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मेरी कॉपी को मुट्ठी में मरोड़ा और मेरे मुंह पर दे मारा!

Gyaneshwar Vatsyayan-

अपनी कहानी सुनाता हूं. आफिस का काम समाप्त कर जब घर लौट रहा था, तो रास्ते में इसे ही याद कर भावुक हो रहा था. पत्रकारिता में आ रहे साथी समझेंगे, तो अच्छा लगेगा.

1989 में आज अखबार पटना में भर्ती हो गया था. ट्रेनी के रुप में ही भर्ती हुआ था. 500 रुपये का पगार तय किया गया था. तब अखबारी कागज से बने नोट पैड पर ही खबर लिखी जाती थी. पहला पन्ना लिखने में पता नहीं कितनी माथापच्ची करनी पड़ती थी. 10 – 10 पन्ने फाड़ने पड़ते थे. फिर इसे चीफ रिपोर्टर या डेस्क को देना होता था.

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उन दिनों आज अखबार में चीफ सब एडिटर हुआ करते थे रमेश लाल कर्ण. बहुत ही कड़क, सीधे उखड़ जाते थे. ऐसे मौके कई बार आए, जब मैं अपनी खबर लेकर उनके पास गया. फिर, खबर की कॉपी देख वे वैसे तमतमाए कि मेरी कॉपी को मुट्ठी में मरोड़ा और मेरे मुंह पर दे मारा.

सोचिए, क्या हाल होता होगा मेरा.

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साथ में यह वाणी भी मेरे कानों में गूंजती, कहां – कहां से आ जाते हैं लोग रिपोर्टर बनने.

कभी – कभी लगता, अब हमसे नहीं हो पाएगा. परिवार की स्थिति भी ठीक ही थी, सो 500 रुपये की नौकरी नहीं भी करता, तो कोई असर नहीं होता. ये भी सोचिए कि आजकल के लड़के क्या इतना बर्दाश्त कर पाएंगे.

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खैर, मैं हिम्मत नहीं हारता. वे भी बाद में समझा देते. गलतियों से सीखते रहे. कुछ ही साल बाद, वे मेरी कॉपी को आंख मूंद कर पास कर देते. दूसरों को मेरा उदाहरण देते. मैं भगवान को शुक्रिया बोलता, जिन्होंने डांट के दिनों में मेरी सहन शक्ति को टूटने नहीं दिया.

आगे आपको पता ही है, मैं 1999 के दिसंबर में दैनिक जागरण में आ गया. पटना की लांचिंग टीम का कोर सदस्य बना. उधर अखबारी दुनिया की Aaj की सबसे मजबूत टीम टूटती जा रही थी. प्रबंधन नई तकनीक से दोस्ती नहीं कर रहा था, पहचान मिटती जा रही थी.

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Dainik Jagran जब झारखंड लांच हुआ, तो रांची का मैं संपादक बना. तब, मैं अपने साथ आज अखबार से रमेश लाल कर्ण जी को ले गया. वे बेहतर अवसर की तलाश में थे, पर मेरे साथ जाने के फैसले के पहले वे कुछ संकोच में थे. उन्हें पुराने दिन याद आ जाते और कहते कितना डांटा करते थे. अब तो सर कहना होगा. मैंने समझाया, सर कभी नहीं बोलेंगे आप. आपको इसलिए साथ ले जा रहा हूं, ताकि गलतियां नहीं जाएगी, इसके प्रति मैं निश्चिंत रहूं. दूसरी बात यह कि जब कभी हम गलती करते दिखें, तो आप सही बताने की स्थिति में रहें.

आज कर्ण जी इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन मेरे स्मरण में सदैव रहते हैं. जिंदगी की आखिरी नौकरी में भी वे मेरे साथ थे और मुझे सिखाते ही रहे थे. उनकी डांट सुनकर शुरु के दिनों में भाग गया होता, तो आज कहीं का न रहता.

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1 Comment

1 Comment

  1. विश्वजीत भट्टाचार्य

    October 25, 2023 at 11:00 pm

    दैनिक स्वतंत्र भारत में ट्रेनी रहते मेरे चीफ सब एडिटर थे श्याम नारायण पांडेय जी। बहुत कड़क। मुकुल मिश्र जी, रजनीकांत वशिष्ठ जी, रविशंकर पंत जी, जगदीश जोशी जी, संजय शर्मा जी ने मुझे खबरें और हेडिंग लिखनी सिखाईं। संपादक थे प्रमोद जोशी जी और नवीन जोशी जी। नवीन जोशी जी पत्रकारिता में मेरे गुरु हैं। उन्होंने ही मुझसे लेख लिखवाने शुरू किए थे। इस पेशे में तमाम नामचीन संस्थानों में पहुंच सका, वह उपरोक्त सभी वरिष्ठों के सिखाने के कारण। इन सबको कभी नहीं भूल सकता।

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