: पत्रकार संगठन भी दोषी : अखबारों के फर्जीवाड़े के लिए पत्रकार संगठन भी दोषी हैं। नाम और दाम कमाने के फेर दुकानदारों से लेकर ठेकेदार तक इन्हीं पत्रकार संगठनों के सहारे अखबारों का संचालन कर रहे हैं। इनके प्रकाशक खुलेआम नियम-कानूनों का उल्लंघन कर विज्ञापन के सहारे भारी मुनाफा कमा रहे हैं। यही नहीं ऐसी संस्थाएं नौसिखिए कथित पत्रकारों और नए प्रकाशकों के लिए संजीवनी भी बनी हुई हैं। ये संस्थाएं अखबार, मैगजीन का रजिस्टे्शन से लेकर डीएवीपी और यूपीआईडी भी करवाने का ठेका लेती हैं। आश्चर्य इस बात का है कि सही सर्कुलेशन दिखाने वालों को महीनों सूचना विभाग के चक्कर लगाने पड़ते हैं जबकि इन संस्थाओं के कथित दलाल आसानी से सारे काम करवा देते हैं।
एक वरिष्ठ पत्रकार का दावा है कि यदि डीएवीपी और राज्य सूचना विभाग ईमानदारी से इन अखबारों के सर्कुलेशन की जांच करवा ले तो निश्चित तौर पर 80 प्रतिशत से भी ज्यादा अखबारों का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। इससे न सिर्फ सरकार खजाने पर पड़ने वाला बोझ हल्का होगा बल्कि पत्रकारिता में वही लोग प्रवेश कर सकेंगे जो ईमानदारी से मीडिया के मिशन के लिए काम करेंगे। एनेक्सी मीडिया सेंटर से भीड़ भी कम होगी साथ ही अधिकारियों के कमरों में चक्कर लगाने वाले पत्रकारों की संख्या भी घट जायेगी। इन परिस्थितियों में अधिकारियों के कमरों में वही पत्रकार नजर आयेंगे तो समाचारों से सम्बन्धित जानकारी चाहते होंगे।
विज्ञापनों का राजनीतिकरण!
मौजूदा समय में अखबारों और उनके मालिकानों ने जिस तरह से अखबार को एक व्यापार बना रखा है उसे देखकर तो यही कहा जा सकता है कि प्रदेश की सरकारों ने अखबारों और उसमें प्रकाशित होने वाले सरकारी विज्ञापनों का भी राजनीतिकरण कर दिया। विज्ञापन की लालसा में ऐसे लोगों ने भी अखबारों का प्रकाशन शुरू कर दिया है जिनका पत्रकारिता से न तो पूर्व में कोई सम्बन्ध रहा है और न ही वर्तमान में। सर्कुलेशन के खेल से कमाई करने वालों की फेहरिस्त में सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के कई कर्मचारी भी शामिल हैं। जिनका समाचारों से दूर-दूर का रिश्ता नहीं रहा है वे अखबारों की चंद प्रतियां छपवाकर हजारों-लाखों का सर्कुलेशन कागजों पर दिखा रहे हैं। सर्कुलेशन के इसी खेल से डीएवीपी और यूपीआईडी में विज्ञापन दरें भी निर्धारित करवायी जा रही हैं।
फर्जी सर्कुलेशन के इस खेल में सिर्फ स्थानीय छोटे अखबार ही शामिल नहीं हैं बल्कि वे अखबार भी शामिल हैं जो बडे़ अखबारों की श्रेणी गिने जाते हैं। प्राप्त जानकारी के मुताबिक लगभग 80 प्रतिशत से अधिक फर्जी अखबार सरकारी सूची में शामिल हैं। प्रदेश की जनता ने उनके नाम भी नहीं सुने होंगे लेकिन उनकी प्रसार संख्या लखनऊ जैसे बडे़ शहर की जनसंख्या से भी ज्यादा है। गौरतलब है कि प्रसार संख्या के आधार पर ही विज्ञापन दरें तय की जाती हैं लिहाजा उनको लाखों रूपए के विज्ञापन हर साल बिना मेहनत और लागत के ही मिल जाते हैं। न तो प्रदेश सरकारें ऐसे तथाकथित समाचार-पत्रों के खिलाफ कार्रवाई करती हैं और न ही केन्द्र सरकार के अधीन सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय। परिणामस्वरूप अखबार मालिक, सूचना और जनसम्पर्क निदेशालय सहित केन्द्र सरकार में बैठे डीएवीपी कर्मचारी भी मोटी कमाई कर रहे हैं। इनके पत्रकारों को अन्य सुविधाएं अलग से मिल रही हैं। ज्यादातर ऐसे अखबारों के पत्रकार सरकारी मेहमान एवं रौब मारने वाले जनप्रतिनिधि की तरह व्यवहार करते हैं।
