जितेंद्र कुमार-
बीबीसी और न्यूज क्लिक पर छापे… दो साल पहले न्यूज क्लिक पर ऐसे ही छापे डाले गए थे जो परसों बीबीसी के दफ्तर पर डाले गए. हां, न्यूज क्लिक के दफ्तर पर ही छापे नहीं डाले गए थे बल्कि इसके डायरेक्टर और अभी बड़े अधिकारियों के घर पर भी छापे डाले गए थे जो लगभग 114 घंटे मतलब लगभग साढ़े पांच दिन चले थे.
न्यूज क्लिक का मामला दूसरे रुप में थोड़ा अलग भी था. वह पोर्टल वामपंथी रुझान का है, जनता व जनता से जुड़े मामलों में खबरें लिखता है, बहस चलाता है और भाजपा व मोदी के सांप्रदायिक, जातिवाद व पूंजीपति समर्थक नीतियों का विरोध करता है.
लेकिन बीबीसी पर छापे? इसका क्या मतलब था. वहां काम करने वाले 90 फीसदी कर्मचारी भाजपा समर्थक है, 95 फीसदी से अधिक सवर्ण है (बीजेपी का दिली समर्थक) फिर वहां छापे क्यों डाले गए?
एक पत्रकार के रुप में मेरी दिली ख्वाहिश थी कि बीबीसी पर मारे गए छापे का डिटेल आंखों-देखा हाल लिखा या लिखवाना जाना चाहिए. लेकिन बीबीसी के चरित्र को देखते हुए मैं कह सकता हूं कि वैसा कुछ नहीं होगा.
फिर भी यह उत्सुकता तो है ही कि वहां जब ईडी की टीम छापा मारने के लिए पहुंची तो क्या हुआ? और बीबीसी के पत्रकारों की क्या प्रतिक्रिया थी?
जब ईडी की टीम बीबीसी दफ्तर पहुंची तो वरिष्ठ लोगों में रूपा झा को छोड़कर लगभग सभी स्वनामधन्य तीसमारखां पत्रकार मौजूद थे. पंजाबी के संपादक अतुल सेंगर, सभी भाषाओं के डिजिटल हेड मुकेश शर्मा, मराठी के संपादक, तेलगु के संपादक, गुजराती के संपादक. हां, हिन्दी के संपादक राजेश प्रियदर्शी दफ्तर में मौजुद नहीं थे. ज्योंहि पता चला कि ईडी ने कार्यालय पर दस्तक दे दिया है, एकाएक गहन चुप्पी में पूरा दफ्तर डूब गया. वे लोग भी की बोर्ड पर जोर-जोर से हाथ चलाने लगे जिसने वर्षों से कोई स्टोरी नहीं की है (कम से कम मुझे तो स्टोरी नहीं दिखी है) कुछ लोगों में प्रवृतिस्वरूप भाजपाई होने के चलते आत्मिक खुशी भी हुई होगी. लेकिन गहन चुप्पी के चलते यह प्रकट नहीं हो पाया.
खैर, किसी ने ईडी टीम से यह पूछने की हिमाकत नहीं की कि आपके पास बीबीसी दफ्तर में घुसने के कागजात हैं या नहीं. यह तो छोड़िए बड़े-बड़े लोगों के छक्के छुड़ा देने का दावा करने वाले इन पत्रकारों ने ईडी वालों से पहचान पत्र तक नहीं मांगा! बीबीसी के सभी नहीं, कई पत्रकारों का मोबाईल फोन ले लिया गया और जिनका नहीं लिया गया, उनसे कहा गया कि आप किसी से बात नहीं करेंगे साथ ही उन्हें कंप्युटर का इस्तेमाल नहीं करने को कहा गया! सभी पत्रकारों को छठी मंजिल पर जाने का आदेश दिया गया और समझदार व आज्ञाकारी बच्चों की तरह उन सभी लोगों ने ईडी के आदेश का पालन करते हुए छठी मंजिल पर चले गए (हां, ट्वीटर पर जो एक आध वीडियो दिख रहे हैं वे सभी छठी मंजिल के हैं)
गहन सन्नाटे के बाद एकाएक पंकज प्रियदर्शी, दिनेश उप्रेती और फैजल मुहम्मद अली को एहसास हुआ कि अरे, ये लोग ऐसा कैसे कर सकता है, हम तो पत्रकार हैं हमें ईडी वालों से पूछना चाहिए कि सचमुच वे ईडी वाले हैं ही भी या नहीं? फिर उन दोनों ने ईडी वालों से अपना आई कार्ड दिखाने के लिए कहा. इतनी देर के बाद ईडी वालों को पहली बार एहसास हुआ कि वे बीबीसी के दफ्तर में है. फिर इन्हीं दोनों ने ईडी वालों से यह भी पूछा कि आपलोग जो इस रुप में आए हो-आपके पास ऑफिसियली आदेश के कागजात हैं? और आप इस तरह से बदतमीजी क्यों कर रहे हो? इन दो सवालों से वे थोड़े मद्धिम पड़े. ईडी वालों ने कागजात तो इन दोनों को नहीं दिखाए, लेकिन हड़काने की प्रक्रिया थोड़ी शिथिल जरूर पड़ी. हां, इस बीच विनीत खरे नामक पत्रकार अपने सहयोगियों से यह कहते पाए गए, ‘अगर आप इस तरह के डॉक्यूमेंट्री बनाते हो तो आपके साथ नाजायत थोड़े न किया जा रहा है!’ विनीत खरे के कहने का मतलब शायद यह था कि अगर आपने पुलिस पर गोली चलायी है तो पुलिस को भी पूरा हक है कि वे आपका इनकॉउटर करे! मतलब यह भी कि जहां विनीत खरे जैसे लोग काम कर रहे हैं उन्हें शायद यह पता ही नहीं है कि बीबीसी न्यूज गैदरिंग का काम करता है और समाचार देना बीबीसी का पहला और एकमात्र काम है!
लेकिन सवाल यह नहीं है कि जिस दफ्तर पर छापा पड़ा, वहां चुप्पी क्यों थी या विनीत खरे जैसे लोग छापेमारी से सहमत क्यों थे? सवाल यह है कि इतने ‘कालीदास’ बीबीसी में क्यों है जो जिस टहनी पर बैठा है उसी को काटता रहता है? इसका एकमात्र कारण यह है कि बीबीसी में दलित-बहुजन है ही नहीं. सारे के सारे सवर्ण भरे हुए हैं जो वैचारिक रुप से और क्रिया कलाप से बीजेपी के कट्टर समर्थक हैं. बीबीसी मैनेजमेंट व संपादकों को यह एहसास ही नहीं होता है कि देश का 14-16 फीसदी आबादी कैसे सौ फीसदी जगह पर काबिज है? उन वरिष्ठतम लोगों को अपने अनैतिक होने का एहसास ही नहीं होता है!
और हां, इन सवर्ण पत्रकारों की चुप्पी तो इसलिए भी बहुत जरूरी है न कि अगर नौकरी न रहे तो लाखों का पगार का क्या होगा?