वीरेंद्र यादव-
आज अंग्रेजी के दो अखबारों ‘इन्डियन एक्सप्रेस’, ” और ‘ दी टेलिग्राफ’ ने समाजवादी पार्टी के चुनाव चिन्ह ‘साइकिल’ को आतंकवाद से जोड़ने और और निकृष्ट स्तर के भाषण के लिए प्रधानमंत्री की तीखी आलोचना की है.
‘इन्डियन एक्स्प्रेस ‘ ने लिखा है कि ‘प्रजातंत्र मे विरोधी दलों का अनादर जनता के चुनाव के अधिकार और जनतंत्र का ही अनादर है.
प्रधानमंत्री स्तर के चुनाव प्रचारक द्वारा चुनावी गर्मी के मौसम में इस जरुरी अंतर का भुला देना निराशाजनक व निरुत्साहित करने वाला है.’ दि टेलिग्राफ ने चुनाव आयोग की रीढ़विहीनता पर चिंता प्रकट करते हुए लिखा है कि देखना है कि चुनाव आयोग क्या कदम उठाता है!
रघुवीर सहाय की कविता की वह पंक्ति याद आ. रही है –
‘लोकतंत्र का अंतिम क्षण है, कहकर आप हंसे…. ‘.
दया शंकर रॉय-
अब भी कोई कहता है कि एक प्रधानमंत्री के रूप में मोदी जी की इज्ज़त की जानी चाहिए क्योंकि उन्हें जनता ने चुना है और उनकी इज्जत न करना लोकतंत्र का अपमान है, तो ऐसे मित्र आज के indian express की इस संपादकीय को पढ़ लें जिसमें प्रधानमंत्री पर उनके बयान के लिए टिप्पणी करते हुए कहा गया है कि लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हर प्रधानमंत्री की यह जिम्मेदारी है कि वह विपक्षी दलों का सम्मान करे और उनके लिए किसी गरिमाहीन भाषा का प्रयोग न करे।
लेकिन प्रधानमंत्री ने सपा के चुनाव चिन्ह साइकिल को आतंकवाद से जोड़कर लोकतंत्र और चुनाव आयोग दोनों का अनादर करते हुए उन पर प्रहार किया है क्योंकि चुनाव चिन्ह का आवंटन चुनाव आयोग ही करता है..! लेकिन आज के इस चुनाव आयोग को भी क्या कहें जो अपने अधिकार और स्वायत्तता दोनों को गिरवी रख चुका है..! बहरहाल इस संपादकीय को जरूर पढ़ा जाना चाहिए यह सोचने के लिए कि प्रधानमंत्री पद की गरिमा को कहाँ पहुंचा दिया गया है..!
जहां तक चुने जाने की बात है तो इस लोकतंत्र में कुलदीप सेंगर, तड़ीपार, अमरमणि त्रिपाठी और चिन्मयानंद और प्रज्ञा ठाकुर जैसे जाने कितने चुन लिये जाते ही हैं..! क्या महज़ चुन लिए जाने से ही वे सम्मान के पात्र हो जाते हैं..??
उर्मिलेश-
ज्योति कुमारी याद है न! कोरोना को रोकने के नाम पर सन् 2020 में की गयी तालाबंदी के दौरान इस बहादुर बेटी ने अपने अस्वस्थ पिता को साइकिल पर बैठाकर गुडगाँव से दरभंगा पहुंचाया था.
साइकिल न होती तो बाप-बेटी क्या करते? कैसे अपने पैतृक गांव पहुंचते? सरकार ने तो सबकुछ आनन-फानन में बंद कर दिया था. लोगों के खाने-पीने और रहने का भी प्रबंध नहीं किया.
देश के कई राज्यों की सरकारों ने अपने-अपने यहां स्कूल जाने वाली लड़कियों में साइकिलों का वितरण किया ताकि वे समय से स्कूल पहुंचें और छात्राएँ पढ़ाई के लिए प्रेरित हों! इस योजना को चलाने वाली सरकारें काफी लोकप्रिय हुईं और उनके इस काम को सराहा गया. तमिलनाडु में M Karunanidhi की सरकार ने तो स्कूल जाने वाली लड़कियों के साथ लडको में भी साइकिलें बंटवाई. बिहार में Nitish kumar, ओडिशा में Navin Patnaik और बंगाल में Mamta Banarjee की सरकारों ने साइकिलें खूब बांटी.
पता नहीं भारतीय जनता पार्टी और केंद्र सरकार के शीर्ष नेताओं को साइकिलों से इतनी ‘चिढ़’ क्यों हो गयी कि वे अपने किसी राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी की आलोचना/निन्दा के साथ उसके साइकिल चुनाव चिन्ह को भी कोसने लगे. साइकिलें उन्हें ‘आतंकवाद का वाहक’ दिखने लगीं. ऐसा हाल रहा तो वे कुछ दिन में ‘प्रेशर कुकर’ को भी आतंकवाद का बड़ा वाहक बता सकते हैं क्योंकि अतीत में कई जगहों पर ‘आतंकियों’ ने प्रेशर कुकर के जरिये विस्फोट कराये थे.
डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन को तो साइकिलों की ‘वैश्विक राजधानी’ कहा जाता है. डैनिश लोग पर्यावरण संरक्षण और अपने स्वास्थ्य के लिए अक्सर ही शहर के सफ़र के लिए साइकिलों का इस्तेमाल करते हैं. यूरोप और एशिया के कई प्रमुख देशों में साइकिलों और साइकिल सवारों का जलवा दिखता है. फिर भारत में ही साइकिलों को ‘खलनायक’ क्यों साबित किया जा रहा है?
ये क्या बात हुई, कोई भाजपा का आलोचक है तो क्या वह ‘कमल के फूल’ को भी नापसंद करने लगे? कोई कांग्रेस का निंदक है तो क्या वह अपने ‘हाथ’ पर ही चोट करने लगे?
अपन न किसी राजनीतिक पार्टी के समर्थक हैं और न उसके चुनाव चिन्ह के प्रचारक हैं. ज़रूरत के हिसाब से हर पार्टी की आलोचना करते हैं. पर साइकिल की सवारी तो बचपन में हमने भी की है. इसकी उपयोगिता से अच्छी तरह वाकिफ़ हूँ.
सचमुच चकित हूँ, क्या अपने देश की शीर्ष राजनीतिक सत्ता पर आसीन लोग भी चुनाव में फायदा पाने के लिए कुछ भी बोल सकते हैं! कुछ भी कर सकते हैं!