Ajay Brahmatmaj–
मेरे संपादक… फ्रीलांसिंग और नौकरी के दौरान अनेक संपादकों के साथ मुझे काम करने का मौका मिला। सभी के अलग स्वभाव और पक्ष रहे। उन सभी के निर्देश और सानिध्य में बहुत कुछ सीखने-समझने का मौका मिला। ना तो फ्रीलांसिंग के दौरान और ना नौकरी के समय किसी संपादक ने मुझे तंग या परेशान किया। मांग और दबाव जरूर रहा लेकिन कभी ऐसी स्थिति नहीं आई की कोई भिड़ंत या बदमजगी हो।
अगर क्रम से नाम याद करूं तो शानी, विष्णु खरे, लिन फू ची, अभय छजलानी, मृणाल पांडे, गणेश मंत्री, कुमार प्रशांत, कमलेश्वर, अवध नारायण मुद्गल, कन्हैयालाल नंदन, सुरेंद्र प्रताप सिंह, सूर्यकांत बाली, राहुल देव, विश्वनाथ सचदेव, धीरेंद्र अस्थाना, राम मनोहर त्रिपाठी, अनुराग चतुर्वेदी, मंगलेश डबराल, यशवंत व्यास, मनमोहन सरल, रेखा देशपांडे, उदय तारा नायर, संजय गुप्ता, सुधीर अग्रवाल और विकास मिश्र आदि के साथ काम करने का मौका मिला। 1984-85 के बीच मैं आजकल के लिए भी लिखा। अभी उसके संपादक का नाम नहीं याद आ रहा।
बात शानी साहब से शुरू करता हूं। पिछली एक पोस्ट में मैंने बताया कि जेएनयू में पढ़ाई के दौरान मैंने अनुवाद का काम शुरू कर दिया था। दरभंगा में 4 साल पढ़ के आने के बाद यह फायदा हुआ कि मैं मैथिली समझने और पढ़ने लगा था। साहित्य अकादमी की पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य जेएनयू की लाइब्रेरी में आती थी। उस पत्रिका में भारतीय भाषाओं के साहित्य का अनुवाद हिंदी में छपता था। मैंने नारायण जी चौधरी की मदद से राजकमल चौधरी की एक कहानी का अनुवाद कर समकालीन भारतीय साहित्य के पते पर भेज दिया। अगले या उसके अगले अंक में वह कहानी छप भी गई। समकालीन भारतीय साहित्य में छपने की खुशी से अधिक इस बात की खुशी थी कि इसके कुछ पैसे मिलेंगे। साहित्य अकादमी की लाइब्रेरी में भी आना-जाना लगा रहता था।
जेएनयू की एक बस मंडी हाउस के लिए जाती थी। हमलोग उसी बस से जाते थे और उसी से लौट आते थे। एक दोपहर साहित्य अकादमी की लाइब्रेरी गया तो ऊपर की मंजिल पर चढ़कर समकालीन भारतीय साहित्य के बारे में पता कर शानी जी से मिलने पहुंच गया। शानी जी ने बड़े प्यार से बिठाया और चाय के लिए पूछा। उन्होंने और भी अनुवाद करने के लिए प्रेरित किया। उनके केबिन से निकलने के पहले मैंने झिझकते हुए पूछ लिया कि मेरी कहानी के अनुवाद का पारिश्रमिक आज मिल जाएगा क्या? उनके चेहरे का भाव बदल गया और उन्हें पूछा, ‘क्या मतलब?’ मैंने बेहिचक दोहराया कि मेरे अनुवाद का पारिश्रमिक मुझे आज चाहिए।
मुझे याद है उनका जवाब,’ कोई साग-भाजी बेच रहे हो क्या? इधर भाजी तौल कर दिया और उधर पैसे चाहिए।’ उनके जवाब को अनसुना करते हुए मैंने कहा कि मुझे मेस का बिल देना है और मेरे पास पैसे नहीं हैं। मेरी इस बात पर फिर से उनके चेहरे का रंग बदला। उन्होंने बताया कि भुगतान की एक प्रक्रिया होती है। उसके तहत पैसे मिलने में कुछ समय लगेंगे। आपको कितने पैसों की जरूरत है? उसे जमाने में मैंने ₹100 से भी कम रकम बताई। उन्होंने अपनी जेब से पैसे निकाले और मेरे सामने रख दिया। उन्होंने कहा आप यह ले जाइए और मेस का बिल भर दीजिए। संकोच से मैं पैसे नहीं उठा रहा था।
उन्होंने दबाव डाला कि मैं आपकी जरूरत समझ सकता हूं और आपकी नादानी-नासमझी भी समझ रहा हूं। जब आपके पैसे आएं तो वापस कर दीजिएगा। और हां अनुवाद करते रहिए। उसके बाद मैंने लगातार समकालीन भारतीय साहित्य के लिए राजकमल चौधरी की कहानियों का अनुवाद किया और महेंद्र मलंगिया के एक नाटक ‘बारहमासा’ का भी लंबा अनुवाद किया। साहित्य अकादमी से मुझे अच्छे पैसे मिले। जहां तक मुझे याद है कि ना तो मैंने शानी जी के पैसे लौटाए और ना उन्होंने उसकी याद दिलाई।
हो सकता है शानी के व्यक्तित्व के इस पहलू से और भी लोग परिचित हो। या फिर मेरी नासमझी और जरूरत को महसूस करते हुए उन्होंने ऐसा किया होगा।
एक बार संजय चौहान का मैंने लंबा इंटरव्यू किया था, तब उसने डिटेल में बताया था शानी के बारे में। तब मैंने अफसोस किया था कि क्यों नहीं मैं उनसे लगातार मिलता रहा और संपर्क बनाए रखा।