कागजी खानापूर्ति
कागजी खानापूर्ति करने वाले केवल प्रसार संख्या में बढ़ोतरी दिखलाने की कोशिश में ही साल भर लगे रहते हैं। फर्जी सर्कुलेशन दिखाने वाले कथित अखबार माफियाओं को संजीवनी देने वालों में वे प्रिंटिंग प्रेस वाले भी शामिल हैं जो अखबार कर्मियों को फर्जी सर्कुलेशन का प्रमाण-पत्र भी उपलब्ध कराते हैं। यह दीगर बात है कि जिस प्रिंटिग प्रेस में अखबार छपता है उसमें छापने की क्षमता हो अथवा न हो तब भी प्रिंटिंग प्रेस का मालिक फर्जी रूप में हजारों, लाखों प्रतियां छापने का बिल आसानी से दे देता है। प्रमाण के तौर पर उसका बिजली का बिल भी गवाह होता है कि उसने दिन भर में सिर्फ तीन चार सौ प्रतियां छापी हैं। यदि सम्बन्धित विभाग उन प्रिंटिंग प्रेस वालों की तकनीकी जांच करे जिसमें फर्जी अखबार छपते हैं तो असलियत खुद-ब-खुद सामने आ जायेगी।
जिन प्रिंटिंग प्रेस की क्षमता दिन भर में हजार कापियां छापने की नहीं होती है वे लाखों प्रतियां छापने का बिल कैसे दे देते हैं ? यह रहस्य तब तक बना रहेगा जब तक ऐसे प्रेस वालों के खिलाफ राज्य सरकार और सम्बन्धित विभाग सख्त कार्रवाई नहीं करता। प्राप्त जानकारी के अनुसार प्रतिदिन बिजली यूनिट की खपत के आधार पर जांच करवाई जाए तो सच्चाई सामने आ सकती है। उस प्रेस में कितनी बिजली खपत हुई और प्रतिदिन तीस चालीस हजार प्रतियां छपे तब कितनी बिजली खपत होती है ? इसका आंकड़ा निकाला जाए तो ऐसे प्रेस मालिकों पर भी लगाम लगायी जा सकती है। गौरतलब है कि पूर्ववर्ती मुलायम सरकार के कार्यकाल में छोटे अखबार वालों को प्रिंटिंग मशीने लगाने के लिए लाखों रूपए की सहायता दी गयी थी।
हास्यासपद यह है कि अब ज्यादातर यही अखबार मालिक दूसरे अखबारों के लिए प्रिंटिंग करके फर्जी सर्कुलेशन का बिल भी थमा कर विज्ञापन के रूप में सरकारी खजाने को लूटने में सहभागिता दिखा रहे हैं। गौरतलब है कि फर्जी सर्कुलेशन का फर्जी बिल थमाने वाले प्रिंटिंग प्रेस में सिर्फ एक ही अखबार नहीं छपता है बल्कि सैकड़ों अन्य अखबार भी छपते हैं। इन परिस्थितियों में आधुनिक सीट ऑफसेट मशीने भी इतनी प्रतियां प्रतिदिन प्रकाशित नहीं कर सकतीं। जब उस प्रेस में एक अखबार ठीक तरह से छापने की क्षमता नहीं है फिर वह अन्य अखबार कैसे छाप लेता है ? यदि इसकी जांच करायी जाए तो यह अपने आप में सबसे बड़ा खुलासा हो सकता है। अखबारों के सर्कुलेशन की जांच का दूसरा तरीका है उसकी ढुलाई में आने वाली लागत और वाहन। अखबार की प्रतियां की ढ़ुलाई किस वाहन से हुई और उनका वितरण कहां-कहां हुआ? इसकी जांच आसानी से की जा सकती है।
सीए की संदिग्ध भूमिका!
