महत्वपूर्ण कौन… किसान या क्रिकेट?

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यह कतई आश्चर्य की बात नहीं है कि आजकल अखबार व दृश्य श्रव्य मीडिया का पहला समाचार क्रिकेट है, फिर राजनीतिक उठापटक और अपराध या फ़िल्मी सितारों की चमक दमक वगैरह। जंतर मंतर पर लाखों किसान देश के दूर दराज इलाकों से आकर अपनी समस्याएं बताना चाहते हैं लेकिन मीडिया लोकसभा और राज्यसभा में किसानों के चिंतकों की बात तो सुन रहा है परन्तु यहां मौजूद किसानों की नहीं। खड़ी फसलों की भयानक तबाही क्या महज एक खबर है ? यह बात एक किवदंती सी बहु-प्रचलित है कि देश में सत्तर प्रतिशत किसान हैं लेकिन मीडिया में उन पर चर्चा एक प्रतिशत से भी कम होती है।

गरीब मजदूर किसान के लिए इस मालामाल खेल का क्या अर्थ है ? इसमें अरबों खरबों रुपये का कारोबार है जबकि एक मजदूर को चाहिए सौ, दो सौ, तीन सौ रुपये अपने और अपने परिवार के भरण पोषण के लिए। क्रिकेट के प्रति दीवानगी का आलम यह है कि मैच वाले दिन सबका मनोरंजन क्रिकेट ही है। मैच देखने के अलावा कोई भी दूसरा कार्य संपन्न हो पाना संभव नहीं है। हमारी कार्य संस्कृति में खेल के बहाने इस विलासिता ने हमारी सामुदायिक उर्जा को प्रभावित किया है। क्रिकेट के प्रति मध्यवर्गीय जनों के पागलपन को देखकर लगता है जैसे यह खेल, खेल न होकर कोई पौराणिक अथवा अध्यात्मिक आस्था का प्रसंग हो। मीडिया के लिये क्रिकेट का मसला आज चर्चा में किसी भी राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दे से अधिक महत्वपूर्ण मसला है। साहित्य, कला, संस्कृति वगैरह अब मूल्यविहीन हो चुके हैं। भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में क्रिकेट को प्राणवायु अथवा धड़कन के रुप में बाजार द्वारा एक जरुरत बनाकर कुछ इस तरह प्रस्तुत किया गया है कि लोग आते जाते खाते पीते सोते उठते इस पर दीवानगी की हद तक फिदा हैं। आईपीएल के आपराधिक प्रसंग से यह बात स्पष्ट हो चुकी है लेकिन राजनेताओं और पूंजीपतियों के पक्के गठजोड़ के कारण  इसको रफा दफा कर दिया गया।

हमारी रुचि में यह बाजारवाद / उपभोक्तावाद   की घुसपैठ है, अतिक्रमण है। व्यवस्था से जुड़े सारे लोग क्रिकेट पर फिदा है और इसे किसी भी दृष्टि से नुकसानदायक नहीं माना जाता। हजारों लाखों लोग एक साथ एक ही समय में इस बहाने ठहर जाते हैं, क्या यह कार्य संस्कृति का ह्रास नहीं है? क्या हमारे इस कृत्य से वक्त का एक बड़ा हिस्सा या अवसर जाया नहीं होता? गर्व करने वाले  इस देश में चरित्र निर्माण से ही हमारी दृष्टि भटक जाये, इसे सदी का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है।

