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मजीठिया मामले में सबसे डरपोक अमर उजाला के कर्मचारी, सिर्फ मिमियाएं नहीं : रवींद्र अग्रवाल

मजीठिया वेज बोर्ड को लेकर अखबार मालिकों से चल रही लड़ाई में सबसे ज्यादा बुरी हालत में अमर उजाला के कर्मचारी दिख रहे हैं। अधिकतर बड़े अखबारों की यूनियनों के अलावा उनके कर्मचारियों ने एकजुट होकर अपने-अपने प्रबंधन के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है, मगर अमर उजाला के दब्बू/डरपोक कर्मचारियों की हालत भेड़-बकरियों जैसी बनी हुई है। हर किसी को पता है कि उसे हलाल किया जाने वाला है, मगर सभी मिमियाने के अलावा गुर्राने की हिम्मत नहीं दिखा पा रहे हैं।

मजीठिया वेज बोर्ड को लेकर अखबार मालिकों से चल रही लड़ाई में सबसे ज्यादा बुरी हालत में अमर उजाला के कर्मचारी दिख रहे हैं। अधिकतर बड़े अखबारों की यूनियनों के अलावा उनके कर्मचारियों ने एकजुट होकर अपने-अपने प्रबंधन के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है, मगर अमर उजाला के दब्बू/डरपोक कर्मचारियों की हालत भेड़-बकरियों जैसी बनी हुई है। हर किसी को पता है कि उसे हलाल किया जाने वाला है, मगर सभी मिमियाने के अलावा गुर्राने की हिम्मत नहीं दिखा पा रहे हैं।

हैरानी तो इस बात की है कि इस ग्रुप में जो कोई लड़ाई लड़ने को आगे आया है, बाकी लोग उसका साथ तक नहीं दे रहे। अब ऐसे कर्मचारियों की हालत पर तरस आने लगा है, जो प्रबंधन से दया की उम्मीद लिए बैठे हैं, वो भी तब जबकि एक-एक कर इन सभी को या तो कंपनी से बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है या फिर इसके लिए मजबूर किया जा रहा है। इतना ही नहीं, अधिकतर कर्मचारियों को एक-एक कर के पे-रोल से ही बाहर किया जा रहा है। अब तो प्रबंधन कर्मचारियों की सेलरी तक कम करने की हिम्मत दिखाने में लग गया है।

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अमर उजाला प्रबंधन के खिलाफ अकेले लड़ाई का बिगुल बजाने वाले हिमाचल प्रदेश के पत्रकार रविंद्र अग्रवाल का कहना है कि अगर अभी भी इस अखबार के कर्मचारी एकजुट न हुए तो इनकी हालत बंधुआ मजदूरों से भी बदतर होने वाली है। उन्होंने बताया कि जिस अखबार को इसके कर्मचारी बाकी अखबारों से अलग मानकर अपने सुखद भविष्य की कामना लिए बैठे थे, अब उस अखबार का प्रबंधन व मालिकान कर्मचारियों के हक देने के नाम पर उनको कंपनी से बाहर का रास्ता दिखाने की जुगत में जुटे हुए हैं। 

अमर उजाला ने तो माजीठिया वेज बोर्ड को लागू करने को लेकर तभी से धांधली शुरू कर दी थी, जबसे कर्मचारयों को बेसिक का 30 फीसदी अंतरिम राहत के तौर पर देने की घोषणा हुई थी। प्रबंधन ने कर्मचारियों को अंतरिम राहत के नाम पर पूरी राशि आज तक नहीं दी। इस हिसाब से एक-एक कर्मचारी के हजारों रुपये का एरियर तो अंतरिम राहत से ही बनता है। वहीं वेज बोर्ड की सिफारिशों को लागू करने के नाम पर अमर उजाला की सभी यूनिटों को अलग दिखाकर कोर्ट की अवमानना से बचने का प्रयास किया गया है, मगर लगता नहीं कि प्रबंधन व मालिकान इससे बच पाएंगे। फिर भी अपना हक हासिल करना इतना आसान नहीं है। संगठित प्रयास से ही ऐसा संभव हो सकता है।

