प्रभाकर मिश्रा-
मेरे एक वरिष्ठ पत्रकार मित्र ने किसान आंदोलन की मेरी रिपोर्टिंग पर तंज कसते हुए कहा कि मैं स्टॉकहोम सिंड्रोम से ग्रस्त हो गया हूँ। क्योंकि मैं किसानों की तरह उनकी भाषा बोलने लगा हूँ! अपहृत व्यक्ति को जब अपहरण करने वालों से हमदर्दी हो जाये, उनकी बातें अच्छी लगने लगे, तो ऐसी मनोवैज्ञानिक स्थिति को स्टॉकहोम सिंड्रोम कहा जाता है।
मैं किसानों की बातें करता हूँ। उनकी माँगे मुझे जायज लगती हैं। उनसे मेरी हमदर्दी है। इसमें कोई दो राय नहीं। लेकिन यह केवल उनके बीच रहने से नहीं हुआ। किसानों की बुरी हालत का गवाह रहा हूँ क्योंकि मैंने अपने किसान पिता की जद्दोजहद को देखा है। इसलिए यह सही नहीं कि मैं स्टॉकहोम सिंड्रोम से ग्रसित हूँ।
स्टॉकहोम सिंड्रोम जैसी मनोवैज्ञानिक स्थिति में आने की शर्त है कि आपको कुछ समय तक भय के साये में जीना पड़े। आप अपहृत हों। जैसे आज की अधिकांश मीडिया और उसके पत्रकार अपहृत (captive) हैं और अपहर्ता की हर बात को सही साबित करने में लगे हैं। ‘गोदी मीडिया’ स्टॉकहोम सिंड्रोम का बेहतरीन उदाहरण है।