हाल ही में कर्नाटक के कोलार जिले में रेत माफिया के खिलाफ अभियान चलाने वाले एक आईएएस अधिकारी डीके रवि को बेंगलुरू में अपने आधिकारिक फ्लैट में मृत पाया गया।  इसके विरोध में कर्नाटक में जबर्दस्त रोष है और प्रतिरोध जारी है। पिछले दिनों पश्चिम बंगाल के नदिया जिले में एक बहत्तर वर्षीय नन गैंग रेप का मामला सामने आया। दिल्ली में एक युवती के सामूहिक बलात्कार के बाद देश भर में लोगों का ग़ुस्सा सड़कों पर फूट पड़ा था। तिहाड़ जेल में उसपर बनी  डॉक्यूमेंट्री पर खूब  विवाद हुआ। ऐसे बहुत से मामले हैं जिन्हें लेकर कुछ समय तो बहुत हंगामा होता रहा लेकिन धीरे-धीरे वो लोगों के मानसपटल से हट गए। अब सब क्रिकेटमय  हैं। उस देश में जहां हर 21 मिनट में बलात्कार की एक घटना होती है, वहां भयंकर से भयंकर अपराध को भी लोग जल्द ही भूल जाते है। इसकी यादें बची रहती हैं तो सिर्फ़ पीड़ित के परिवार वालों या सगे-संबंधियों के दिल में। तो गरीब किसानों की बात कौन तो करे ! प्रश्न यह है कि क्यों हो हल्ला और शोर शराबा होने पर ही सरकार और प्रशासन की नींद खुलती है ? इन प्रश्नों पर भी जन हित में विचार आवश्यक है। मीडिया किसी भी गंभीर मसले पर दस पंद्रह दिन हो हल्ला करने के बाद गहरी नींद सो जाता है। उसे अपने आर्थिक हित जो साधने हैं यही उसकी प्राथमिकता भी है। भारतीय नागरिक कदम कदम पर अपमानित होता है क्या इसी लोकतंत्र के लिए हमने स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी थे, इतने बलिदान दिए थे ? मीडिया को इन बातों से कोई अंतर नहीं पड़ता। क्योंकि वह जनहित का पक्षधर माध्यम नहीं है।

एक ओर लोग बुनियादी जरूरतों के लिए परेशान हैं। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में अपराध रुक नहीं पा रहे हैं तो दूसरी ओर अय्यासी और मनोरंजन पर करोड़ों रुपये बहाये जा रहे हैं।  गरीबों के प्रति प्रेस और मीडिया का रवैया क्या है आईये एक बर्ग व्यक्ति मदन लाल की बी बी सी पर छपी प्रतिक्रिया से आपको अवगत करते हैं। “आज देश की जो हालत है, उसके बारे में सोचता हूँ तो अफ़सोस होता है। पहले ये हालात नहीं थे. यह मेरा देश है, ऐसा नहीं लगता। किसी भी ग़रीब आदमी के लिए कहीं कोई ठिकाना नहीं है. कोई भी ग़रीब अगर कहीं एक झोपड़ी डालकर रह रहा है तो उसे उजाड़ दिया जाता है। अमीरों की आँखों में ग़रीब खटकने लगा है. हमने नहीं सोचा था कि देश की ऐसी हालत हो जाएगी। आज मीडिया से भी कोई आस नहीं है। आप लोग बड़े लोगों से और नेताओं से तो बात करते हो पर ग़रीब की बात करने वाला और लाचार लोगों को सहारा देने वाला कोई नहीं है. आप जो काम कर सकते हैं, वो भी नहीं कर रहे। लोगों पर ज़ुल्म हो रहा है पर सरकार कुछ नहीं कर रही है. देश की सरकार ही बेकार है। हाँ, जब वोट माँगने की बारी आती है तब नेताओं को याद आता है कि यह ग़रीबों की भी देश है। हम जैसे लोगों का भी देश है। तब उन्हें यह बुजुर्ग दिखाई देता है। पुलिस और अधिकारियों का रवैया भी लोगों के साथ इंसानों वाला नहीं है। उन्हें सामने वाला इंसान नज़र नहीं आता है. यह हमारा देश है और हम इसके लिए लड़ रहे हैं पर देश ही हमें ख़त्म करने पर तुला है।”
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया प्रारूप ने भारतीय मीडिया की अधकचरी संस्कृति को ओढ़ने-बिछाने वाले एक छोटे से तबके को भले ही कुछ ऐसा दे दिया हो जो उन्हें नायाब दिखता होगा, एक आम भारतीय समाज के लिए उसका कोई मूल्य या महत्व नहीं। यह ‘क्लास’ का मीडिया ‘मास’ का मीडिया बन ही नहीं सकता।

