चंद्रभूषण-
बीजेपी और आरएसएस का शीर्ष नेतृत्व अगले साल की शुरुआत में ही होने वाले यूपी विधानसभा चुनाव को लेकर लंबी-लंबी बैठकें कर रहा है। बीते इतवार को दिल्ली में हुई कई बैठकों की श्रृंखला में संघ सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले के अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के अलावा यूपी में पार्टी के संगठन मंत्री सुनील बंसल भी शामिल हुए। दिलचस्प बात है कि इस बैठक में यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की हिस्सेदारी नहीं रही, हालांकि राज्य के चुनाव मुख्य रूप से उन्हीं के किए-धरे के इर्दगिर्द होने हैं।
इससे जो निष्कर्ष निकलते हैं, उनपर बाद में बात होगी, उससे पहले अभी के आपातकालीन परिवेश में इस बैठक के औचित्य पर बात होनी चाहिए। जब पूरा देश महामारी से युद्ध स्तर पर लड़ रहा है, तब बीजेपी और संघ चुनाव को ही अपने लिए सबसे बड़ा युद्ध साबित करने में जुटे हुए हैं। इस बात को लेकर उन्हें कोई शर्मिंदगी भी नहीं है। कोरोना की बीमारी में यूपी की अंतरराष्ट्रीय ख्याति सिर्फ एक बात को लेकर बनी है कि यहां से जारी होने वाली कोई भी संख्या भरोसेमंद नहीं है। कितनी मौतें हुईं, कितने लोग बीमार हुए, इस बारे में कहना ही क्या। कितने टेस्ट हुए, इस जानकारी को भी कोई भरोसेमंद मानने के लिए तैयार नहीं है।
योगी सरकार की अकेली उपलब्धि सूचनाएं दबाने को लेकर है और यह बात कोरोना कालीन सूचनाओं पर और सख्ती से लागू होती है। लखनऊ में गोमती किनारे जलती सैकड़ों चिताओं की तस्वीरें वाइरल हुईं तो कैमरे की पहुंच वहां तक न होने पाए, इसके लिए खड़ी की गई बाड़ के फोटो और ज्यादा वाइरल हो गए। उन्नाव से लेकर इलाहाबाद तक और गाजीपुर से बिहार के सीमावर्ती जिले बक्सर तक यूं ही गंगा में बहा दी गई और विभिन्न नदियों के तटों पर जरा से बालू में दबाई सैकड़ों लाशें पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बनीं। लेकिन बीजेपी नेतृत्व की चिंता यूपी की इन सरकारी बदइंतजामियों से नहीं जुड़ी है।
बीजेपी और संघ के शीर्ष नेताओं की बैठक में चर्चा का मुख्य विषय रहे यूपी के पंचायत चुनाव, जिनमें पार्टी दूसरे नंबर पर रही और उसके कई मजबूत गढ़ों में उसका प्रदर्शन बहुत खराब रहा। जो जानकारी सामने आ रही है, उसके मुताबिक हार की दो बड़ी वजहें चिह्नित की गई हैं। एक, पार्टी के बड़े नेताओं का पांच राज्य विधानसभा चुनावों में व्यस्त रहना, और दूसरा, पार्टी के राज्य नेतृत्व का अति आत्मविश्वास। तीसरी वजह बीमारी का बहुत तेजी से फैलना बताई गई है लेकिन यह जबर्दस्ती की वजह है।
