ओम थानवी-
भाजपा नेता द्वारा हिमाचल में दायर (और बाद में पार्टी के एक प्रवक्ता द्वारा दिल्ली में भी) झूठ पर आधारित राजद्रोह के मुक़दमे में मेरे मित्र विनोद दुआ ने सर्वोच्च अदालत में जो लड़ाई जीती, वह उनकी निजी जीत नहीं है। पूरे पत्रकार जगत को उन गिरफ़्तारियों से राहत मिलेगी जो महज़ डराने-धमकाने, अपने काम में हतोत्साह करने की ग़रज़ से की/करवाई जाती हैं।
मुझे पूरा भरोसा है कि विनोदजी और श्रीमती पद्मावती उर्फ़ चिन्ना भाभी जल्द कोरोना से उपजी मुश्किलों को भी हराकर डालेंगे और अस्पताल से घर लौट रहे होंगे।
प्रसंगवश, मीडिया में कल फिर मैंने कुछ जगह राजद्रोह की जगह देशद्रोह लिखा देखा। अनुभवी पत्रकारों ने भी यह भूल कि है। जब कन्हैया कुमार पर मुक़दमा थोपा गया और मीडिया ने देशद्रोह-देशद्रोह की रट लगाई तब भी मैंने इस ओर ध्यान दिलाने की बहुत कोशिश की थी। शायद बाद में भी।
राजद्रोह के मुक़दमा देशद्रोह का मामला नहीं होता। धारा 124-ए राजद्रोह (सिडिशन) की है, देशद्रोह (ट्रीज़न या देश से ग़द्दारी) का उससे कोई लेनादेना नहीं।
राज-द्रोह का सीधा अर्थ होगा सरकार-द्रोह। शासन के ख़िलाफ़ उकसाना या भड़काना। सरकार के ख़िलाफ़ बोलने-उकसाने वाला देशद्रोही नहीं कहलाता। किसी देश की शासन-व्यवस्था को समूचे देश या राष्ट्र का पर्याय कैसे माना जा सकता है?
दरअसल, अंगरेज़ों ने भारत में उनकी क़ब्ज़े वाली सरकार के ख़िलाफ़ काम करने वाले देशभक्त भारतीयों को ताउम्र जेल में रखने के लिए सिडिशन/राजद्रोह का क़ानून बनाया था। दुर्भाग्य है कि हम उसे अब तक ढो रहे हैं।
एडिटर्स गिल्ड ने, उचित ही, ऐसे क़ानूनी प्रावधानों को मिटाने की माँग की है जो आधुनिक और उदार अर्थात् विवेकशील लोकतंत्र में कलंक ज़ाहिर होते हों।