Sangam Pandey-
करीब महीने भर पहले उनके निर्देशन में ‘अंधा युग’ देखने के बाद कल रामगोपाल बजाज साहब निर्देशित ‘लैला मजनूँ’ देखी। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशकत्व से मुक्त होने के 22 साल बाद विद्यालय रंगमंडल ने उसी तरह उन्हें ये दो नाटक निर्देशित करने के लिए बुलाया है जैसे कभी खुद उन्होंने रंगमंडल प्रमुख रहते हुए इब्राहीम अलकाजी को बुलाया था। रंगमंच के छात्रों को इन दोनों प्रस्तुतियों को अवश्य देखना चाहिए, ताकि वे इधर के वर्षों में रही भसड़ के बरक्स थिएटर में स्पीच, चरित्रांकन, रिद्म, इंटेंसिटी और भव्यता आदि के क्राफ्ट और अनुशासन को सही से समझ सकें।
‘लैला मजनू’ ब्रिटेन में रहने वाले इस्माइल चुनारा का लिखा नाटक है। चुनारा ने इसकी रोमांटिक ट्रैजेडी को एक सोशल ट्रैजडी के लेंस से देखा है, जहाँ मजनू को तो बेखुद दीवाना होने की छूट है, पर लैला को नहीं। इससे पहले कि वो किसी दीवाने शायर की गिरफ्त में आ जाए उसका बाप उसके टुकड़े-टुकड़े कर देने पर आमादा है। लैला कहती है- काश, वह महज एक कहानी होती, पर वह तो एक हकीकत है। पूरे नाटक में कोई नृत्य नहीं है, कहानी का मैलोड्रामा भी काफी अंडरटोन होने से एक्शन की कोई उठापटक भी नहीं है। फिर भी वो क्या चीज है जो एक इंटरवल के साथ सवा दो घंटे लंबी इस प्रस्तुति से दर्शक को बाँधे रखती है। वह चीज है उसका इमोशन, उसका राग और उसकी लय। यूँ तो यह सारा कुछ पूरे स्टेज के स्तर की सांगोपांग प्रक्रिया है, लेकिन इसका एक प्रमुख अवयव है अभिनेताओं में किरदार का आभ्यंतरीकरण। नाटक के उर्दू संवादों के साथ यह प्रक्रिया कितनी कठिन रही होगी अंदाजा लगाया जा सकता है। पर दोनों मुख्य पात्र मंच पर अपने में इतने गहरे डूबे हुए दिखाई देते हैं कि उन्हें देखते रहना ही अपने में एक मुकम्मल वजह बन जाती है। लैला बनीं मधुरिमा में किरदार का एक ऐसा सुसंयोजन है जो क्रमशः गाढ़ा होता जाता है। दो विदूषक दास्तानगो भी काफी रुचिकर ढंग से यहाँ मौजूद हैं, जिनके मजाकिया तौर-तरीकों में भी अच्छी लय है। इनके अलावा कहानी को आगे बढ़ाने के लिए पाँच स्त्रियों का कोरस भी रह-रह कर सुघड़ दृश्यों में तब्दील होता है।
रामगोपाल बजाज रंगमंच में शब्द के साधक हैं। उन्हें काव्य आवृत्तियों के लिए जाना जाता है, और भाषा में स्वर और व्यंजन के भेद की चर्चा वे अक्सर करते रहे हैं। इस लिहाज से ‘अंधा युग’ और ‘लैला मजनूँ’ दोनों ही न सिर्फ मुख्यतः स्पीच के नाटक हैं, बल्कि तत्सम और उर्दू-मिश्रित के दो छोर भी हैं। ऐसे नाटकों के जरिए उन्होंने अरसे बाद वाचिक के वैभव की प्रतिष्ठा की है। दोनों ही प्रस्तुतियाँ शानदार ध्वनि-संयोजन हैं। खासकर लैला मजनूँ, जिसमें अजान के स्वरों से लेकर अरेबियन संगीत तक को शामिल किया गया है। इसका संगीत स्वयं रंगमंडल प्रमुख राजेश सिंह ने दिया है, और यह इतना रुचिकर है कि इसपर अलग से लिखा जाना चाहिए।
बजाज साहब का मानना है कि ‘अंधा युग’ टैगोर के ‘मुक्तधारा’ और अज्ञेय के ‘उत्तर प्रियदर्शी’ के साथ आधुनिक भारतीय नाटकों की सबसे महत्त्वपूर्ण त्रयी है। उनके मुताबिक धर्मवीर भारती ने अंत में बूढ़े व्याध के माध्यम से कहना चाहा है कि अब कोई ईश्वर नहीं है और युद्ध जैसी समस्या लोगों को खुद सुलझानी होगी। कि जो अंधा नहीं है, और विकृत नहीं है वह मानव भविष्य को बचाएगा। उनकी इस प्रस्तुति में यद्यपि दृश्यात्मकता की विधियाँ नाटक के वैचारिक पक्ष के लिहाज से किंचित भारी प्रतीत होती हैं, लेकिन अभिनय, प्रकाश योजना और स्वर संयोजन सहित यह भी एक बड़ी प्रस्तुति है। महीना भर गुजर जाने के बावजूद गांधारी की भूमिका में रीता रानी का अभिनय मुझे आज भी याद है। इन दोनों प्रस्तुतियों के जरिए एनएसडी रंगमंडल एक लंबे इनर्शिया के बाद अब मानो थोड़ा चैतन्य हुआ है। अतीत में देखी प्रस्तुतियों के क्रम में याद आता है कि चाहे ऐतिहासिक परिवेश की प्रस्तुति हो चाहे खालिस यथार्थवादी, बजाज साहब हमेशा ही काफी तराश के साथ उन्हें मंच पर लाते हैं। फिर चाहे वो ‘कैदे हयात’ हो, चाहे ‘लोअर डेप्थ’, चाहे कामू का ‘जायज हत्यारे’। यहाँ तक कि कृष्ण बलदेव वैद का कैजुअल तरह से लिखा गया नाटक ‘भूख आग है’ भी।