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साहित्य

हिन्दी के कवियों की संख्या करीब 15 लाख बैठेगी!

रंगनाथ सिंह-

रोज की तरह सुबह उठकर कॉफी पीकर फेसबुक खोलकर हिन्दी में बिन्दी पर पोस्ट लिखनी शुरू कर दी थी। कुछ सौ शब्द लिख भी लिये थे तभी प्रभात रंजन के ट्वीट पर नजर पड़ गयी। प्रभात जी ने ट्वीट किया है-

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“1995 में मनोहर श्याम जोशी ने लेखक प्रकाश मनु को दिए एक साक्षात्कार में कहा था कि भारत में सबसे अधिक कवि हिंदी में हैं और उस समय उन्होंने अनुमान लगाया था कि हिंदी में कवियों की संख्या करीब दस लाख होगी. आपको क्या लगता है कि इस समय हिंदी में कवियों की संख्या कितनी होगी?”

पहले प्रभात जी के ट्वीट का तथ्यात्मक जवाब देना चाहूँगा। जनगणना के अनुसार 1991 में भारत की आबादी करीब 90 करोड़ थी। अभी करीब 140 करोड़ है। जोशी जी के आंकड़े के समानुपात से अब हिन्दी कवियों की संख्या करीब 15 लाख बैठेगी। इंटरनेट, यूनिकोड और टाइपिंग टूल्स ने इस रफ्तार को कई गुना तेज किया है तो यह आँकड़ा 20 लाख के करीब भी हो सकता है।

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बात निकली है तो कोई कितना भी बुरा माने मैं कहूँगा कि हिन्दी जबान में छोटी-मझोली प्रतिभाओं की सबसे बड़ी शरणगाह कविता है। गद्य में खुद को साबित करना मुश्किल काम है। एक उम्र गुजर जाती है, नहीं हो पाता। कविता लिखिए, काम पर चलिये। साहित्य एवं संस्कृति उद्योग में हिस्सेदार होने के लिए साहित्यकार-कलाकार होने का लाइसेंस लेना पड़ता है। यह लाइसेंस लेने के दो शॉर्टकट हैं। पहला कविता दूसरा कला-समीक्षक। आपको इन दोनों विधाओं में सबसे जाली हिन्दी लेखक मिलेंगे।

गद्य लिखने वाले छिप नहीं पाते। कवि व्याख्याओं में छिप जाते हैं। आप गौर करेंगे तो पाएँगे कि आपको जो जबान आती है उसकी आलातरीन कविता आपके दिल में गोली की तरह लगती है। वह शानदार कविता है यह बात किसी और को कहनी नहीं होती है। अगर आपको वह जबान नहीं भी आती है तो उम्दा कविता आपको गुलेल के पत्थर की तरह तो लगती ही लगती है। वरना ब्रेख्त या रूमी अपनी जबान से बाहर इतने लोकप्रिय न होते।

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हिन्दी के स्वनामधन्य कवियों की कविता पाठक को समझानी होती है। आप देखेंगे कि हर आधुनिक हिन्दी कवि के पीछे उसके दो-चार व्याख्याकार चलते हैं। जिनका काम कवि के लिखे में कविता खोजना होता है। ऑनलाइन वेबसाइटों पर तो वह कमाल होता है जो साहित्यिक पत्रिकाओं तक में नहीं हो सका था। ऑनलाइन छपने वाले हर जाली कवि की कविता से पहले प्रकाशक-सम्पादक छोटी-बड़ी भूमिका लिखकर स्थापित करता है कि नीचे आप जो पढ़ने जा रहे हैं वह ‘अमूल्य कविता’ है। कविता पढ़ने से पहले ही आपको दो बातें बता दी जाती हैं कि नीचे जो है वह कविता है और अमूल्य है। अब किस सामान्य पाठक की हिम्मत है कि वो सवाल करे कि क्या यह कविता है? सवाल करेगा, साहित्यिक समझ न होने की गाली खाएगा।

आप तो जानते हैं कि ताली एक हाथ से नहीं बजती है। कवि इस खोजी जीव को उम्दा समीक्षक के खिताब से नवाजकर अहसान चुकाता है। अगर आपने यह कहा कि भाई इसमें कविता कहाँ है तो दोनों ही साहित्यिक नफासत छोड़कर एकजुट होकर आपको गरियाएँगे।

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कवि रहीम ने कहा है कि क्षिमा बड़न को चाहिए छोटेन को उतपात तो छोटों को छोड़ देते हैं। मझोलों पर आते हैं। मझोले जिस ठीहे पर अपनी दुकान सजाते हैं वो अक्सर भाषा की बाजीगरी होती है। आम आदमी भाषा के असामान्य प्रयोग से चौंक जाता है। मान लेता है कि भाई ने कुछ तो किया है वरना बोलते तो हम भी यही जबान हैं लेकिन इन लफ्जों और वाक्यों से हमारा कभी पाला नहीं पड़ा। जटिल, फैली हुई, गुच्छेदार, गाँठदार भाषा को सामान्य पाठक प्रतिभा का पर्याय मान लेता है जबकि विद्वानों के बीच यह खराब भाषा की निशानी होती है। भाषा की दुरुहता अकादमिक विद्वानों का लक्षण माना जाता है, कवियों और कथाकारों का नहीं।

रचनात्मक साहित्य की धारा तो उलटी बहती है। लेखक की रचनात्मकता जितनी ऊपर उठती है उसकी भाषा उतनी ही सरल होती जाती है। बड़ी प्रतिभाओं का कवित्व इतना ऊपर उठ जाता है कि भाषा की गाँठ खुलकर बिखर जाती है। अवधी में लिखा रामचरित भोजपुरी, ब्रज, बुंदेली, मैथिली, बज्जिका, अंगिका, खड़ी बोली सभी को समझ में आने लगता है। आपको फारसी न आती हो तो भी कोई रूमी के चार कलाम आपके सामने बाआवाज पढ़ने लगे तो आप कह उठेंगे कि वाह!

