प्रातः स्मरणीय भाई साहब अतुल माहेश्वरी की आज चौथी पुण्य तिथि है। हां हम ‘उन्हें भाई’ साहब नाम से ही पुकारते रहे हैं। अमर उजाला उन्हें ‘नवोन्मेषक’ कहता है। यह उसका विषय है। चौथी पुण्य तिथि पर एक ऐसे व्यक्ति जो इंसानियत की मिसाल हो, जो मनसा, वाचा, कर्मणा पत्रकारिता और अमर उजाला को समर्पित हो, जो अपने कर्मचारियों, छोटे से छोटे हम जैसे कार्यकर्ताओं का भी पूरा-पूरा ध्यान रखते हों, जिन्हें हर स्टेशन का स्टींगर मुंह जुबानी याद हो, जो हर फोन काल को स्वयं रीसिव करते और रीसिव न हो पाने की स्थिति में काल बैक करते, हर पत्र का उत्तर देना मानों उनका अपना दायित्व होता, कोई आमंत्रण हो तो उपस्थित न हो सकने की स्थिति में उसके लिए शुभ कामना का पत्र और किसी कर्मी, कार्यकर्ता के दुख-सुख में ढाल बन समाधान करते ऐसे संपादक को खोने का दुख हम-सा तुच्छ कार्यकर्ता भी महसूस कर सकता है। भाई साहब! आपको अश्रुपूरित श्रद्धांजलि, ईश्वर आपकी आत्मा को शान्ति दे।
मित्रों! इस समय जब हम स्व. अतुल माहेश्वरी जैसे विलक्षण और सामान्य से सामान्यतम इंसान का उल्लेख कर रहे हैं तो हमें उस संस्थान के अतीत के दिन याद आते हैं, जब हम अमर उजाला से जुड़े थे। दूसरा संस्करण जो बरेली से निकलता था। 7वां दशक जो उत्तराखण्ड में वर्तमान आन्दोलनों के प्रादुर्भाव का समय था। वन, शराबबन्दी और विद्यालय, सड़क, बिजली और पानी के आन्दोलन होते थे। इन आन्दोलनों के बीच उत्तराखण्ड का कांसेप्ट उभर रहा था। अमर उजाला के पास तब साधन ज्यादा नहीं हुआ करते थे। जगह-जगह से आन्दोलनकारियों और आन्दोलनों की खबरें बरेली पहुंचाते और अखबार जनता के बीच। अमर उजाला और जनता के बीच मित्रता का रिश्ता बन गया। इस रिश्ते को भाई साहब बराबर पुष्ट करते रहे। उत्तराखण्ड आन्दोलन तक यह रिश्ता बखूबी जारी रहा।
समय के साथ बहुत कुछ बदल गया है। अमर उजाला गर्व करता है कि वह उत्तराखण्ड का नम्बर एक अखबार है। लेकिन वह कैसे नम्बर एक बना, उस इतिहास की ओर झांकने की इच्छा या सोच उसके पास नहीं हैं। वह उन नौकरों के भरोसे है जो प्रबंधन, संपादन, प्रसार, विज्ञापन, एचआर या किसी भी कुर्सी का भार हो सकता है लेकिन उसका समर्पण उस संस्थान के लिए तो नहीं ही है जिसके लिए स्व. डोरीलाल अग्रवाल, मुरारीलाल माहेश्वरी, अनिल अग्रवाल, और अतुल माहेश्वरी ने अपनी जिन्दगी लगा दी।
आज प्रबंधन का कौन नाम है जो अपने कर्मियों के सुख दुख में शामिल होता है? आज कौन संपादक अपने मातहतों को डांटने के अलावा इसलिए फोन करता है कि उसकी परेशानियां जान सके। ये सच है कि भाई साहब के समय से संस्थान में भारी भरकम सेलरी के संपादकों ने शोषण के द्वार खोल दिए थे और अब तो केवल शोषण संस्थान का क्षेत्र रह गया है। बरेली के बाद मेरठ और अब देहरादून से जुड़ने के 40 वर्षों में हम संस्थान के लिए पत्रकार से शौकिया पाठक हो गये हैं। हां, हमारे संस्थान ने बकायदा इसका शपथ पत्र हमसे भरवाया है। संस्थान का कोई नौकर नहीं जानता कि हम आठवें दशक से अमर उजाला के संपादकीय पृष्ठ पर छपते रहे हैं। आज स्थिति ये है कि हमारे बनाये प्रेस नोट भी काट-छांट अथवा रद्दी बन जाते हैं। स्थानीय संपादक एलएन शीतल एक बार और विजय त्रिपाठी दो बार हमें केवल इसलिए फोन किए हैं कि हमने शपथ पत्र नहीं भेजा है। अपमानित होते रहने के बाद भी भाईसाहब, आपसे सम्बन्धों के चलते अखबार छोड़ नहीं पा रहे हैं। आपकी दया से मां सरस्वती की जो कृपा 40 साल पहले थी, बनी हुई है।
भाई साहब! आपको अपना दुख तब कहते थे, समाधान हो जाता था, अब इसलिए कह रहे हैं कि अपना दिल हल्का होगा। सच में संस्थान आपका नाम बेचने तक की स्थिति में पहुंच गया है। आपके नाम से प्रारम्भ होने वाली छात्रवृति 15 लाख के बजाय 15 करोड़ की क्यों नहीं होनी चाहिए थी? बने-बनाये फ्लाई ओवर को कोई सरकार आपका नाम दे, अच्छी बात है। यदि वह आपका सचमुच सम्मान करती है तो आपके नाम नया फ्लाई ओवर क्यों नहीं बना देती? आप हमारी यादों में बसे हो। हम हृदय की गहराईयों से आपका स्मरण करते हैं। आपको हार्दिक श्रद्धांजलि। आप इंसानित की मिसाल थे।
पुरुषोत्तम असनोरा
PURUSHOTTAM ASNORA
purushottamasnora@gmail.com
Comments on “अतुल माहेश्वरी की चौथी पुण्य तिथि और अमर उजाला से चार दशक से जुड़े एक पत्रकार का दुख”
3 जनवरी 15 को फेसबुक पोस्ट ‘अतुल जी इंसानियत की मिसाल थे‘ और 6 जनवरी को ‘भडास4 मीडिया‘ में ‘अतुल माहेश्वरी की चैथी पुण्य तिथि और 40 साल के अमर उजाला पत्रकार का दुख‘ आलेख प्रकाशित होने के बाद अमर उजाला के स्थानीय संपादक ने हमारा हैड गैरसैंण बन्द कर कर्णप्रयाग हैड से हमारे समाचार तीन दिन लगाये, तब हमने 17 जनवरी को अमर उजाला छोडने की घोषणा की