जयंत सिंह तोमर-
प्रोफेसर कमल दीक्षित…. हम उनके स्वामी विवेकानंद तो नहीं थे, लेकिन पत्रकारिता के क्षेत्र में वे हमारे रामकृष्ण परमहंस जरूर थे. प्रोफेसर कमल दीक्षित का हमसे विदा होना पत्रकारिता की उस परंपरा के प्रतिनिधि से बिछड़ना है जो हमें ऋषितुल्य सम्पादक रामानंद चटर्जी से जोड़ती रही.
भारत में पत्रकारिता शिक्षण की शुरुआत जिस उदात्त विचार के साथ सौ वर्ष पहले एनी बेसेन्ट ने थिओसोफिकल सोसाइटी के अड्यार केन्द्र से की थी प्रोफेसर कमल दीक्षित जी के माध्यम से उसका एक आवर्तन हम पूरा होते हुए देखते हैं.
इकोनॉमिक एंड पलिटिकल वीकली के संस्थापक कृष्णराज के निधन पर मैनचेस्टर गार्जियन ने सम्पादकीय लिखकर यह रेखांकित किया था कि किसी व्यक्ति के योगदान का उसकी परिधि में मूल्यांकन हो या न हो लेकिन दुनिया के किसी न किसी कोने में ऐसे लोग मौजूद हैं जो एक कृति व्यक्तित्व के जाने के बाद उपजे शून्य का अर्थ समझ पाते हैं.
यह भी इसके साथ जुड़ा तथ्य है कि रोम्या रोलां जैसे पहुंचे हुए विद्वान भी ‘ Gospel of shriramkrishna’ तभी लिख पाते हैं जब कोई दीपस्तंभ अपने उजाले के मूल स्रोत की ओर संकेत करे.
कमल दीक्षित पत्रकारिता के उन विरल अध्यापकों में से रहे जो न केवल पत्रकारिता के व्यावहारिक व सैद्धान्तिक पक्ष की गहरी समझ रखते थे बल्कि अपने समय में पत्रकारिता के दार्शनिक पक्ष के उद्भट भाष्यकार थे.
यह बात इस अनुभव के आधार पर कही जा रही है कि इन पंक्तियों के लेखक ने बीते पच्चीस वर्षों में देश के श्रेष्ठ पत्रकार और पत्रकारिता शिक्षकों का लिखा न केवल पढ़ा है बल्कि उनमें से अधिकांश को बहुत ही निकटता से देखा और सुना है.
यह जानते हुए भी कि पत्रकारिता की दशा और दिशा उत्साहवर्धक नहीं रही, प्रोफेसर कमल दीक्षित पत्रकार और सम्पादकों के साथ निरंतर आत्मीय संवाद बनाये रखने में रुचि लेते थे.
भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय की शुरुआत जिन पांच अध्यापकों के साथ हुई प्रोफेसर कमल दीक्षित उनमें से एक थे. पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के अध्यक्ष का दायित्व उन्होंने यहाँ सुदीर्घ अवधि तक सम्हाला.
अकादमिक क्षेत्र में आने से पहले वे ‘राजस्थान पत्रिका’ जयपुर में समाचार- सम्पादक और नवभारत इन्दौर में सम्पादक रहे.
एक समय जब झांसी के वैद्यनाथ दवा कंपनी के मालिकान ने प्रभाष जोशीजी को ‘ मध्यदेश ‘ अखबार की जिम्मेदारी दी थी तब कमल दीक्षित जी भी सम्पादकीय टीम के अंग रहे. मालवा के जिस इलाके से माखनलाल चतुर्वेदी और भवानी प्रसाद मिश्र का नाभी- नाल सम्बन्ध था दीक्षित जी का अटूट आत्मीय रिश्ता भी उसी माटी से था.
स्कूल से आगे कालेज की पढ़ाई के लिए तत्कालीन सेन्ट्रल प्राविंस एंड बरार की राजधानी नागपुर गये. समाचार जगत और पत्रकारिता शिक्षण से जुड़े देशभर के लोगों से उनके बडे़ सहज और आत्मीय संबंध थे.
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के लिए ‘समाचार-सम्पादन’ पर छोटी सी लेकिन उत्कृष्ट किताब उन्होंने लिखी.
‘भविष्य का पत्रकार’ उनकी लेखन परियोजना का हिस्सा था.
प्रोफेसर कमल दीक्षित का सबसे महत्वपूर्ण काम रहा।
मध्यप्रदेश में और उससे बाहर जाकर आंचलिक पत्रकारों की अनेकानेक कार्यशाला सफलता पूर्वक संचालित करना.
‘ मूल्यानुगत मीडिया’ के नाम से पत्रकारिता पर केन्द्रित एक सादा लेकिन उत्कृष्ट मासिक पत्र इन्दौर की स्पूतनिक प्रेस से दीक्षित जी नियमित प्रकाशित करते रहे.
आध्यात्मिक रुप से वे माउंट आबू के प्रजापिता ब्रह्मकुमारी विश्वविद्यालय से जुड़े रहे. दीक्षित जी का वहाँ बड़ा सम्मान था. उनके प्रयास से अनेक मीडिया कार्यशाला माउंट आबू में आयोजित हुईं और देश के नामी पत्रकार सम्पादक उन्हीके आग्रह पर वहाँ पहुंचते रहे.
दीक्षित जी भौतिक रूप से भले हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उन्होंने जो ‘ आत्मा का अन्न’ दिया है वह लम्बे समय तक उनके विद्यार्थियों को वैचारिक रूप से सक्रिय रखेगा . कहते हैं दुनिया के एक कोने पर जब तितली पंख हिलाती है तो दूसरे कोने पर तूफान भी आ सकता है.
दीक्षित जी जैसे अध्यापकों के विचार विद्यार्थियों में डिकोड हो जाते हैं. अनुकूल समय आने पर वह विचार अंकुरित, पुष्पित और पल्लवित होते हैं. उनसे जुड़ीं अनेक स्मृतियाँ अब हमारी संचित निधि हैं.