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हिन्दी के मझोलों (कृपया मझोले का तुक झोले से कतई न मिलायें) में कई बार आपको कुछ पठनीय चीजें मिल जाती हैं। असलियत में वह कविता न होकर एक चुस्त जुमला या एक अलहदा बयान भर होता है। आप पूछेंगे कि फिर आपकी नजर में कविता क्या है? मैं यही कहूँगा कि आप जो भी जबान बोलते हैं उसके पाँच-दस सबसे उम्दा माने जाने वाले कवियों को पढ़ लीजिए, आप खुद ब खुद जान जाएँगे।

आधुनिक हिन्दी में कवि होने का लाइसेंस वैसे ही मिलता है जैसे किसी गैंग या मठ का उत्तराधिकार मिलता है। हिन्दी आलोचना पर गौर करेंगे तो यहाँ अक्सर निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, रघुवीर सहाय के उत्तराधिकार बँटते रहते हैं। इसे परम्परा का अवगाहन या विस्तार कतई न समझिएगा। जिन लोगों को ये काल्पनिक विरासत सौंपी जाती है उनकी कविता को पढ़कर आपको महरूम कवि की याद भले न आये शर्म जरूर आ जाएगी।

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उत्तराधिकार सौंपने का यह कारोबार ज्यादातर वरिष्ठ मझोले लेखक करते हैं जिसका मकसद साहित्य एवं संस्कृति के कारोबार में अपना आदमी बैठाना होता है जो उनकी बुढ़ापे तक सेवा करता रहे।

मझोले कवि की सबसे बड़ी पहचान है कि वो कविता से ज्यादा यह लिखता है कि कविता क्या होती है, कविता कैसी लिखी जाती है, कविता की भाषा क्या होती, भाषा क्या होती है, लफ्जपरस्ती क्या होती है? सच पूछिए तो यह भी एक साहित्यिक काम है लेकिन यहाँ भी मझोलेपन से गुजारा नहीं होता। भारत में तो इस विधा ने मम्मट और आनन्दवर्धन जैसे बड़े आचार्य दिये हैं। लेकिन हमारा मझोला तो इन गलियों से कभी गुजरता नहीं है। अधिक से अधिक वह आचार्यों के उद्धरण इकट्ठा करके अपना झोला भरता रहता है ताकि बच्चों को साहित्यिक तमाशा दिखाने के काम आ सके।

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मझोले कवियों में आप डायरी के प्रति भी गहर प्रेम देखेंगे। जब इनसे कोई विधा नहीं सधती तो ये डायरी लिखने लगते हैं। प्रिंट मीडिया के जमाने में लोग मजाक करते थे कि वाह क्या डायरी है, रात को लिखी और सुबह छप गयी! अब तो उस रात की सुबह भी नहीं होती जिस रात मझोले जी डायरी लिखते हैं। हमारे मझोले रियलटाइम में फेसबुक टाइमलाइन पर डायरी लिखते हैं। वह खुद से और न दूसरे उससे यह कभी नहीं पूछते कि जो तत्काल छपवाने के लिए लिखी जाए वह डायरी है या आत्मरति में डूबा हुआ आत्मालाप है! खैर, सालोंसाल डायरी लिखते हुए भी ‘एक साहित्यिक की डायरी’ लिखने का बूता इनमें नहीं होता। यहाँ भी दीवार खड़ी है जिसकी नाम साहित्यिक प्रतिभा है।

कविता और भाषा पर प्रवचन एवं डायरी के अलावा मझोलों का एक तीसरा प्रमुख लक्षण भी है। ये लोकप्रियता से बहुत चिढ़ते हैं। अलोकप्रिय होना ही इनकी प्रतिभा का प्रमाण होता है। ये अलग बात है कि ये सुबह सुबह खराई मारकर लोकप्रियता का विरोध करने के लिए सोशलमीडिया पर आ जाते हैं या हर औनेपौने साहित्यिक कार्यक्रमों में पहुँच जाते हैं। इनसे समय बचे तो बुजुर्ग मझोंलों की चौखट पर माथा पटकते हैं ताकि वो इन्हें कवि होने का आशीर्वाद देते रहें। ज्यादा क्या कहा जाए, यह पूरा कुनबा ही फ्रॉड है।

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खैर, मेरी बात पर न सही जो मनोहर श्याम जोशी जैसे अग्रणी साहित्कार ने कहा है उसपर गौर कीजिए। सोचिए कि हिन्दी में कवियों की संख्या 10-20 लाख क्यों हैं जबकि एक पीढ़ी में चन्द आला दर्जे के कवि पैदा हो जाएँ तो लोग मान लेते हैं कि बड़ी बात है।

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