संजय कुमार के अनुसार “भारतीय मीडिया में दलित आंदोलन के लिए कोई जगह नहीं है. वह तो, क्रिकेट, सिनेमा, फैशन, तथाकथित बाबाओं, राजनेताओं, सनसनी, सेक्स-अपराध, भूत-प्रेत और सेलिब्रिटीज के आगे-पीछे करने में ही मस्त रहती है. इसके लिए अलग से संवाददाताओं को लगाया जाता हैं जबकि जनसरोकार एवं दलित-पिछड़ों सेसंबंधित खबरों को कवर करने के लिए अलग से संवाददाता को बीट देने का प्रचलन लगभग खत्म हो चुका है। इसे बाजारवाद का प्रभाव माने या द्विज-सामंती सोच ! मीडिया, सेक्स, खान-पान, फैशन, बाजार, महंगे शिक्षण संस्थान के बारे में प्राथमिकता से जगह देने में खास रूचि दिखाती है. ऐसे मैं दलित आंदोलन के लिए मीडिया में कोई जगह नहीं बचती ? अखबार हो या खबरिया चैनल, दलित आंदोलनकभी मुख्य खबर नहीं बनती है। अखबारों में हीरो-हीरोइन या क्रिकेटर पर पूरा पेज छाया रहता है, तो वहीं चैनल पर घण्टों दिखाया जाता है. दलित उत्पीड़न कोबस ऐसे दिखाया जाता है जैसे किसी गंदी वस्तु को झाडू से बुहारा जाता हो ?  समाज के अंदर दूर-दराज के इलाकों में घटने वाली दलित उत्पीड़न की घटनाएं, धीरे-धीरे मीडिया के पटल से गायब होती जा रही है। एक दौर था जब रविवार, दिनमान, जनमत आदि जैसी प्रगतिशी ल पत्रिकाओं में रिपोर्ट आ जाती थी. खासकर, बिहार व उत्तर प्रदेश में दलितों पर होते अत्याचार को खबर बनाया जाता था. बिहार के वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत की दलित उत्पीड़न से जुड़ी कई रिपोर्ट उस दौर में छप चुकी हैं, वे मानते हैं कि ‘आज मुख्यधारा की मीडिया, दलित आंदोलन से जुड़ी चीजों को नहीं के बराबर जगह देती है। पत्र-पत्रिकाएं कवर स्टोरी नहीं बनाते हैं। जबकि घटनाएं होती ही रहती हैं। हालांकि, एक आध पत्र-पत्रिकाएं है जो कभी-कभार मुद्दों को जगह देते दिख जाते हैं।’ साठ-सत्तर के दशक में दलितों, अछूतों और आदिवासियों, दबे-कुचलों की चर्चाएं मीडिया में हुआ करती थी। दलित व जनपक्षीय मुद्दों कोउठाने वाले पत्रकारों को वामपंथी या समाजवादी के नजरिये से देखा जाता था. लेकिन, सत्तर के दशक में गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों ने राष्ट्रीय मीडिया को बदलाव में धकेलना शुरू कर दिया जो अंततः सत्ता विमर्श का एक हिस्सा बन गया. दबे-कुचले लोगों के ऊपर दबंगो के जुल्म-सितम की खबरें, बस ऐसे आती है जैसे हवा का एक झोंका हो! जिसका असर मात्र क्षणिक भी नहीं होता. साठ-सत्तर के दौर में ऐसा नहीं था। सामाजिक गैर बराबरी को जिस तेवर के साथ उठाया जाता था उसका असर देर सबेर राजनीतिक, सामाजिक और सत्ता के गलियारे में गूंजता रहता था।‘