फर्जी सर्कुलेशन के खेल में हर कागज फर्जी और चार्टेड एकाउन्टेन्ट का सर्टिफिकेट भी फर्जी रहता है। यह काम केवल विज्ञापन की दरें अधिक लेने और हर साल उसमें बढ़ोतरी कराने के लिए ही किया जाता है। गौरतलब है कि फर्जी हलफनामा देना भी धोखाधड़ी की श्रेणी में आता है। इस तरह का कृत्य करने वालों के खिलाफ आईपीसी की धारा-420 में सजा के कड़े प्राविधान निहित हैं। आश्चर्य यह है कि बुद्धिजीवी वर्ग से जुड़े इस पेशे के पत्रकार कानून की बाध्यता से भी भलीभांति परिचित हैं इसके बावजूद कानून से बेखौफ फर्जीवाड़े को अंजाम दिया जा रहा है। उप्र सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशालय के अधिकारी भी यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि चार-छह पन्ने के अखबार वाले सिर्फ फाईलों के लिए ही 15 से 20 कॉपी छपवाकर कार्यालय में जमा करते हैं इसके बावजूद सूचना विभाग के किसी भी अधिकारी ने आज तक किसी ऐसे अखबार कर्मी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं दिखायी जो खुलेआम शासन-प्रशासन की आंखों में धूल झोंककर सरकारी खजाने को लूटने में जुटा है।
विज्ञापन नीति तो बनी लेकिन स्क्रीनिंग नहीं होती
विज्ञापन नीति 2007 के अनुसार डीएवीपी दो हजार से कम प्रसार संख्या वाले अखबारों को विज्ञापन लायक नहीं समझता, यही वजह है कि गली-मोहल्लों में कुकुरमुत्ते की तरह उग आए अखबार मालिक कागजों पर सर्कुलेशन बढ़ाने के लिए फर्जी प्रमाण-पत्रों से लेकर सम्बन्धित विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों को सुविधा शुल्क देते रहते हैं। अर्थगणित पर नजर दौड़ायें तो पता चल जायेगा कि प्रदेश भर में शायद पांच सौ अखबार छापने की हैसियत इन छोटे अखबारों की नहीं है। पत्रकार संगठनों को चला रहे प्रकाशक भी इतना अखबार नहीं निकाल पा रहे हैं। विज्ञापन नीति के तहत समाचार पत्र का न्यूनतम आकार चार पृष्ठ फुल साइज होने चाहिए। कम संख्या में अखबार छपने से उसकी लागत में बढ़ोत्तरी भी हो जाती है।
ज्यादातर फर्जी सर्कुलेशन दर्शाने वाले अखबार वेब ऑफसेट पर नहीं बल्कि सीट आफसेट पर अपना अखबार छपवाते हैं। एक अनुमान के मुताबिक इसकी कीमत 1 से पांच रुपये के बीच बैठती है। यदि एक प्रकाशक डी.ए.वी.पी. के नियमानुसार चार पेज का दैनिक अखबार 2000 प्रतियों में प्रकाशित करता है तो 30 दिन में उसका औसत खर्चा 50 से 60 हजार रुपये के बीच आयेगा। इसके बाद आता है प्लेट बनवाई का खर्चा। यदि चार पेज का फुल साईज अखबार छपता है तो उसके लिए कम से कम 2 प्लेट बनानी पड़ती हैं। बाजार में जो दर चल रहा है उसके अनुसार 100 से 125 प्रति प्लेट मेकिंग एवं 100 से 125 प्रिंटिग पर प्लेट का खर्चा आता है। प्रिंटिग का खर्चा न्यूनतम 6000 रुपये महीना तक आता है। यानी 2000 प्रसार संख्या बाले अखबार का सालाना खर्चा 70 से 80 हजार के बीच बैठता है। चूंकि ऐसे फर्जी अखबार वाले स्टाफ में किसी रिपोर्टर इत्यादि को शामिल नहीं करते है लिहाजा स्टाफ के खर्चे का प्रश्न ही नहीं उठता।
