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साहित्य

आपकी सामग्री को सुरक्षित रखने की जगह इंटरनेट नहीं बल्कि किताबें हैं!

दिनेश श्रीनेत-

भारत के इंडिपेंडेंट सिनेमा पर बात करने वाली वेबसाइट ‘डियर सिनेमा’, अनुराग कश्यप और उनके कुछ अन्य सिनेमा से जुड़ें साथियों की ‘पैशन फॉर सिनेमा’ और सत्यजित राय के जीवन और कार्यों को समर्पित एक बेहतरीन वेबसाइट अब उपलब्ध नहीं हैं. कुछ हद तक उनका कंटेंट आर्काइव डॉट ओआरजी पर खोजने पर मिल जाएगा. इंटरनेट पर लिखा गया बहुत कुछ बेहतरीन अचानक अनुपलब्ध हो जाता है. इसकी कई वजहें होती है. यदि आप अपनी वेबसाइट निजी प्रयासों से चला रहे हैं तो डोमेन रजिस्ट्रेशन से लेकर सर्वर पर स्पेस लेने और डिजाइन थीम तक का किराया चुकाना होता है और यहां थोड़ी सी चूक होने पर आप नुकसान उठा सकते हैं.

यदि आपने दूसरे के प्लेटफॉर्म पर अपना कंटेंट डाल रखा है तो पूरी तरह उसके रहमो-करम पर चलना पड़ता है. तमाम चौकसी के बावजूद इंटरनेट पर कॉपी राइट के नियमों का जमकर उल्लंघन होता है. हिंदी के कई बेहतरीन ब्लॉगर्स को अब खोजना मुश्किल है. बहुत बार वे सर्च में नहीं मिलते, या सोशल मीडिया आने के बाद वे खुद ही उदासीन हो गए. हिंदी में इंटरनेट पर लिखना सिखाने वाले रवि रतलामी ने इस वर्ष के आरंभ में चुपचाप हमसे विदा ले ली और हिंदी की दुनिया में कोई हलचल नहीं हुई. आज उनके ब्लॉग ताला लगे खाली घरों की तरह दिखते हैं.

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जिन लोगों ने फेसबुक जैसे सोशल माध्यम पर लिखकर अपनी पहचान बनाई है, उसमें भी एक किस्म की तात्कालिकता है. यह बहुत मुश्किल है कि आप पीछे दो बरस, 10 बरस में जाकर देखना चाहें कि अमुक ने किसी विषय पर क्या कहा-लिखा था, और वह आसानी से मिल जाए. आम इंसान के लिए इस एक्सेसिबिलिटी के बिना आपके काम का कोई संग्रह या आर्काइव नहीं बन पाता है. यहां भी प्रोफाइल हैक हो जाती है. या फेसबुक बिना कारण बताए आपके पेज या प्रोफाइल को हटा देता है. आपकी वर्षों की मेहनत पर पानी फिर जाता है.

कुल मिलाकर इंटरनेट आपकी सामग्री को संरक्षित करने के लिए सुरक्षित जगह नहीं है. इस माध्यम में तात्कालिकता तो है, मगर बोलने और लिखने के दौरान जिस जिम्मेदारी के साथ हम अपनी बात कहते हैं, उसका नितांत अभाव है. यही वजह है कि सोशल मीडिया अनर्गल प्रलाप, गाली-गलौज और मनचाहे नतीजे निकालने से भरता जा रहा है. इसके विपरीत किताबों से जुड़े कुछ रोचक तथ्य देखिए.

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दुनिया की सबसे ज्यादा छपने वाली किताब बाइबल का पहला संस्करण जोहान गुटेनबर्ग ने छपवाया था. कागज पर लगभग 200 प्रतियां और चर्मपत्र पर 30 डीलक्स प्रतियां प्रकाशित हुई थीं. आज 500 साल से भी ज्यादा वक्त बीतने के बाद गुटेनबर्ग बाइबिल की लगभग 46 प्रतियां बची हैं, जो दुनिया के अलग-अलग कोनों में मौजूद पुस्तकालयों और निजी संग्रहों में सुरक्षित हैं. इसी तरह विलियम शेक्सपियर की रचनाएँ पहली बार सन् 1623 में प्रकाशित हुईं. इतने बरस बीत जाने के बाद भी इन किताबों की लोकप्रियता कम नहीं हुई है.

