. यह आरक्षण स्पष्ट तौर पर दलित हितों के खिलाफ है क्योंकि इस ने दलितों के स्वतंत्र आन्दोलन को बर्बाद कर दिया है और दलालों के रूप में दलित नेता पैदा किये हैं..

सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण पहले वरीयता व्यवस्था के रूप में आया और 1943 में डॉ. आंबेडकर जो उस समय वायसराय की कार्यकारिणी के सदस्य थे, के जोर देने पर कोटा सिस्टम बनाया गया. शुरू में यह बहुत लाभदायिक रहा क्योंकि आज हम शहरों में जो दलित मध्य वर्ग देखते हैं वह इसी की ही देन है. परन्तु इस के बाद इस का प्रतिगामी और सीमान्तिक प्रभाव उभरना शुरू हो गया. शासक वर्गों के हाथ में आरक्षण जाति बनांये रखने और भारतीय जनमानस को विभाजित रखने का एक सशक्त औजार बन कर रह गया है.

Advertisement. Scroll to continue reading.

संविधान बनाते समय सामाजिक न्याय का सारा मुद्दा अलग से हल किया जा सकता था परन्तु इसे व्यवस्थित तौर पर न केवल जाति को बनाये रखने बल्कि उन्हें मज़बूत करने की दिशा में ले जाया गया. क्योंकि आरक्षण अंग्रेजों के समय में ही कोटा की शक्ल धारण कर गया था और इसे अनुसूचित जाति की सरकारी पहचान से दिया गया था जिस से उन का हिन्दू धर्म से सम्बन्ध कट गया था तो जाति को आसानी से छोड़ा जा सकता था जब कि जोरशोर से छुआछूत को गैर क़ानूनी घोषित करके गायब कर दिया गया था.

इस के साथ ही आरक्षण को एक अपवाद की नीति के तौर पर और विशेष लोगों के लिए जिन्हें अधिकतर समाज बराबर के मनुष्यों के रूप में स्वीकार नहीं कर सका है अपनाया जाना चाहिए था. इस अवधारणा के तहत आरक्षण समाज की जाति समाप्त करने की असमर्थता के कारण इस प्रकार की जननीति के लिए एक आखरी सशक्त ताकत बन सकता था. केवल बड़ा समाज ही जाति का विनाश कर सकता है. आरक्षण में पिछड़ेपन की अवधारणा जो कि अदृश्य रहती है ने समाज में निचली जातियों की हीनता के बारे में व्याप्त बुनियादी अवधारणा  को मज़बूत किया है.

Advertisement. Scroll to continue reading.

एक निरीह कृत्य नहीं
नीति की इस निर्णायिक अवधारणा की अनुपस्थिति दुर्भाग्य से संविधान निर्मात्री सभा का एक निरीह कृत्य या कल्पनाहीनता नहीं है बल्कि आरक्षण को शासक वर्गों के राजनैतिक सत्ता पर एकाधिकार को चुनौती देने के लिए सशाक्त हथियार बनने को असंभव बनाना था. इस की प्रक्रिया  ने यह भी सुनिश्चित किया है कि यह लगातार लाभार्थियों को ही मिलेगा जिस से इन्हीं लोगों में ही लाभार्थी वर्गों का गठजोड़ बन जायेगा.

सरकारी क्षेत्र की नौकरियों को छोडिये जो कि 1991 से नव-उदारवादी नीतियों के दबाव में लगातार कम हो रही हैं जिस से सरकारी क्षेत्र  में आरक्षण लगभग समाप्त हो गया है. हमारे प्रमुख संस्थानों में सीटें बराबर भरी नहीं जा रही हैं. आईआईएम और आईआईटी में पिछले कई सालों से आरक्षित सीटें भरी नहीं जा रही हैं दलितों और आदिवासियों का उपलब्ध करने का क्षेत्र लगातार घट रहा है. कई विसंगतियां हैं जिन के सामाजिक सद्भाव के लिए गंभीर निहितार्थ हैं. आरक्षण का लाभ लाभार्थी के परिवार को मिलता है परन्तु वह जाति के नाम पर दिया जाता है जिस का खामियाजा समाज को भुगतना पड़ता है. इन्हें ग्रामीण क्षेत्र में दलितों पर लगातार बढ़ रहे अत्याचारों के लिए उत्तरदायी भी माना जा सकता है.

Advertisement. Scroll to continue reading.

आरक्षण को दलित समुदाय के लिए बाधक के रूप में देखा जा सकता है क्योंकि इन्हें उन के शहरी तबके द्वारा शुरू से ही हथियाया जा रहा है. आरक्षण को निस्संदेह तौर पर लाभकारी माना जाता है परन्तु इस के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक मूल्यों को नहीं देखा जाता. आरक्षण की सब से बड़ी कीमत जातियों के जीवित रहने और डॉ. आंबेडकर की “जाति विनाश” की योजना को चुकानी पड़ी है. प्राइमरी स्तर पर इसका जो कहर बच्चों पर गुजरता है कि वे कोई निम्न प्रजाति के हैं, उन्हें अपने आप में हीन भावना से भर देता है. आरक्षण ने शासक वर्गों को इन जातियों को बुनियादी सुविधाएँ जैसे बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएँ, शिक्षा और रोज़गार आदि देने की जुम्मेदारी से बचने का बहाना भी दे दिया है.

डॉ. आंबेडकर अपने सपने की कमियों को समझ गए थे जिस ने उच्च शिक्षित दलितों का अलग वर्ग पैदा कर दिया था. उन्होंने 1953 में आगरा में एक भाषण में खुले तौर पर कहा था कि पढ़े लिखे दलितों ने मुझे धोखा दिया है. उन्होंने अपने जैसी उदहारण का सपना देखा था कि कुछ पढ़े लिखे दलित महत्वपूरण प्रशासनिक पदों पर बैठ जायेगे और दलित हित का समर्थन करेंगे. उन्होंने अपने जीवन काल में ही देख लिया था कि दलितों की परवाह करने के स्थान पर पढ़े लिखे दलित उन से ही कटने लगे थे. दुर्भाग्यवश वे इस बात को नहीं देख सके कि उच्च शिक्षित दलितों का वर्ग परिवर्तन उन्हें दलित वर्ग के साथ सम्बन्ध रखने में बाधक होगा.

Advertisement. Scroll to continue reading.

अगर आंबेडकर इन नीतियों को देखने के लिए आज जीवित होते तो वे निश्चित तौर पर इन्हें समाप्त करने की मांग करते जैसी की मोदी जी ने भी आशंका व्यक्त की है. आरक्षण का असली अभिप्राय इस बात से समझना चाहिए कि इस का लाभ कौन ले रहा है और इनकी कीमत कौन अदा कर रहा है.

(अनुवादक– एस.आर. दारापुरी)

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement