माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से एक बात तो साफ हो गई है कि जो लोग मजीठिया की लड़ाई लड़ रहे लोगों के दम पर मोटी रकम की उम्मीद लगाए बैठे थे, उनकी दाल अब असानी से गलने वाली नहीं है। रही बात श्रम विभाग की तो वहां भी वही लोग जाएंगे, जिन्होंने अपनी-अपनी मैनेजमेंट के साथ सीधे टक्कर लेने का दम रखा था। ऐसे में श्रम विभाग के लिए अपनी रिपोर्ट में यह कहना आसान होगा कि कुछ चुनिंदा लोगों को छोड़ कर बाकी किसी को मजीठिया वेज बोर्ड के क्रियान्वयन को लेकर कोई शिकायत नहीं है। बाकी काम अखबारों के मालिक व उनके तलवे चाटने वाले सरकार व विभाग पर दबाव बनाकर पूरा कर देंगे। लिहाजा यह लड़ाई अब संगठित होकर लड़ने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं बचा।
दूसरी ओर कोर्ट के इस निर्णय ने उन लोगों की भी बोलती बंद कर दी है, जो यह कहते फिरते थे कि श्रम विभाग में शिकायत करने से कुछ नहीं होने वाला। अब कर लो बात, शिकायत तो करनी ही पड़ेगी। अगर देखा जाए तो कोर्ट का यह निर्णय संतोषजनक है, क्योंकि मजीठिया वेज बोर्ड को लागू करवाने की कानूनी जिम्मेवारी सभी राज्यों के श्रम विभाग की है। ऐसे में श्रम विभाग को चुस्त कैसे किया जाए, यह दायित्व अपना अधिकार मांगने का दम रखने वालों पर निर्भर करेगा। ऐसा नहीं है कि श्रम विभाग पूरी तरह अखबार मालिकों या सरकार के दबाव में काम करेगा। कुछ मामलों में ऐसा हो सकता है, मगर यह बात भी सत्य है कि वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट के प्रावधानों के तहत एक श्रम निरीक्षक को शिकायत पर कार्रवाई तो क0रनी ही पड़ेगी। यह कार्रवाई कितनी प्रभावी होगी, यह शिकायतकर्ता की सक्रियता पर ही निर्भर करेगा।
मसलन, मैंने जब मजीठिया वेज बोर्ड की लड़ाई शुरू की थी तो यही रणनीति अपनाते हुए अपनी मैनेजमैंट के खिलाफ तिहरा शिकंजा कसना शुरू कर दिया था। यह तो पहले से ही पता था कि इसका नतीजा घर बैठने के अलावा दूसरा नहीं होगा। मई माह में मैंने पहले श्रम अधिकारी को शिकायत की। इस पर जब कार्रवाई शुरू हुई तो मैनेजमेंट ने अपनी नीयत के अनुरूप शिकायत को रफादफा करवाने की कोशिश की। संपादक के जरिए दबाव बनाकर मुझे शिकायत वापस लेने को तो राजी करवा लिया, मगर मैंने श्रम निरीक्षक को भेजे पत्र में यह बात जाहिर नहीं होने दी कि संस्थान सही है और मैं गलत। शिकायत वापस लेने के लिए भेजे पत्र में यह लिखा था कि संस्थान मुझे वेज बोर्ड के तहत वेतनमान व एरियर देने की बात मान गया है, लिहाजा विवाद समाप्त किया जाए।
हालांकि इस पत्र की भाषा पढ़ कर नोएडा कार्यालय से एक अधिकारी लाइट लेकर पहुंच गए, मगर मैं इस खत को वापस लेने को नहीं माना। इसके बाद ही प्रबंधन ने केस वापस होते ही मेरा तबादला 31 जुलाई को जम्मू कर दिया था। जब मेरे तबादला आदेश जारी हुए थे, उस समय भी मैं मजीठिया वेज बोर्ड की लड़ाई लड़ते हुए श्रम निदेशक शिमला कार्यालय में था। वहां आरटीआई के तहत जानकारी न मिलने की अपील लगा रखी थी। फिर मैंने स्थिति भांपकर अगस्त माह के पहले सप्ताह में हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट शिमला में मुकद्दमा करने का निर्णय लिया और केस दायर कर दिया। इसके बावजूद मैंने श्रम विभाग में लड़ाई बंद नहीं की। श्रम अधिकारी धर्मशाला से आरटीआई के तहत जरूरी जानकारियां एकत्रित करने के अलावा मेरा तबादला किए जाने, वेतन बंद करने व अन्य प्रकार से उत्पीड़न की शिकायत करने की लड़ाई जारी रखी।
हालांकि इन नौ माह में मुझे राहत तो नहीं मिली, मगर श्रम विभाग इस मामले को लेकर सक्रिय जरूर हो गया। इस मामले में एक बात पता चली कि जिस वर्किंग जर्नलिस्ट एंड अदर न्यूजपेपर इंप्लाइज एक्ट को लेकर आज तक श्रम विभाग ने कोई शिकायत ही न सुनी हो, वह इस पर इतनी तीव्रता से कोई कार्रवाई भी कैसे कर पाएगा। मेरे केस में ही देखा गया कि श्रम विभाग के कार्यालय में इस वेज बोर्ड को लेकर जारी आदेश व अन्य सरकारी दस्तावेज फाइलों में धूल फांक रहे थे। मेरी शिकायत के बाद श्रम अधिकारियों ने इन्हें हवा दी और इन पर अपनी नजरें दौड़ाईं तो उन्हें पता चला कि इस मामले में कुछ तो करना होगा।
मेरी आरटीआई पर ही श्रम विभाग ने सभी जिलों में प्रकाशित हो रहे अखबारों से मजीठिया वेज बोर्ड लागू किए जाने की रिपोर्टें तलब करना शुरू किया। अकेले व्यक्ति की लड़ाई होने के कारण श्रम विभाग भी मामले को गंभीरता से नहीं ले रहा था। अधिकारी हर बार एक ही सवाल करते कि बाकी लोग आवाज क्यों नहीं उठा रहे हैं। यहीं बात हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट में चल रहे मेरे मामले में भी देखने को मिली। इसके बावजूद आज मेरे पास वो जरूरी जानकारियां मौजूद हैं, जो यहां के अखबारों में मजीठिया वेज बोर्ड लागू न किए जाने के साक्ष्य के तौर पर कोर्ट के लिए जरूरी हो सकती हैं। इस तरह श्रम विभाग में जिस जानकारी को जुटाने में मुझे नौ माह का समय लग गया, उसे तीन माह में कैसे तैयार किया जा सकता है, इस पर विचार करना जरूरी है।
मेरा अब तक का अनुभव तो यही कहता है कि अब मजीठिया के लिए संघर्षरत देश भर के पत्रकारों को एक होकर एक मंच तैयार करना होगा। इसके तहत हमें पहले राज्य स्तर पर कार्यकारिणी बनानी होगी और साथ में राष्ट्रीय कार्यकारिणी गठित करके एक आंदोलन के तौर पर काम करना होगा। अलग-अलग लड़ाई लड़ने का नतीजा अभी तक सभी ने देख लिया है। सिर्फ माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवमानना का केस चलाकर ही यह लड़ाई जीतना आसान नहीं है। इसके लिए और कई कानूनी पहलुओं पर संघर्ष की जरूरत है। यह निर्णय एक मई को मजदूर दिवस पर लिया जाए तो इस दिन एक नए आंदोलन की शुरुआत हो सकती है। बाकी सबकी मर्जी।
मजीठिया वेतनमान के लिए लगातार संघर्षरत वरिष्ठ पत्रकार रविंद्र अग्रवाल से संपर्क : 9816103265
ramawtar gupta
May 29, 2015 at 11:11 am
ladai aage kaise badhani hai saaf kare.