दिल्ली पुलिस ऐसे करती है जांच : सिग्नल एप मेरे फोन में इंस्टाल होता तो मैं फंस चुका होता…

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Yashwant Singh-

किसी दूसरे प्रदेश में तैनात एक पुलिस अधिकारी का कहना है कि बिना पैसा लिए पुलिस वाले तो जो जेनुइन काम है, अच्छा काम है, वो नहीं करते, थाने में फर्जी एफआईआर लिखकर ग्रिल करने का काम वे यूं ही नहीं कर रहे हैं.

दिल्ली के भारत नगर थाने पहुंचने पर जब मैंने रिसेप्शन पर 41ए की नोटिस की कापी दिखाकर एसीपी संजीव कुमार के बारे में पूछा तो वो नोटिस लेकर एक सज्जन एसएचओ के कमरे में गए. उस कमरे से दो लोग निकले. एक आदमी सूरज पाल नाम का नेम प्लेट लगाए था और वर्दी में था. उसने हाथ में 41ए वाला नोटिस पकड़ रखा था. निकलते ही बोला- ‘तुम हो यशवंत सिंह’

‘हां’

‘चलो उधर!’

एक केबिन में ले जाया गया. वह मेरे बारे में भड़ास के बारे में सभ्य तरीके से जानना चाह रहा था. थोड़ी देर बाद एसीपी संजीव कुमार सादे कपड़े में एक अन्य व्यक्ति के साथ आए. उनके साथ एक अन्य गोल मटोल व्यक्ति भी सादे कपड़ों में था जिसका नाम नहीं जानता लेकिन अनुमान है कि वही थाने का एसएचओ रहा होगा. इन दोनों के आते ही इंस्पेक्टर सूरजपाल अपनी कु्र्सी छोड़कर उठ गया और मेरे बगल में आकर बैठ गया. इंस्पेक्टर की कुर्सी पर अब सादे ड्रेस वाला एसीपी बैठा था.

इसके बाद इंस्पेक्टर सूरज पाल का स्वर तल्ख हुआ. ‘झापड़ मारेंगे अगर सच सच नहीं बताया तो. यहां दूसरे तरीके भी हैं सच बुलवाने का. रात भर से लेकर दो दिन चार दिन यहीं जांच चलेगी अगर सब कुछ सच सच नहीं बताया तो’

मैं हतप्रभ. आईजीआई एयरपोर्ट पर दर्ज फर्जी मुकदमे में जब जांच में शामिल होने के लिए गया था तो वहां सम्मान के साथ बिठाकर, चाय पानी पिलाकर, कैमरा लगाकर लिखित में सवालों का जवाब लिया गया. पहले से सवालों के प्रिंट तैयार थे. वे सवाल पूछते गए मैं जवाब बोलता और लिखता गया. कैमरा आन रहा. सब कुछ आऩ कैमरा.

मैं उसी जैसा कुछ किए जाने की सोचकर पहुंचा था, अकेले हाथ झुलाते हुए. मेट्रो से गया था. कौन सात आठ सौ रुपये ओला उबेर में खर्च करे. मेट्रो से जाने में सीढ़ियां चढ़ने उतरने को मैं वर्जिश मान लेता हूं ताकि कुछ तो कैलरी बर्न हो.

मेरे मन में कोई चोर होता, कोई अपराध किया होता तो जाहिर है मैं अकेले न जाता. लोग अपराध नहीं किए होते हैं, उन पर फर्जी केस होता है तो भी वे अकेले नहीं बल्कि कई के साथ जाते हैं, तैयारी से जाते हैं. लेकिन मैं तो घर वालों को भी न बताया था न अपने किसी परिचित को.

थाने में ऐसी धमकी ऐसी मानसिक प्रताड़ना देख मैं दहल गया. दो अक्टूबर का दिन था. गांधी जयंती का दिन. मैंने एक बार धीरे से बीच में कहा भी- कम से कम आज दो अक्टूबर गांधी जयंती के दिन तो शारीरिक हिंसा की बात न करिए.

पर वे कहां मानने वाले. उनकी दिमागी बनावट ऐसी हो चुकी है कि वे एजेंडे पर काम करते हैं, सुपारी लेकर काम करते हैं. ये अपराध रोकते नहीं, अपराधी पैदा करते हैं, उन्हें संरक्षण और बढ़ावा देते हैं, मुझे ऐसा लगा उस दिन इनके व्यवहार को देखकर.

ये कोई इनवेस्टीगेशन नहीं कर रहे थे, ये मुझे चोर मानकर प्रताड़ित कर रहे थे. ये पत्रकारिता, मीडिया, मेरे करियर, मेरे कामकाज सबका मजाक उड़ा रहे थे, सब पर धमका रहे थे. ऐसा वही कर सकता है जिसने सुपारी ली हो, जिसे उपर से कहा गया हो कि ऐसा करना है इसके साथ.