यह सच है कि छपाई का आविष्कार होने के बाद सब कुछ नहीं सुरक्षित रह सका है लेकिन जो कुछ भी उल्लेखनीय लिखा गया, उनमें से अधिकतर को सहेजा जा सका है. अब जरा डिजिटल माध्यम से किताब की तुलना करें. किताब पाठक के पास एक अमानत की तरह रहती है. ठीक वैसे जैसे कि पिता का दिया कोई उपहार, मां की संभालकर रखी गई क्राकरी या दादी का पहना हुआ कोई गहना. किताब आप हाथ में थामते हैं, सहेजकर रखते हैं. कई बरस तक सुरक्षित रख सकते हैं. जबकि डिजिटल दुनिया में किताब का अस्तित्व ही नहीं होता. चाहे वह किंडल हो या आपका लैपटॉप या फिर मोबाइल.

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डॉटकाम बबल बर्स्ट के बाद जब दोबारा देश में इंटरनेट का प्रसार हुआ तो मैं हिंदी के सबसे आरंभिक पत्रकारों में से एक था जिसने इस माध्यम पर भरोसा किया. इस माध्यम को अपने करियर के 16-17 साल देने के बाद भी मुझे लगता है कि छपे हुए शब्द ही सबसे ज्यादा प्रामाणिक हैं. उनका अपरिवर्तनीय होना उनके प्रति ज्यादा भरोसा पैदा करता है. कानूनी दृष्टि से और प्रामाणिकता की दृष्टि से भी. किताब में छपा शब्द बदला नहीं जा सकता. मगर डिजिटल में इसकी हमेशा संभावना रहेगी. कोई लेखक नहीं चाहेगा कि उसके लिखे को कभी 50 बरस के बाद तोड़-मरोड़ दिया जाए.

किताबों को कभी उठाकर किसी भी पृष्ठ पर तुरंत पहुँचा जा सकता है. चाहे आपने बुकमार्क लगाया हो, उस पन्ने को मोड़ दिया हो या पृष्ठ संख्या याद कर ली हो. किताबों में विचार होते हैं, भावनाएं होती हैं मगर उनको किसी वस्तु की तरह उपहार में दिया जा सकता है. किताब की सबसे बड़ी खूबी उसका इंसानी हाथों में फिट बैठना है. एक हाथ में थाम सकते हैं. सोचते हुए उसे सीने से टिका सकते हैं, नींद में किताब गिर भी गई तो उसका कोई नुकसान नहीं होने वाला.

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आपने जो भी सोचा-लिखा हो, वह सबसे पहले और सबसे अंतिम रूप में किताबों में ही सुरक्षित रहने वाला है. उसका सीमित होना ही उसकी ताकत है. सीमित संख्या में उपलब्ध होने के कारण ही उसे संभालकर रखा जाएगा. वह इंटरनेट पर धूल की तरह विलीन नहीं हो जाएगा. शब्द कभी पत्थर पर उकेरे गए, कभी चमड़े पर, कभी पत्तों, कभी कपड़ों तो कभी कागज़ पर. शब्दों को एक ठोस सतह चाहिए.

खुद पर चाकू से हुए जानलेवा हमले के बाद सलमान रुश्दी लिखते हैं, “अपने खाली रतजगों में मैंने एक विचार के तौर पर चाकू के बारे में बहुत सोचा. भाषा भी एक चाकू है. यह दुनिया को काटकर इसके अर्थ को सामने ला सकती है. यह लोगों की आँखें खोल सकती है. सौंदर्य रच सकती है. भाषा मेरा चाकू थी.”

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हर लेखक सफेद कागज़ पर स्याही में उभरे अपने विचारों को उंगलियों से छूना चाहता है और आश्वस्त होना चाहता है. जब तक भाषा है, कम या ज्यादा किताबें भी रहेंगी. एक चाकू की तरह अपना काम करती रहेंगी.

किताब के पक्ष में बस इतना ही.

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