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रविंद्र अग्रवाल ने बताया कि फिलहाल अमर उजाला के कर्मचारियों को एकजुट होने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि चंद कर्मचारियों के कोर्ट में जाने का मतलब यह नहीं है कि प्रबंधन सभी को घर बैठे उनका हक दे देगा। वैसे भी कोर्ट के फैसले का लाभ उन्हीं को ही मिलता है, जो कानूनी लड़ाई लड़ते हैं। 

उन्होंने बताया कि अगर कोर्ट का फैसला उनके हक में आता भी है, तो बाकी कर्मचारियों को अपने हक के लिए प्रबंधन से लोहा लेना ही पड़ेगा। ऐसे में दब्बू बनकर एक-एक कर के हलाल होने के बजाय सभी एकजुट हो जाएं। उन्होंने कहा कि अगर कर्मचारी सामने नहीं आना चाहते तो वे अंदरूनी स्तर पर भी एकजुट होकर सामने आने की हिम्मत करने वालों का साथ देकर उनकी ताकत बढ़ा सकते हैं। 

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रविंद्र ने बताया कि वह इस लड़ाई में अपना कैरियर दांव पर लगा बैठै हैं, मगर वह हर हाल में न्याय हासिल करके रहेंगे। उन्होंने सुझाव दिया है कि अमर उजाला के कर्मचारी एकजुट होने के लिए देर न करें। इसके लिए एक मेल आईडी [email protected] भी बनाई गई है। जो कर्मचारी संगठित होने की इच्छा रखता है, वह इस मेल आईडी पर अपनी इच्छा जाहिर करके रविंद्र अग्रवाल के मोबाइल नंबर 9816103265 पर संपर्क कर सकता है।

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0 Comments

  1. जेम्स

    March 31, 2015 at 9:05 pm

    भइया रवींद्र आप वास्तव में हिममती और शेर दिल हैं, जो अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई… उजाला ग्रुप में ऐसे सैकड़ों बकरे हैं जो खुद को हलाल होने का इंतजार तो कर ही रहे हैं लेकिन चाय की दुकान पर आपकी बहादुरी के किस्से भी सुनाते हैं। लेकिन उनकी —- में इतना दम नहीं कि खुद आवाज उठा सकें। वो खुद को आज्ञाकारी और तमीजदार समझते हैं, लेकिन रामलाल की चाय की दुकान पर पहुंचते ही प्रबंधन और संपादक की मां-बहन एक करने से बाज नहीं आते। उन्हें उम्मीद है आपसे, यसवंत भाई से और भगवान से… खुद तो साले नपुंसक और आपाहिज की तरह कुबेर का खजाना बंटने की आस लगाए बैठे हैं। कुछ नहीं हो सकता इनका… इन्हें इन्हीं के हाल पर छोड़ देना चाहिए… ना तो यसवंत जी को इनके लिए कुछ करना चाहिए और न ही किसी और को… पुरानी कहावत है कि जब तक बच्चा रोता नहीं मां भी दूध नहीं पिलाती… नाजाने यह कहावत इनकी समझदानी में कब आएगी. और तो और दूसरे अखबारों के पत्रकारों से भी साले कुछ सीखने को तैयार नहीं है, इन्हें तो बस बकचौदी करनी आती है, उसके अलावा घंटा कुछ नहीं कर सकते ये….