मेरे फोन में उस दिन अगर सिग्ननल एप इंस्टाल मिल गया होता तो ये मुझे जेल भेज चुके होते. या फिर ये भी हो सकता है कि उन्हें मुझे जेल नहीं भेजना था, केवल डराना था, परेशान करना था. हालांकि जब मैं अकेले गया हूं तो जाहिर है ये भी सोचकर गया था कि जेल भेजा जा सकता हूं. जेल जाने को लेकर मैं निश्चिंत रहता हूं क्योंकि जानेमन जेल किताब पार्ट वन का अगला पार्ट दो भी लिखना है, इसका संयोग अगर बने तो स्वागत करूंगा. लोग किताब लिखने के लिए अनुभव हासिल करने के वास्ते क्या क्या नहीं करते, यहां तो मेरे सामने किताब लिखने के लिए जाने कैसे कैसे प्लाट मिल रहे हैं. तो जानेमन जेल पार्ट 2 के लिए मैं मानसिक रूप से हमेशा तैयार रहता हूं. इसी कारण अकेले चला जाता हूं थाने. पर ये उम्मीद न की थी कि ये शारीरिक हिंसा की धमकी देंगे, जांच के नाम पर आपको प्रताड़ित कर अवसाद में ले जाएंगे.

जांच के क्रम में उन्होंने एक मैसेज का प्रिंट दिखाया जिसमें रोमन में लंबा चौड़ा मैसेज लिखा हुआ था और बताया गया कि ये मैंने सिग्नल एप से महिला वकील को भेजा है जिसमें पच्चीस हजार रुपये मांगे गए थे. मैंने मैसेज को सरसरी तौर पर पढ़ने की कोशिश की तो पता चला कि रोमन में कुछ ये लिखा गया था- ‘mai bhadasi yashwant hu. 25 hajar de do varna tere khilaf chhapta rahunga. ek baar bas de do paise. phir kuchh nahi chhapega bhadas par”
ऐसा ही कुछ पच्चीस तीस लाइऩ लिखा हुआ था. मैं ये मैसेज देखकर हंसा और कहा कि ये मेरा कतई नहीं है. मैं ऐसा लिख ही नहीं सकता. और रोमन में इतना लंबा मैं लिखता ही नहीं. मैं हिंदी में लिखता हूं, शुद्ध हिंदी में.

उन सबने उसी तरह धमकाते हड़काते और पीटने की धमकी देते हुए सिगनल एप रखने और उससे ये मैसेज भेजने की बात कुबूल करने के लिए दबाव देने लगे. मैं मना करता रहा. फिर बोला कि एक बार चेक कर लेता हूं सिगनल ऐप इंस्टाल करके कि मैंने कभी ये एप यूज किया है या नहीं. वैसे मैं ये वहां बता चुका था कि ढेर सारे नए नए एप इंस्टाल कर उसके फंक्शन वगैरह चेक कर बाद में अनइंस्टाल कर देता हूं तो संभव है कभी सिगनल एप भी चेक करने के लिए इंस्टाल किया होउं और फिर हट दिया होऊं.

पर उन सबको तो मुझे ग्रिल करना था इसलिए मेरी बात को यहां ले गए कि मैं झूठ बोल रहा हूं और मान नहीं रहा हूं कि सिगनल एप से मैंने कोई मैसेज भेजा है.

मैंने वहीं पर अपने आईफोन में सिग्नल एप इंस्टाल किया और अपना नंबर डाल कर ओटीपी भरा तो आया कि अपना नाम लिखो और फोटो लगाकर प्रोफाइल बनाओ. मैंने फोन दिखा दिया- देखो, अब तक मेरा सिगनल पर कोई एकाउंट नहीं है. तो जब एकाउंट ही नहीं मैंने इस नंबर से बनाया यहां तो मैसेज कैसे भेज दूंगा.

उन सबने एक प्रिंट दिखाया भड़ास की उस पोस्ट का जिसे कभी पहले फेसबुक पर लिखा था और फिर उसे भड़ास पर डाल दिया था. एक व्यंग्य था. जिसका शीर्षक था ‘भड़ास की पक्षपाती पत्रकारिता का आजकल रेट क्या चल रहा है?’ मेरे नाम से लिखे इस व्यंग्य को वो जांच में शामिल किए बैठे थे. मुझे तेज हंसी आई और कहा कि ये व्यंग्य है, यहां स्माइली लगा है, ये पहले फेसबुक पर लिखा गया था फिर भड़ास पर डाला.