यूपी के पंचायत चुनाव अप्रैल भर चले और इसके शुरू में बीमारी की सघनता के बारे में किसी को ठीक-ठीक अंदाजा भी नहीं था। कोरोना की विभीषिका से जुड़ी खबरें वहां अप्रैल के अंतिम हफ्ते और फिर मई में आनी शुरू हुईं, जिसके पहले ही पंचायत चुनाव लगभग निपट चुके थे। ये चुनाव अगर बीमारी से जुड़ी बदहाली उजागर होने के बाद हुए होते तो इनमें बीजेपी का सूपड़ा ही साफ हो जाता।
संघ-बीजेपी की योजना यूपी का 2022 विधानसभा चुनाव अयोध्या में भव्य राममंदिर निर्माण से जुड़ी खबरों की बाढ़ के सहारे निकाल ले जाने की रही है, जिसके लिए मोमेंटम बनाने की उन्होंने बीमारी के दौरान भी भरपूर कोशिश की। लेकिन पूरा मीडिया जेब में होने के बावजूद अगले एक-दो महीने खबरों की धार इस तरफ मुड़ती हुई नहीं जान पड़ती। उनकी असली चिंता यह है कि बीमारी का यह दौर अगर जल्दी खत्म नहीं हुआ और चुनाव से पहले इसका एक दौर और आ गया तो लेने के देने पड़ सकते हैं।
यूपी में विपक्ष बुरी तरह बिखरा हुआ है और उसकी तरफ से सड़क पर कोई पहलकदमी भी नहीं दिख रही है। लिहाजा खतरा बहुत बड़ा तो नहीं है। लेकिन 80 लोकसभा सीटों वाला यूपी देश में बीजेपी की एकछत्र सत्ता के लिए धुरी की भूमिका निभाता है। उसमें जरा भी डगमगाहट हिंदुत्व धारा के लिए लंबी अवधि में काफी बुरे नतीजे लेकर आ सकती है। यह सारी कसरत इस आशंका से उबरने के लिए ही है।
हिंदुत्व धारा का भीतरी सत्ता समीकरण यह है कि संघ के महारथी मोदी-शाह की राजनीतिक अजेयता का भरपूर फायदा उठा रहे हैं लेकिन अपनी ही खड़ी की हुई राजनीति पर अपनी पकड़ कमजोर होने की तकलीफ भी उन्हें खाए जा रही है। शुरू में उन्होंने संजय जोशी से उम्मीद लगाई, जिसकी जड़ में ही पॉर्न सीडी का मट्ठा डाल दिया गया। फिर गडकरी का समानांतर ध्रुव खड़ा करके बात संभालने की कोशिश की गई लेकिन उसकी भूमिका समय-समय पर मीडिया का मनोरंजन करने तक सिमट गई है। ले-देकर मोदी-शाह धुरी को संतुलित करने की संघी उम्मीद योगी आदित्यनाथ पर टिकती गई, जो खुद लंबे समय तक यूपी बीजेपी के लिए एक भारी समस्या ही माने जाते रहे हैं।
बीते चार साल और कुछ महीनों में योगी का कद इतना बड़ा तो नहीं हुआ है कि वे मोदी-शाह के बिना राजनीति में दो कदम भी आगे बढ़ सकें, लेकिन उग्र हिंदुत्व के एक वैकल्पिक चेहरे के रूप में उनकी छवि जरूर बनी है।अभी की पोजिशनिंग इस बात को लेकर है कि यूपी विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी के टिकट बंटवारे में योगी की कितनी चलेगी। साथ में यह सवाल भी जुड़ा है कि योगी अगर अपनी हैसियत को लेकर अड़ गए तो क्या उन्हें पूरी तरह किनारे करके आगे बढ़ने पर भी संघ-भाजपा नेतृत्व में सहमति बन सकती है?
