रंगनाथ सिंह-
आधुनिकता में यकीन रखने वालों के लिए फ्रांस आधुनिक विचारों का सबसे ज्वलंत प्रतीक है। दुनिया भर के विचारकों के ऊपर फ्रांसीसी चिंतकों का प्रभाव साफ देखा जा सकता है। फ्रांसीसी क्रान्ति के नारे ‘स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व’ को दुनिया के सभी दमित-वंचित वर्गों ने अपना आदर्श माना। पिछली सदी तक भारतीय चिन्तक इस बात की चिन्ता करते थे कि हमारे देश में रूसो-वोल्टेयर-दीदेरो क्यों नहीं पैदा होते?
सामाजिक-राजनीतिक-दार्शनिक ही नहीं निजी सम्बन्धों पर भी फ्रांसीसी विचारकों का गहरा प्रभाव पड़ा। भारत में हजारों ने सीमोन-सार्त्र को अपनी लव-लाइफ का रोल मॉडल माना। कला जगत में फ्रांस के प्रभाव का कहना ही क्या है। दुनिया भर के चित्रकारों का ड्रामलैण्ड पैरिस रहा है।
इंग्लिश मीडिया को देखें तो विचारकों और कलाकारों के सपनों के देश फ्रांस में हुआ ताजा चुनाव में मुस्लिम-प्रश्न वैसे ही मौजूद रहा जैसे भारत में रहता है। फ्रांस में केवल 5.6 प्रतिशत मुसलमान हैं फिर भी मैक्रों की जीत के पीछे एक बड़ी प्रेरणा यह रही कि मैरी ली पेन न आए जाए जो धुरदक्षिणपंथी हैं। ये अलग बात है कि मैरी ली पेन को 44 प्रतिशत वोट मिले हैं यानी वो रेस में बहुत पीछे नहीं थीं। मैक्रों को 58 प्रतिशत वोट मिले हैं जो उनके पिछले बार के 66 प्रतिशत से 8 प्रतिशत कम हैं।
एक इस्लामवादी विद्वान का लेख पढ़ रहा था जिसमें उन्होंने बताया है कि फ्रांसीसी मुसलमानों ने ना चाहते हुए भी केवल मैरी ली पेन को हटाने के लिए मैक्रों को वोट दिया था। नहीं तो पहले चरण में मुसलमानों ने धुरवामपंथी पार्टी को वोट दिया था लेकिन वह दल मुख्य लड़ाई में नहीं आ पाया।
मैक्रों नरम दक्षिणपंथी हैं, और मैरी ली पेन गरम दक्षिणपंथी तो अंतिम चरण में मुसलमानों के पास नागनाथ और साँपनाथ में किसी एक को चुनने जैसा था। एक उदाहरण से इसे समझें। मैरी ली पेन ने कहा था कि अगर वो जीतीं तो फ्रांस में बुरका पर पूरी तरह प्रतिबन्ध होगा। मैक्रों ने फ्रांसीसी स्कूलों में बुर्के पर प्रतिबन्ध लगाया था। चुनाव के दौरान उन्होंने इशारा किया कि वो बुर्के पर पूरी तरह प्रतिबन्ध लगाने के इच्छुक नहीं हैं।
अभी देख रहा था कि फ्रांस में उन लोगों की तादाद तेजी से बढ़ी है जो खुद को किसी धर्म को नहीं मानने वाला मानते हैं। फ्रांस में मुसलमानों की आबादी भी बहुत कम है फिर भी वहाँ मुस्लिम-फैक्टर वैसे ही प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे भारत में किया जाता है!
एक सवाल यह भी है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि अमेरिकी-ब्रिटिश-इंग्लिश मीडिया फ्रांस के चुनाव के मुस्लिम-एंगल को ज्यादा तवज्जो देता है क्योंकि मुस्लिम कीवर्ड की एक ग्लोबल आडिएंस है। इंग्लिश-एजुकेटेड मुसलमान सोशलमीडिया के माध्यम से उस कंटेंट का प्रचार-प्रसार करते हैं। ऐसा लगने लगता है कि एक तस्वीर या ट्वीट ही दुनिया का सबसे जरूरी मुद्दा है।
हम हिन्दी सोशलमीडिया वृत्त के अनुभवों से जानते हैं कि सोशलमीडिया पर उबाल लाने वाले ज्यादातर मुद्दों का जमीनी असर बहुत कम होता है। सोशलमीडिया इस्तेमाल करना बन्द कर दें तो हमें ही दुनिया दूसरी तरह की नजर आने लगती है। ऐसे में असली फ्रांस को समझने के लिए शायद फ्रेंच सीखना पड़ेगा। पूरी दुनिया को इंग्लिश के चश्मे से देखने की लत ने सभी पूर्व-गुलाम देशों में कई तरह के दृष्टिदोष पैदा किए हैं।