इतना सुनने के बाद उन्होंने हां हूं अच्छा ये व्यंग्य है, अच्छा इसे फेसबुक पर लिखा था… कहते हुए उस व्यंग्य आर्टकिल वाले पन्ने को अलग रख दिया…

सोचिए, हमारी दिल्ली पुलिस किस लेवल का दिमाग रखती है. एक व्यंग्य आर्टकिल को नहीं समझ सकती. जो एप मेरे मोबाइल में इंस्टाल ही नहीं है, उससे मेरे नाम से मैसेज भिजवा दिया.

बाद में किसी ने बताया कि वाट्सअप वगैरह के डिटेल तो पुलिस निकलवा कर क्रासचेक कर लेती है कि मैंने मैसेज भेजा या नहीं, सिग्नल एप का डाटा नहीं निकलवा सकती इसलिए अगर एप आपके फोन में इंस्टाल होता तो ये मान लिया जाता कि आपने इससे ये मैसेज भेजा था.

पर वो तो मेरे फोन में सिग्नल एप आजतक इंस्टाल ही नहीं हुआ इसलिए बच गया. साजिश का एकाएक पर्दाफाश हो गया. लेकिन दिल्ली पुलिस के एसीपी संजीव कुमार, इंस्पेक्टर सूरजपाल की आँखों में, तेवर में कोई बदलाव नहीं था. उन्हें तो हर हाल में मुझे चोर साबित करना था, ये सुबूत काम नहीं आया तो वो सुबूत सही…

मोदी राज में, अमित शाह के राज में, क्या दिल्ली पुलिस का चेहरा यही होना था… कितना गिरेगा दिल्ली पुलिस का स्तर… भेज लो मुझे जेल अगर मुझे जेल भेजने से दिल्ली पुलिस की वर्दी एक दो मेडल बढ़ जाते हैं तो…


ये वो व्यंग्य पोस्ट है जिसे Delhi Police के जांबाज इंस्पेक्टर सूरजपाल और एसीपी संजीव कुमार ने जांच के लिए रखा हुआ था प्रिंट निकाल कर. इस आर्टकलि के जरिए वो मुझे ब्लैकमेलर साबित करना चाहते थे… अरे कुछ तो बुद्धि का इस्तेमाल कर लिया करो. सुपारी लेने के बाद पूरी तरह अंधा नहीं हुआ जाता. कम से कम एक आंख तो खुली रखो, सच गलत को देखने समझने के लिए. ये व्यंग्य आर्टकिल वही लिख सकता है जिसकी आत्मा में ट्रांसपैरेंसी हो, जो सच सच कहने बताने जीने का साहस रखता होhttps://www.bhadas4media.com/bhadas-rate/

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पूरे प्रकरण को समझने के लिए इन्हें भी पढ़ें-

https://www.bhadas4media.com/tag/acp-sanjeev-kumar-inspector-suraj-pal/

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One comment on “दिल्ली पुलिस ऐसे करती है जांच : सिग्नल एप मेरे फोन में इंस्टाल होता तो मैं फंस चुका होता…”

  • पत्रकार, समाजसेवक,तथा आर टी आई एक्टीविस्ट जब जब किसी भोले भाले पीड़ित को न्याय दिलाने की मदद के लिए थाने में साथ जातें हैं तो हमेशा हमेशा थाने में बैठे पुलिसकर्मी तिलमिला जाते हैं ——- श्रीमान जी भारत नगर थाना का एक लगभग दस साल पुराना केस में भी बताता हूं —— सुंदर लाल जैन अस्पताल अशोक विहार दिल्ली में मेरे पड़ोसी जवाहर की इलाज़ में कोताही के कारण मौत हो गई — तमाम तर्क तमाम सबूत तथा तमाम अस्पताल प्रशासन के जवाब ठोस सबूत थे कि मौत लापरवाही से हुई है इन सब ठोस सबूत का स्टिंग ऑपरेशन भी कैमरे में कैद हो चुका था —- अस्पताल पर केस दर्ज के लिए कंट्रोल रूम पुलिस को काल की तो स्वयं भारत नगर थाने का एस एच ओ अस्पताल पहुंचा तथा अस्पताल के पक्ष की बातें करने लगा जब मामला बड़ा तो एस एच ओ ने तमाम सबूत देखने के बाद डेथ बाडी को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया —–+ एक तरफ सुन्दर लाल जैन अस्पताल तथा एक तरफ एक मामुली सा शिकायत कर्ता — अगले दिन सुबह भारत नगर थाने में बुलाकर अस्पताल के विरुद्ध शिकायत वापस का पर्चा मास्टरमाइंड तरीके से लिखवाकर केस बंद कर दिया गया ——– तमाम स्टिंग ऑपरेशन विडियो सब नष्ट कर दिये गये

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