एक बात तो तय है कि यूपी बीजेपी में योगी के नेतृत्व को लेकर खुशहाल स्थिति बिल्कुल नहीं है। कोरोना मिसमैनेजमेंट को लेकर कुछ बीजेपी विधायकों ने ही खुलकर अपना असंतोष जाहिर किया है। इसके अलावा मुख्यमंत्री के एक क्लोज कॉकस का जिक्र भी बीजेपी के निचले स्तर के नेता निजी बातचीत में बड़ी कड़वाहट के साथ करते हैं। अगले छह महीने उत्तर प्रदेश के लिए राजनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण होने वाले हैं। तुलनात्मक रूप से काफी अच्छी रणनीतिक स्थिति के बावजूद विपक्ष अभी ट्विटर पॉलिटिक्स में उलझा हुआ है। जिस दिन उसने सड़क पर उतरना शुरू किया, उसी दिन बीजेपी की बहुत सारी ढकी-छुपी बीमारियां सामने आ जाएंगी। इस क्रम में हिंदुत्व का भीतरी विपक्ष कितना निखरता है, यही देखने की बात है।
सौमित्र रॉय-
खबर है कि यूपी में सीएम योगी आदित्यनाथ को 8 महीने का जीवनदान मिल गया है। यह जीवनदान उसके अच्छे प्रशासन की शर्त पर मिला है, यानी योगी अभी 8 माह प्रोबेशन में रहेंगे।
मोदी और शाह के बेहद खास आरएसएस के नंबर 2 दत्तात्रय होसबोले ने अगले साल यूपी का चुनाव जीतने का जो फॉर्मूला बनाया है, उसमें दंगों, साम्प्रदायिकता और जातिवाद का मसाला इस कदर कूटकर भरा होगा कि आप बंगाल चुनाव को भूल जाएंगे।
साथ में सपा और बसपा के वोट बैंक में सेंध लगाने की भी रणनीति बनी है। पंचायत चुनाव में शानदार प्रदर्शन करने वाली सपा के मुस्लिम वोट बैंक को तोड़ने के लिए फिर एक बार “वोट कटवा” ओवैसी की पार्टी काम आएगी।
सपा अपने यादव-ओबीसी वोट बैंक को बरकरार रखना चाहती है। लेकिन बीजेपी की बी टीम, यानी बसपा ग़ैर यादव, ग़ैर ओबीसी के वोट लूटने की तैयारी में है, जो “ठाकुर राज” के विरोधी हो चले हैं। यानी योगी का चेहरा चमकाने के लिए बीजेपी किसी भी हद तक जाएगी।
कृष्ण कांत-
खबर है कि यूपी चुनाव से पहले बीजेपी-आरएसएस की गोपनीय बैठक हुई है और भविष्य की रणनीति पर मंथन किया गया है. इसमें प्रधानमंत्री और गृहमंत्री भी शामिल हुए. बैठक और चर्चा तो अच्छी चीजें हैं, फिर गोपनीय क्यों? क्या लोकतंत्र में चुनाव कोई चौर्यकर्म है? बीजेपी के साथ आरएसएस क्यों? क्या वह कोई राजनीतिक पार्टी है? क्या आरएसएस एक राजनीतिक दल या राजनीतिक संगठन के रूप में रजिस्टर्ड है? कहते हैं वह तो एक सांस्कृतिक संगठन है. चुनाव किस सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा है? समय समय पर आरएसएस सरकार से रिपोर्ट लेता है, उसे मशविरा देता है, उसकी नीतियों को प्रभावित करता है. आरएसएस किस हैसियत से ऐसा करता है? आरएसएस सांस्कृतिक संगठन बनकर राजनीति क्यों करता है?
अगर आरएसएस की राजनीति में दिलचस्पी है तो वह खुलकर क्यों नहीं आता? लोकतंत्र में राजनीति करना तो हर व्यक्ति या संगठन का अधिकार है. यह कोई शर्म की बात तो है नहीं, फिर आरएसएस की राजनीति गोपनीय क्यों होती है?
मीडिया इस गोपनीय राजनीति की खबरें चलाता है लेकिन इस पर्देदारी पर कभी सवाल नहीं पूछता. जो लोग सरकार या पार्टी में गांधी परिवार के दखल पर बहुत चिंतित होते थे, वे संघ परिवार के दखल निहाल होते हैं. आप कहेंगे कि संघ परिवार गांधी परिवार की तरह चार सदस्यों वाला परिवार नहीं है. अच्छी बात है. लेकिन रास्ता तो वही चोर दरवाजे से आता है! गांधी परिवार फिर भी सरकार का हिस्सा होता है और जवाबदेह होता है. यूपीए सरकार में सोनिया गांधी की अगुवाई में चुनाव लड़ा गया था और उनकी अगुआई में एक सलाहकार समिति फिर भी घोषित थी जिसके बारे में सवाल पूछा जा सकता था. क्या आरएसएस की कोई जवाबदेही तय हो सकती है?
अगर नीयत साफ है तो नीतियों में पारदर्शिता क्यों नहीं है? आरएसएस को अपनी राजनीतिक नीतियां, योजनाएं और मंशाएं घोषित करनी चाहिए.