पिछले कुछ सालों में महिलाएं कई क्षेत्रों में आगे आयी हैं। उनमें नया आत्मविश्वास पैदाहुआ है और वे अब हर काम को चुनौती के रूप में स्वीकार करने लगी हैं। अब महिलाएं सिर्फ चूल्हे-चौके तक ही सीमित नहीं रह गयी हैं, या फिर नर्स, एयर होस्टेस यारिसेप्शनिस्ट नहीं रह गयी हैं, बल्कि हर क्षेत्र में उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी है।चाहे डॉक्टरी-इंजीनियरी या प्रशासनिक सेवा का पेशा हो कम्प्यूटर और टेक्नोलॉजी काक्षेत्र हो, विभिन्न प्रकार के खेल हो पुलिस या वकालत का पेशा हो, होटल मैनेजमेंट,बिजनेसमैनेजमेंट या पब्लिक रिलेशन का क्षेत्र हो, पत्रकारिता, फिल्म और विज्ञापन का क्षेत्र हो या फिर बस में कंडक्टरी या पेट्रोल पंप पर तेल भरने का काम हो या टैक्सी-ऑटो चलाने की ही बात हो, अब हर जगह महिलाएं तल्लीनता से काम करती दिखाई देती हैं।अब हर वैसा क्षेत्र जहां पहले केवल पुरुषों का ही वर्चस्व था, अब वहां स्त्रियों को काम करतेदेखकर हमें आश्चर्य नहीं होता है। यह हमारे लिए अब आम बात हो गयी है। महिलाओं में इतना आत्मविश्वास पैदा हो गया है कि वे अब किसी भी विषय पर बेझिझक बात करती हैं। धरना-प्रदर्शन में भी आगे रहती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अब कोई भी क्षेत्र महिलाओं से अछूता नहीं रहा है।उन्हें अब सिर्फ उपभोग की वस्तु नहीं माना जाता है। लेकिन चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या फिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो, स्त्रियों के प्रति मीडिया की सोचमें कोई बदलाव नहीं आया है। मीडिया अब भी स्त्रियों के प्रति वर्षों पुरानी सोच पर कायम है। मीडिया आज भी स्त्रियों को घर-परिवार या बनाव-श्रृंगारतक ही सीमित मानती है।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, टेलीविजन धारावाहिकों, समाचार चैनलों और टेलीविजन   विज्ञापनों ने महिला की एक दूसरी छवि बनाई है। इनमें एक नई किस्म की महिलाओं को दिखलाया जाता है जो परंपरागत शोषण और उत्पीड़न से तो मुक्त दिखती हैं लेकिन वह स्वयं पुरुषवादी समाज के लिएउपभोग की वस्तु बनकर रह जाती हैं। इन दिनों हमारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मुक्त महिला का जो रूप दिखाता है, वह उपभोक्ता महिला का ही रूप है जो सिगरेट पीती है, शराब पीती है और जुआ खेलती है। इनमें अधिकतर उच्च मध्य वर्ग की महिलाओं की इसी छवि को दिखाया जाता है। मीडिया विज्ञापनों, धारावाहिकों और फिल्मों के भीतर महिला का निर्माण करते हुए यह भूल जाता है कि भारत की शोषित, दमित महिला की मुक्ति का लक्ष्यबाजार में साबुन   बेचने वाली महिला नहीं हो सकती। महिलाओं के मामले में समाचार पत्रों का भी हाल कोई जुदा नहीं है। आप कोई भी अखबार उठा लें, गांव में, खेत-खलिहानों में, परिवार में, नौकरी में,महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव की चर्चा, उससे लड़ने की आवश्यकता पर लेख/रिपोर्ट मिले या नहीं, सुंदरता बढ़ाने के उपायों पर विस्तृत लेखअवश्य मिलेंगे।

मेधा पाटकर, किरण बेदी की चर्चा हो या नहीं, ऐश्वर्य राय, कैटरीना कैफ आदि का गुणगान अवश्य मिल जायेगा। प्रगतिशील और आंदोलनी तेवर वाली महिलाओं, आधुनिक विचारधारा वाली, अन्याय और शोषण के खिलाफ आंदोलन करने वाली, सड़कों पर नारे लगाते हुए जुलूस निकालने वाली, धरना देने वाली, सभाएं और रैलियां करने वाली समाचार-पत्रों में महिला अत्याचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाली,कल-कारखानों और खेतों में काम करने वाली, पुलिस, इंजीनियरिंग, चिकित्सा, प्रशासन में ईमानदारी के साथ काम करने वाली महिलाओं कीजितनी चर्चा समाचार पत्रों में होती है उससे कई गुणा अधिक चर्चादेह एवं अपने सौंदर्य की तिजारत करने वाली अभिनेत्रियों एवं मॉडलों की होती है। प्रिंट मीडिया में महिलाएं अब भी सिर्फ हाशिये की ही जगह पाती हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियों का रूप  लिए जा रहे इन समाचार माध्यमों में क्या कोरपोरेट हित के अलावा भी कोई बात होती है, जन सरोकारों की बात भी आपको पढ़ने-देखने-सुनने को मिलती है ? नहीं  ! अगर कुछ समूह गांव-गरीब-किसान की कभी बात करते भी हैं तो स्वाभाविक तौर पर नहीं बल्कि लोकतंत्र को कमज़ोर करने वाले भ्रष्ट तत्वों द्वारा प्रायोजित-प्रभावित हो कर ही जैसा कि फिलहाल हम भूमि अधिग्रहण बिल की बहस में साफ दिख रहा है।

लेखक शैलेंद्र चौहान से संपर्क ’34/242, सेक्टर -3, प्रतापनगर, जयपुर -302033′ के जरिए किया जा सकता है.



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