झूठ का पुलिंदा है टाइम्स ऑफ इंडिया का संपादकीय

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जयपुर। सुबह-सुबह टाइम्स ऑफ इंडिया खोलते ही संपादकीय पेज के Indian newspaper industry : Red ink splashed across the bottom line शीर्षक से प्रकाशित लेख पर निगाह पड़ गई। चूंकि मसला प्रिंट मीडिया से संबंधित था, तत्काल पढ़ डाला। पूरा लेख झूठ का पुलिंदा है। प्रिंट मीडिया के मौजूदा हालात पर आंसू (घड़ियाली) बहाए गए हैं। अपने एक भी कर्मचारी को मजीठिया वेजबोर्ड का लाभ न देने वाले टीओआई ने वेजबोर्ड को लागू करने से हो रहे नुकसानों को बताया है। अखबार लिखता है कि स्थितियां इतनी गंभीर हो चली हैं कि बड़े नेशनल डेली न्यूजपेपर्स को संस्करण (हाल में हिंदुस्तान टाइम्स ने चार संस्करणों पर ताला लगाया है) बंद करने पड़ रहे हैं, स्टाफ की छंटनी हो रही है, कास्टकटिंग जारी है, खर्चे कम करने पड़ रहे हैं। लेख में अखबारों को नोटबंदी से हुए नुकसान और आगामी जीएसटी की टैक्स दरों पर चिंता जाहिर की गई है।

लेख में हास्यास्पद तो यह है कि सरकार ने वेजबोर्ड लागू कराकर प्रिंट मीडिया के जख्मों को हरा करने का काम किया है और एरियर समेत वेतन में 45-50 प्रतिशत तक वृद्धि के लिए मजबूर किया है। द हिंदू (प्रतिद्वंद्वीअखबार) और पीटीआई (समाचार एजेंसी) का उदाहरण देते हुए उनके लाभ में कमी होने की बात कही है। यह सही है कि पीटीआई (वेतन व एरियर में 173 प्रतिशत की वृद्धि हुई) ने वेजबोर्ड लागू किया है और एरियर भुगतान भी किए हैं, पर द हिंदू ने आधा-अधूरा वेजबोर्ड लागू कर ग्रेड के अधिकांश कर्मचारियों को वीआरएस के लिए मजबूर किया है।

सच्चाई तो यह है कि असम ट्रिब्यून जैसे इक्का-दुक्का अखबारों को छोड़ दें तो अधिकांश अखबारों ने मजीठिया वेजबोर्ड लागू नहीं किया है। 11 नवंबर 2011 को केंद्रीय कैबिनेट के नोटिफिकेशन और मार्च 2014 में सुप्रीम कोर्ट के आर्डर के बावजूद अखबारों की हठकर्मिता जारी है, जबकि वो हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई हार चुके हैं। अधिकांश अखबारों (हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के ज्यादा) ने गलत ढंग से कर्मचारियों को डरा-धमाका कर 20जे नामक कागज पर हस्ताक्षर कराएं हैं, जिसको अब वे वेजबोर्ड न देने की ढाल बना रहे हैं। भला सोचिए जिस कर्मचारी कम वेतन पर क्यों राजी होगा?

लेख में डीएवीपी की दरों को अक्टूबर 2010 के बाद से रिवाइज न करने की बात है, पर कमर्शल विज्ञापन दरों पर मौन साध लिया है। ये जगजाहिर है, टीओआई के विज्ञापन देश में सबसे ज्यादा दरों के हैं, इसके क्लासीफाइड विज्ञापन भी हजारों रुपए के होते हैं। सभी अखबारों में कमर्शियल विज्ञापनों की दरें हर साल बढ़ाई जा रही हैं। द इकोनोमिस्ट की रिपोर्ट से स्पष्ट है कि भारत में प्रिंट बढ़ रहा है और फलफुल रहा है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि कॉरपोरेट विज्ञापनों का 43 प्रतिशत प्रिंट को मिलता है। 2010 से 2014 के बीच अखबारों की विज्ञापन बढ़ोतरी 40 प्रतिशत रही।

