Sanjaya Kumar Singh : “मुझे याद आ रहा था कि बहुत साल पहले टीवी पर अजब-गजब ख़बरों का दौर आया था। हम लोगों ने भी ऐसी बहुत सी ख़बरें दिखलाई थीं। कभी कोई जादूगर आता, कभी कोई नाक से गाने वाला आता और कभी कोई नाक से खाने वाला। कोई बालों से ट्रक खींचता, तो कोई ट्यूब लाइट ही खा जाता। मेरे एक साथी को ऐसी ख़बरों में बहुत आनंद आता था। वो इन खब़रों को इंटरनेट पर ढूंढता और फिर उन्हें अजब-गजब के नाम से दिखलाता।
एक दिन वो दफ्तर नहीं आया। मैंने उसे फोन किया तो वो रोने लगा। रोते-रोते उसने बतलाया था कि कल जब वो दफ्तर में बल्ब खाने वाला शो दिखला रहा था, उसी समय उसके सात साल के बेटे ने एक पुराने बल्ब को तोड़ कर उसकी तीन साल की बेटी को खाने के लिए दिया। उसने कहा कि देखो टीवी पर आ रहा है।
वो तो समय रहते उन बच्चों पर निगाह पड़ गई और वो नहीं हुआ, जिसके बारे में सोच कर रूह कांप जाती है। पर उसके बाद उसे लगने लगा कि हम टीवी पर जो दिखलाते हैं, उसका असर दूर-दूर तक होता है। उसके बाद ऐसी खब़रों से उसने तौबा कर ली। मैं उसे अक्सर मना करता था ऐसी ख़बरें दिखलाने से। पर जब तक अपने पर नहीं आती है, आदमी समझता नहीं।
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कल वो छोटी-सी लड़की, जिसे अभी अपनी पढ़ाई पूरी करनी है, अपना करीयर शुरू करना है, वो मुझसे पूछ रही थी कि क्या फलां ज्योतिषी का नंबर मिल जाएगा? इसका मतलब ये हुआ कि जिन भविष्वाणियों को हम टीवी पर यूं ही टीआरपी के चक्कर में और मनोरंजन के चक्कर में दिखलाते हैं, उनका असर इस नई पीढ़ी पर भी पड़ रहा है। तो क्या ऐसा भी होता होगा कि घरेलू समस्याओं को सुलझाने के लिए लोग इन चक्करों में फंसते होंगे? ज़रूर होता होगा।
अब तक तो मैं दूसरों को नसीहत ही देता आया हूं कि ऐसा करना चाहिए, वैसा नहीं करना चाहिए। पर कल के फोन के बाद मुझे लगने लगा है कि पहले मुझे सीखने की ज़रूरत है कि हमें टीवी पर क्या दिखलाना चाहिए, क्या नहीं दिखलाना चाहिए। पहले मैं सोचता था कि पुरानी पीढ़ी ही इन ज्योतिषियों की बातें सुनती होगी, और उसका समय कटता होगा। नई पीढ़ी को तो मुझे इतना ही बतलाना है कि रिश्ते मन के भाव से सुधरते हैं। प्रेम से सुधरते हैं।
फिलहाल उस एक फोन ने मुझे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया है। मैं कल रात से बहुत बार कुछ-कुछ सोचता रहा हूं। मैं जो फैसला लूंगा, वो तो लूंगा ही, लेकिन फिलहाल मेरा दुख ये भी है कि आख़िर एक सास-बहू में क्यों नहीं बन पाती है? क्यों उनके बीच अहं की इतनी लड़ाई है? कुल जमा चार लोग घर मैं हैं, क्यों खुशी-खुशी साथ नहीं रह पा रहे।”
Sanjay Sinha की आज की उपरोक्त पोस्ट के इस अंश को पढ़कर याद आया कि एक बार मित्र को ज्योतिष वाला पन्ना बनाकर घर जाना था। पंडित जी का कॉलम नहीं आया था, देर हो रही थी। उस समय फोन, ई मेल थे नहीं। किसी को आकर दे जाना था। और हमारे पास इंतजार के अलावा कोई विकल्प नहीं था। हाथ का लिखा कॉलम साथी को मिलता उसके बाद वह कंपोज होता, प्रूफ रीडिंग आदि के बाद पेज में लगता तब वह साथी निकल पाता। पूरा पेज बन चुका था।
उसने अपनी परेशानी बताई तो मैंने उसे सुझाव दिया कि कोई पुराना निकाल कर लगा दे और निकल चले। सुझाव उसे पसंद आया और उसने ऐसा ही किया। बात आई-गई हो गई। किसी को पता भी नहीं चला। पर पंडित जी जब अगले सप्ताह आए तो चकित थे कि उन्होंने तो कॉलम दिया नहीं, छपा कैसे? उन्हें चिन्ता अपने धंधे की थी। और इसी से बात खुली कि पंडित जी के बिना भी ज्योतिष का कॉलम कैसे छपता रह सकता है। खैर वो कॉलम जितना महत्त्वपूर्ण था उस हिसाब से आगे कुछ नहीं हुआ और कॉलम चलता रहा। जिसे टीवी वालों ने इतना महत्त्वपूर्ण बना दिया है।
वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह के फेसबुक वॉल से.