गौरतलब है कि ऐसे अखबार ठेके पर छपने के लिए दिए जाते हैं। ठेके पर अखबार छापने वाले वेबसाईट से खबर डाउनलोड कर एक फाईल में इकट्ठा कर लेते हैं। फिर उन्हीं खबरों में हेडलाईन का हेर-फेर कर सभी अखबारों में लगा दिया जाता है। यहां तक कि सम्पादकीय तक कॉपी करके लगायी जाती है। इस सबके बावजूद कुल मिलाकर चार पेज के एक दैनिक अखबार का साल भर के प्रकाशन का खर्च तकबरीन एक लाख रुपये के बीच आता है।
संतुष्टि इस बात की है कि फर्जी सर्कुलेशन के आधार पर इस लागत का कई गुना वे विज्ञापन के जरिए कमा लेते हैं। यह कमाई सुविधा शुल्क देने के बाद की है। सरकारी मशीनरी भी यह बात अच्छी तरह से जानती है लिहाजा इन परिस्थितियों में यदि सरकारी मशीनरी को भी अखबार कर्मियों की अवैध कमाई में बराबर का दोषी माना जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए। महत्वपूर्ण पहलू यह है कि डीएवीपी में लगभग डेढ़ वर्ष के अंतराल में जो अखबार पहुंचते भी हैं उनके पास प्राइवेट विज्ञापन न के बराबर होता है। इस लिहाज से भी उनके फर्जी सर्कुलेशन वाले हलफनामे के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है।
यह आर्टकिल लखनऊ से प्रकाशित दृष्टांत मैग्जीन से साभार लेकर भड़ास पर प्रकाशित किया गया है. इसके लेखक तेजतर्रार पत्रकार अनूप गुप्ता हैं जो मीडिया और इससे जुड़े मसलों पर बेबाक लेखन करते रहते हैं. वे लखनऊ में रहकर पिछले काफी समय से पत्रकारिता के भीतर मौजूद भ्रष्टाचार की पोल खोलते आ रहे हैं.
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Rajkumar
October 20, 2014 at 5:05 pm
इस लेख में सचचाई है, लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि पत्रकारिता बची रहे क्योंकि बड़े अखबारों में बाजार के विग्यापन भरे रहते हैं, सबको पता है कि एक अखबार की लागत 8 रू से कम नहीं आता है पर बिकता है 3 से 4 रू जिसमें हाकर, एजेंट को 40 प्रतिशत कमीशन जाता है तथा भाडा में 10 प्रतिशत। कुल मिलाकर 1 या 2 रू बिक्री के बाद मिलता है। आज के सभी बड़े अखबारों के मालिक बड़े कार्पोरेट के हैं, जिनका मिशन अपने हितों की रक्षा करना है, जिसके लिए वे गिफ्ट देकर अखबार के प्रसार बढाते है
नेहरू जी ने पहले पहले ही समझ लिया था कि समाज के चौथे खंभे को चलाने के लिए सरकारी सहायता जरूरी है इसलिए सरकारी विग्यापन की पॉलिसी बनायी और तत्कालीन अखबारों को सरकारी जमीन दिया, जिससे वे अपने पैरों पर खड़े हो सके।
हमें छोटे अखबारों को बचाने के लिए तत्पर होना चाहिए, क्योंकि ये ही चौथे खंभे है, कार्पोरेट मालिको के अखबार नहीं। छोटे अखबारों में आज भी पत्रकारिता में जुड़े 75 प्रतिशत ज्यादा लोगों की रोजी रोटी चलती है।
इसके लिए सरकार नियम बनाए की लागत से कम पर अखबार नहीं बिके। साथ ही सरकारी विग्यापन की पॉलिसी में बदलाव की जरूरत है जिसमें छोटे अखबारों के विग्यापन दर ज्यादा हो
aashima
October 31, 2014 at 8:42 am
हमें छोटे अखबारों को बचाने के लिए तत्पर होना चाहिए, क्योंकि ये ही चौथे खंभे है, कार्पोरेट मालिको के अखबार नहीं। छोटे अखबारों में आज भी पत्रकारिता में जुड़े 75 प्रतिशत ज्यादा लोगों की रोजी रोटी चलती है।
इसके लिए सरकार नियम बनाए की लागत से कम पर अखबार नहीं बिके। साथ ही सरकारी विग्यापन की पॉलिसी में बदलाव की जरूरत है जिसमें छोटे अखबारों के विग्यापन दर ज्यादा हो