यहां तक कि अखबारों ने एडवर्टोरियल के नाम पर नियमित परिशिष्ट छापकर पैसा कमाना शुरू कर रखा है। लेख में अखबार की कम कीमत (3-5 रुपए प्रति कॉपी) का रोना भी रोया है। सरकार से सस्ती दरों पर अखबारी कागज और ढेरों सुविधाएं लेने के बाद यह रोना अनुचित है। लेख में प्रिंट जर्नलिस्ट के खत्म होने और एक ही दिन में ऑनलाइन, टीवी, प्रिंट के लिए काम करने पर जोर दिया गया है। हद तो यह है कि कम वेतन में सारे मीडिया हाउस ये सारे काम एक ही कर्मचारी से लेने पर उतारू हैं। एक कर्मचारी से 12-14 घंटे तक काम लिया जा रहा है या उससे करने की उम्मीद की जा रही है।

सच्चाई तो यह है कि अखबारों का व्यापार दिन-प्रति-दिन बढ़ रहा है। टीओआई को ही लें तो यह न केवल प्रिंट मीडिया (अंग्रेजी व क्षेत्रीय भाषाओं में भी) में है, बल्कि आज मैगजीन, टीवी, रेडियो, वेब से भी अरबों रुपए कमा रहा है। यही स्थिति सारे प्रिंट मीडिया की है। दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका आदि प्रिंट, रेडिया, वेब में हैं। पत्रिका तो जल्द टीवी चैनल लाने जा रहा है। क्या यह सब धर्मार्थ हो रहा है, बिना लाभ ये विस्तार किया जा रहा है? सरकार से सस्ती दरों पर मिली जमीनों पर बने ऊंचे भवन किराए लेने का माध्यम बने हुए हैं। राजस्थान पत्रिका, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, लोकमत समेत अधिकांश अखबारों ने सरकारों से सस्ती दरों पर जमीनें ली हैं और आज उनका वाणिज्यिक इस्तेमाल हो रहा है।

हद तो यह है कि जब चंद पत्रकार और गैर पत्रकार मजीठिया वेजबोर्ड न लागू करने पर सुप्रीम कोर्ट पहुंचे तो अखबारों ने प्रताड़ना चक्र शुरू कर दिया (अधिकांश कर्मचारी नौकरी जाने के भय से आज भी शोषण का शिकार हैं)। राजस्थान पत्रिका ने 65 से अधिक कर्मचारियों का या तो ट्रांसफर किया है या उन्हें बर्खास्त कर दिया गया है। इनमें समाचार संपादक और उप समाचार संपादक स्तर के पत्रकार भी शामिल हैं। दैनिक जागरण में बड़ी संख्या में कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है। दैनिक भास्कर में कई कर्मचारी बाहर हैं। कई अन्य अखबारों की भी यही स्थिति है। विडंबना यह है कि कोई अखबार मजीठिया वेजबोर्ड के लिए कोर्ट पहुंचे कर्मचारी को नौकरी नहीं दे रहा है। टीओआई ने प्रिंट मीडिया का दुखड़ा तो रोया है, पर प्रताड़ित कर्मचारियों के हित में दो शब्द तक नहीं कहे।

मजीठिया वेजबोर्ड की सिफारिशों में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि कर्मचारी वेतन पर अखबार लाभ का 4-5 प्रतिशत ही खर्च करते हैं। यदि अखबार थोड़ा-सा और दे दें तो कर्मचारियों की हालत सुधर जाती। पर, स्थिति बेहद गंभीर है। अब वेतन कम और मल्टीटास्कर कर्मचारी ज्यादा चाहिए। मीडिया के बाहर की स्थिति देखी जाए तो अन्य सेक्टरों में वेतन फिर भी ठीक है। टीओआई ने इस लेख से जो शुरुआत की है, वो जल्द अन्य अखबारों में भी दिखेगी। पहले भी इन मीडिया घरानों ने सुनियोजित तरीके से एक के बाद एक लेख वेजबोर्ड को नकारते हुए लिखे थे। मेरा तो चैलेंज है, 100 ऐसे ड्राइवर और चपरासी टीओआई दिखा दे, जिनका तीन गुना वेतन तक बढ़ा है? सुप्रीम कोर्ट में इन मीडिया घरानों के खिलाफ लड़ाई जारी है। जीत कर्मचारी की होगी, न्याय देर से सही मिलेगा जरूर।

लेखक विनोद पाठक वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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Comments on “झूठ का पुलिंदा है टाइम्स ऑफ इंडिया का संपादकीय

  • ashish dubey says:

    whatever conditions are,it is likely for giant media to be humane
    As a bread earner of a family,how can someone remove or make a professional resign on terms of economic slowdown
    Its a humble suggestion,assess your branch manager capabilities also and listen to the person you force to leave.

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