अजीत साही-
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जर्मनी गए हैं. चार दिन पहले भारत के चीफ़ जस्टिस जर्मनी गए थे और एक भाषण में कह रहे थे कि भारतीय न्यायपालिका पूरी तरह स्वतंत्र हैं और उसकी निगाह में सब बराबर हैं.
आख़िर क्या वजह है कि मोदी यात्रा से चार दिन पहले चीफ़ जस्टिस को भी जर्मनी जाना पड़ा और सफ़ाई देनी पड़ी कि हम पूरी तरह स्वतंत्र हैं? हुआ ये है कि पश्चिम के देशों में चर्चा आम हो रही है कि मोदी युग में भारत की न्यायपालिका रबर स्टांप होती जा रही है. यूरोप और अमेरिका में सिर्फ़ बड़े एनजीओ ही नहीं बल्कि कई सरकारी एजेंसियों की रिपोर्टों में अब भारतीय अदालत की कारगुज़ारी पर सवाल उठने लगे हैं.
जैसे भारतीय लोकतंत्र की पहले पूरी दुनिया में तारीफ़ होती थी वैसे ही भारतीय न्यायपालिका की पूरी दुनिया में तारीफ़ होती थी. लेकिन मोदी के कार्यकाल में अब लोकतंत्र और न्यायपालिका दोनों पर ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सवाल खड़े होने लगे हैं. जर्मनी में ही दो तीन ऐसे विश्वविख्यात लीगल एनजीओ हैं जिन के स्कॉलरों ने भारतीय न्यायपालिका की बर्बादी पर जम कर लिखना शुरू कर दिया है.
मज़ेदार बात ये है कि एक तरफ़ चीफ़ जस्टिस अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर झूठ बोल रहे थे और दूसरी तरफ़ मोदी के वफ़ादार सुप्रीम कोर्ट के जज इंसाफ़ की धज्जियाँ उड़ाते हुए मोदी को क्लीन चिट और तीस्ता सेतलवाड की गिरफ़्तारी का आदेश दे रहे थे. आज इंडिया का वही आलम है जो पुराने ज़माने की हिंदी फ़िल्मों में होता था कि गुंडों से बचने के लिए भाग कर हीरोइन जिसके पास जाती थी वो गुंडों का दुष्कर्मी सरदार निकलता था.
एक तरह से ये बहुत अच्छा है कि भारत की न्यायपालिका पूरी तरह एक्सपोज़ हो रही है. पुराने ज़माने की हिंदी फ़िल्मों में जब तक विलेन की सच्चाई छुपी रहती थी तब तक गुनाह बढ़ते रहते थे. विलेन के ख़ात्मे की शुरुआत की पहली सीढ़ी होती है विलेन का एक्सपोज़ होना. और भारतीय समाज का ये विलेन अब पूरी तरह एक्सपोज़ हो चला है. इसीलिए अब चीफ़ जस्टिस को विदेश जाकर कहना पड़ रहा है कि नहीं नहीं हम नंगे नहीं हैं.
लेकिन दुनिया देख रही है कि भारत के जजों का चरित्र बेनक़ाब हो चुका है.