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सुख-दुख

हाउ टू लूज़ ए कंट्री : द 7 स्टेप्स फ्रॉम डेमोक्रेसी टू डिक्टेटरशिप

महेश मिश्रा-

पुस्तक ‘हाउ टू लूज़ ए कंट्री: द 7 स्टेप्स फ्रॉम डेमोक्रेसी टू डिक्टेटरशिप’ तुर्की की लेखिका ईझ तेमेलकुरन की है।

जैसा कि हर कृति के साथ होता है, इसके साथ भी है…हर पाठक-वर्ग के लिए इस पुस्तक का पाठ भिन्न हो सकता है…

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जिन चीज़ों पर सभ्यता को शर्म आनी चाहिए यदि उन पर आप गर्व कर पाते हैं, जिन पर आंसू आना चाहिए उन पर आप हँस सकते हैं, रिडिक्यूल कर सकते हैं…अगर आप अपनी पहचान अपने शत्रु को बिना ध्यान में लाये नहीं कर पाते, आपकी पहचान के लिए किसी और का होना, आपसे भिन्न होने और इसी वजह से कम इन्सान है, जैसी समझ ऑपरेट करती है तो यह पुस्तक आपके लिए नहीं है।

स्पष्ट हो गया कि यह किसके लिए है!

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लेखिका ने पुस्तक को तुर्की के विशेष संदर्भ में और कुछ अन्य देशों की अथॉरिटेरियन प्रवृत्तियो को केंद्र में रखकर लिखा है। उनके अध्ययन के विषय हैं, तुर्की, यूरोपीय यूनियन, ब्रिटेन, अमरीका, वेनेजुएला, पोलैण्ड, रूस।

इस ऑथिरिटेरियन प्रवृत्ति को उन्होंने राइट विंग पॉपुलिज़्म का नाम दिया है। फ़ासिज़्म नहीं! बातचीत में वे अपने को कायर कहती हैं लेकिन अपनी सक्रियता और उस सक्रियता के आयामों से वे ग्लोबल वॉइस, पैशनेट वॉइस साबित होती हैं।

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राइट विंग पॉपुलिज़्म नाम उन्होंने इसलिए दिया है कि आज के दौर की अधिनायकवादी प्रवृत्ति में विचारधारा बिल्कुल नहीं है, यह पल पल अपने रंग बदलने वाली है… सब-कुछ होगा पतनशील ही, किन्तु वह कोई ठोस समझा-समझाया रास्ता नहीं पकड़ेगा।

यह एक दिन में नहीं होता, डिक्टेटर्स की कोई ख़ास ड्रेस होगी ऐसा भी नहीं है… वे ऐसा बोलकर तो नहीं आयेंगे न कि वे डिक्टेटर हैं!

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इस प्रोजेक्ट में क्या होगा?

उसमें अदरिंग होगी, विलेन गढ़े और बनाये जाएंगे…अपने से अलग जो भी हैं वे विलेन हैं… वे उतने अपने नहीं हैं और इसीलिए वे दुश्मन हैं।

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रहन-सहन, खान-पान, सोच-विचार सब कुछ को एक ख़ास ढंग में बदलने की कोशिश होगी…और इस सबके बहुत सारे चीयरलीडर्स होंगे…हर नई कोशिश, हर नई घटना न्यू नॉर्मल गढ़ती जायेगी… शब्दों और कर्मों से हिंसा झलकेगी… लोगों को भयभीत रखा जायेगा… पिटने वाले, मर जाने वाले लोग ही अपराधी माने जायेंगे….देश के भीतर संवेदनशील लोगों को महसूस होने लगेगा कि ‘उनका देश ऐसा तो नहीं था’…अगर ग़लती से ऐसा बोल दिया तो पेड ट्रोल्स उसका जीना हराम कर देंगे…

वे हमेशा गौरवपूर्ण अतीत की बात करेंगे… प्राइड हमेशा उनके लिए महत्वपूर्ण होगा, डिग्निटी नहीं… छद्म दुश्मन उनकी सारी विफलताओं को छुपाने के काम आयेंगे…. संस्थाओं का अवमूल्यन होगा, वे अपना काम करने के बजाय सत्ता का हित-साधन करेंगी…अपने आदर्श बदल लेंगी…देश हाथ से खिसकता जायेगा!

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यह सब इस दिशा में बढ़ क्यों रहा है?

इस सवाल पर भी उन्होंने अपर्याप्त प्रकाश ही डाला है। मनुष्य का मस्तिष्क कुछ ठोस चाहता है, कुछ comprehensible जिसके लिए वह जुट सके…प्रतिरोध से जुड़े बहुत सारे लोग कुछ concrete क़िस्म का बता नहीं पाते…’एक आदर्श नागरिक क्या होगा’, एक ‘आदर्श देश’ कैसा होगा?

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लोग विरोध करते हैं चुटकुलों से, कार्टून से और उसे ही पर्याप्त विरोध मान लेते हैं…हँसी उड़ाकर वे अपने को विजेता समझ लेते हैं.. पर यह समझ उनके साथ भी लम्बे समय तक नहीं रहेगी… वे फिर हताश हँसी हँसेंगे (ज़ाहिर है अब वे उसे प्रतिरोध समझने की ग़लती नहीं करेंगे.. )

रास्ता कहाँ से निकलेगा… सामूहिक सोच, सामूहिक क्रिया से।

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