लाश पर रोटियां कैसे सेंकी जाती हैं, उसका सबसे ज्वलंत प्रमाण है जगेन्द्र सिंह हत्याकांड। छुटभैये पत्रकारों और नेताओं से लेकर प्रेसकौंसिल के खलीफाओं तक ने खूब फायदा उठाया इस प्रकरण का। जिन सरदार शर्मा के खिलाफ अपने जीवित रहते जगेन्द्र सिंह मोर्चा खोले रहे, हर कोई उन्ही से जाके पूछता रहा- जगेन्द्र पत्रकार था, तो कैसे?
जंतर मंतर पर धरने के दिन ही पूरे प्रकरण को निपटाने की भूमिका बन गयी थी। प्रेसकौंसिल के जो लोग दिल्ली से गये, उनकी सेवा करने में साथ गये उ प्र सरकार के सूचना विभाग के अधिकारी ने अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी निभाई और सरकार की सेवा और जाँच से प्रेस कौंसिल समेत एक एक कर चश्मदीद महिला, फिर परिवारवाले और फिर पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर भी सहमत होते चले गए।
आख़िरकार तय हुआ कि पत्रकार की मौत किडनी फेल होने से हुई है। जगेन्द्र के परिवार वाले समझौता न करते तो पुलिस खुलासे में जगेन्द्र का ब्लैकमेलर, चरित्रहीन और दलाल पत्रकार होना तय ही था, भला हो जे सी का, जगेन्द्र ने जाने कितनी बार उनके कारनामो के बारे में लिखा पर उन्होंने सारा मनमुटाव भुलाकर सभी पक्षों के लिए-लाभकारी समझौता करा दिया। समझौता का भविष्य हैं जे सी। और पब्लिक तेरी ऐसी की तैसी।
अरविंद पथिक के एफबी वाल से