  2. news naidunia

    April 1, 2015 at 9:51 am

    यशवंत भाई साहब, भड़ास को मजीठिया पर सारे अखबार कर्मियों की आवाज उठाने के लिये साधुवाद और आभार। यहां नईदुनिया में भी मजीठिया को लेकर एकजुटता नजर आने लगी है। नवदुनिया कर्मियों ने तो नोटिस थमा ही दिये हैं अब इंदौर की बारी है। दरअसल नईदुनिया में आनंद पांडे की सनक और उसके गुर्गों की गुंडई ने इस मुहिह का रंग चौखा कर दिया है। जो कभी मैनेजमैंट के पिट्ठू थे वे भी पांडे से आजिज आ कर हक की लड़ाई में साथियों के साथ आ जुटे हैं। पेश है अखबार में पांडे के पट्ठों की गुंडई के हाल- नईदुनिया में इन दिनों चाय से
    ज्यादा गरम केतलियों के चर्चे
    नईदुनिया में इन दिनों चाय यानि आनंद पांडे से ज्यादा गरम केतलियों के चर्चे हैं। हालत यह है कि इन केतलियों से यहां सभी तौबा करने लगे हैं।
    कोई भी बात हो तो ये केतलियां इस कदर मुंह से आग निकाल रही है कि इनकी चपेट से बच पाना नामुमकिन है।
    हाल ही में ऐसी ही फ्रंट पेज की केतली ने अपनी चपेट में प्रदेश के पेज पर सालों से काम कर रहे प्रदीप दीक्षित को अपनी चपेट में लिया। मनोज प्रियदर्शी नाम की इस केतली से ऐसा ताप निकला कि प्रदीप दीक्षित पर अब शायद प्यार का महंगा से महंगा मलहम भी असर नहीं करेगा। बात भी जरा सी थी, लेकिन जब सय्या भये कोतवाल तो डर काहे का कि तर्ज पर एक खबऱ को लेकर सभी लोगों के बिच मनोज ने चिल्लाते हुए कहा कि इस अखबार में काम करने वाले सारे लोग गधे हैं। यहां काम करने वालों में न्यूज सेंस बिल्कुल नहीं है। जब प्रदीप ने कहा कि आप बताएं कौन सी खबर लगाना चाहिए तो मनोज ने कहा कि जब इतनी अकल नहीं है तो यहां क्या इतने सालों से झक मार रहे थे।
    बेचार प्रदीप की आंखों से आंसू निकल आए। पूरा स्टाफ हतप्रभ गया। सभी लोग इस घटना के बाद से और ज्यादा लामबंद हो गए।
    इस घटना को अभी कुछ ही दिन हुए थे कि यही केतली फिर से छलकी और इस बार चपेट में आए प्रदेश का ही पेज देख रहे जाने माने पत्रकार राजेंद्र गुप्ता। जी हां, राजेंद्र जी वही पत्रकार हैं, जिनकी तूती पूरे प्रदेश में बोला करती रही है। …लेकिन मनोज ने इनकी भी बोलती बंद कर रखी है। यहां भी मुद्दा खबर ही थी। एक निहायत ही लोकल खबर को लेकर मनोज की जिद थी कि इसे प्रदेश के पेज की लीड लगाई जाए। उन्होंने कहा कि मेरा पेज आप दो बार बदलवा चुके हैं और पेज का टाईम भी हो चुका है। इसके बावजूद मनोज का कहना था कि नहीं मैं इंचार्ज हूं। हर हाल में मेरी बात मानना पड़ेगी। जमकर तू-तू मैं-मैं हुई, लेकिन अंत में गुप्ता जी को झुकना पड़ा।
    इस केतली में उबाल कई बार आ चुका है। इससे प्रताड़ित होकर ही फ्रंट पेज से मधुर जोशी, उज्जवल शुक्ला संस्थान छोड़कर भास्कर का दामन थाम चुके हैं। वरिष्ठ जयेंद्र गोस्वामी इस्तीफे की पेशकश कर चुके हैं। अन्यंत गंभीर और शालिन सीमा से यह अशालिनता कर चुका है।
    आगे और भी केतलियों का खुलासा होता रहेगा।…

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