: चाय और चाटुकार : उनके श्रीमुख से हमारी तारीफ में निकले शब्द हमारे लिए गर्व का विषय हैं या नहीं इस पर चिंतन करना ठीक नहीं है. क्योंकि कलम झाड़ू का काम कर ही नहीं सकती. लेकिन श्रीजी के जीवंत विग्रह के साथ स्वयंचित्रकारिता ने पत्रकारिता को नया काम दिखा दिया. झाड़ू पर ध्यान दो. मुझे लगता है कि बेहतर राजनीतिक /व्यावसायिक/कूटनीतिक प्रबंधन के बल पर स्वयंभू महान जननायक बने आदरणीय अब जो कहेंगे, हमारे स्वघोषित चौथे खम्बे वाले वही सुनेंगे और सुनाएंगे. आज जो पीढ़ी आँखों में देश के लिए कुछ करने का जज्बा लिए पत्रकारिता की बारहखड़ी सीख रही है वह किसे आदर्श मानेगी? वे जो १०० करोड़ की वसूली के इल्जाम में जेल यात्रा कर बलिदानी पुरुष बने घूम रहे हैं या वे जो अपनी बेटी की उम्र की लड़की के साथ यौन दुराचार के आरोप का सामना कर रहे हैं.
भौतिक जगत की जिजीविषा ने जीवन को सादगी से दूर कर दिया है. मेरे दिवंगत पिताजी ने एक बार मुझसे कहा था कि पत्रकार को विनम्र होना चाहिए और समाज सापेक्ष होना चाहिए. आज हम क्या पढ़/देख/सुन रहे हैं? जिस चैनल का मालिक खुद हरियाणा की चुनावी रैली में एक पार्टी विशेष के लिए वोट मांग रहा हो उस चैनल से आप यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि वह ऐसा कोई मुद्दा जनहित में उठाएगा जिससे आदरणीय श्रीजी की छवि ख़राब होती हो.अम्बानी परिवार जिस चैनल का मालिक हो उससे देश के दरिद्रनारायण के हित की खबर की अपेक्षा दिवास्वप्न के सिवा अन्य कुछ नहीं है. झाड़ू आंदोलन के बहाने मीडिया के सामने विज्ञापनी चारा परोस दिया गया है. चारा चरो और सरकार के पक्ष में जुगाली करते रहो.
मेरे विचार से वर्तमान समय पत्रकारिता के लिए सबसे ज्यादा चुनौती भरा है. क्योंकि अधिकतर बड़े अख़बार समूह पत्रकारिता के सहारे अपने अन्य व्यापारिक साम्राज्य का विस्तार करने और राज्यसभा की सदस्यता पाने के लिए कलम को बेच देते हैं. विज्ञापनों की चादर ने उनके विवेक को आच्छादित कर रखा है. नतीजा यह है कि किसी भी सरकारी महकमे के कामकाज की गड़बड़ी उन्हें नजर नहीं आती. ऐसे में सामाजिक संचार माध्यम पर सक्रिय बुद्धिजीवी वर्ग की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह हमेशा सर्वहारा के पक्ष में अपनी मेधा का प्रयोग करता रहे.
सवाल श्रीजी के इतर भी हैं. उनकी भूटान, नेपाल, जापान और अमेरिका की यात्राओं का ख़बरीकरण जिस तरह से प्रस्तुत किया गया वह सूचना के प्रस्तुतीकरण का अतिरेक था. यह समझा जाना भी जरुरी है कि तक़रीबन सभी चैनलिया चतुर अमेरिका पहुंचे थे. चैनल इतना खर्च क्यों करने लगे? किसे मूर्ख बना रहे हो ? यह भी सच है कि देश का आम जनमानस आज भी मीडिया को अपना अंतिम सहारा मानता है.
यह ठीक है देश परिवर्तन के संक्रमणकाल से गुजर रहा है. परिवर्तन धीरे-धीरे ही होता है. इसलिए बदलाव के लिए प्रतीक्षा करनी होगी. धैर्य रखना होगा. परन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं कि अच्छे दिन की कल्पना में हम बुरे का विरोध करना बंद कर दें. चाय पार्टी से इतराये मीडिया को यह ध्यान रखना होगा कि जनता जब किसी भी झूठ, दम्भ, दिखावे, छलावे से ऊब जाती है तब वह अपना रास्ता स्वयं चुनती है. अच्छे बुरे की तमीज जानने के लिए उसे दुम हिलाने वाली पत्रकारीय फ़ौज नहीं चाहिए. श्रीमुख से आपके लिए बिलकुल सही सम्बोधन निकला है. आपने कलम को झाड़ू बना दिया है जिसने देश के आम जनमानस की उम्मीदों पर झाड़ू फेरने की सुपारी ले ली है. दीपावली से ठीक एक दिन पहले विदर्भ क्षेत्र में ६ किसानों की आत्महत्या वाली खबर झाड़ू बन चुकी कलम भला कैसे लिख पाती? लेकिन जिन्होंने अपनी कलम को झाड़ू नहीं बनने दिया उनकी बदौलत यह खबर जैसे तैसे नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह गूंज रही है. श्रीजी की पार्टी में विदर्भ के सभी महान नेता इस आवाज को सुन नहीं पा रहे हैं. क्योंकि जिन पर यह आवाज उठाने की जिम्मेदारी है वे चाय की चुस्कियों में डूब धन्य हो रहे हैं.
लेखक अजय भट्टाचार्य मुंबई के वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनका यह लिखा उनके फेसबुक वाल से लिया गया है.