Jayram Shukla-
पत्रकारिता में खतरे बनाम पत्रकारिता के खतरे
कोरोना 01 के समय लिखा था कि- कोरोना रहे या न रहे, लेकिन अगले दो महीनों के भीतर साठ प्रतिशत पत्रकार, पत्रकार(वेतनभोगी) नहीं रह जाएंगे।
कथित बड़े अखबार और भी सिकुड़ेंगे यानी कि उनके क्षेत्रीय संस्करण बंद होंगे, पुलआउट-मैगजीन विलुप्त होंगी, लघु-मध्यम अखबारों के सिर्फ वाट्सएप संस्करण बचेंगे।
निकट भविष्य का मीडिया पक्षपाती और अफवाहबाज बन जाएगा। स्थिति कुछ ऐसी बनेगी कि सच खोजना, रुई के धूहे में सुई खोजने जैसा होगा…!
कोरोना .02 तक आते-आते यह सब सच में बदल गया..।
अब आगे होना यह है कि सभी छोटे-मध्यम-बड़े मीडियाघर किसी कारपोरेट या सिंडिकेट की एक छतरी के नीचे आ जाएंगे..। उन्हीं की फ्रेंचाइजी महानगर से कस्बो तक चलेगी.. जैसे कि फूड चैन, जैसे कि रिटेल चैन जैसे की ब्राडेड फास्टफूड के स्टाल।
दार्शनिक/विचारक थामस फुलर कह गए हैं- सरकार क्यों न किसी की हो पर वास्तविक शासन व्यापारी ही करता है।..और सरकारें बदली जा सकती हैं लेकिन व्यापारी नहीं!
सोशल मीडिया का रूप बदलेगा कुछ भी(गुस्सा, असहमति, प्रतिरोध) व्यक्त करने की आजादी छिनेगी। हर सोशल मीडिया प्लेटफार्म में एक कानूनी छन्ना लग जाएगा..।
और तब..! आपको गोरख पान्डेय की यह कविता याद आएगी-
राजा बोला रात है
रानी बोली रात है
मंत्री बोला रात है
संतरी बोला रात है
सब बोले रात है
ये सुबह-सुबह की बात है।
लेकिन फिर भी-
छपे हुए शब्द कल भी विश्वसनीय थे और भविष्य में भी रहेंगे।
वास्तविक अखबारों को बचना है तो ट्रस्टीशिप माँडल में आना होगा। उनके लागत दाम पर पाठकों को पढ़ने की शुरुआत करनी होगी..। भले ही एक दिन के अखबार का दाम..दो रु..की जगह बीस -पच्चीस रुपये हो..।